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हरी हरी दूब पर ओस की बूंदे अभी थी

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हरी हरी दूब पर 

ओस की बूंदे 

अभी थी, 

अभी नहीं हैं| 

ऐसी खुशियां 

जो हमेशा हमारा साथ दें 

कभी नहीं थी, 

कहीं नहीं हैं| 


क्‍कांयर की कोख से 

फूटा बाल सूर्य, 

जब पूरब की गोद में 

पाँव फैलाने लगा, 

तो मेरी बगीची का 

पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा, 

मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं 

या उसके ताप से भाप बनी, 

ओस की बूंदों को ढूंढूं? 



सूर्य एक सत्य है 

जिसे झुठलाया नहीं जा सकता 

मगर ओस भी तो एक सच्चाई है 

यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है 

क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊं? 

कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पिऊं? 


सूर्य तो फिर भी उगेगा, 

धूप तो फिर भी खिलेगी, 

लेकिन मेरी बगीची की 

हरी-हरी दूब पर, 

ओस की बूंद 

हर मौसम में नहीं मिलेगी।

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Sootradhar