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सखी हम बंसी क्यों न भए

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सखी हम बंसी क्यों न भए।
अधर सुधा-रस निस-दिन पीवत प्रीतम रंग रए।
कबहुँक कर में, कबहुँक कटि में, कबहूँ अधर धरे।
सब ब्रज-जन-मन हरत रहति नित कुंजन माँझ खरे।
देहि बिधाता यह बर माँगों, कीजै ब्रज की धूर।
’हरीचंद’ नैनन में निबसै मोहन-रस भरपूर॥

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Sootradhar