
आग सी लग रही है सीने में
अब मज़ा कुछ नहीं है जीने में
आख़िरी कश्मकश है ये शायद
मौज-ए-दरिया में और सफ़ीने में
ज़िंदगी यूँ गुज़र गई जैसे
लड़खड़ाता हो कोई ज़ीने में
दिल का अहवाल पूछते क्या हो
ख़ाक उड़ती है आबगीने में
कितने सावन गुज़र गए लेकिन
कोई आया न इस महीने में
सारे दिल एक से नहीं होते
फ़र्क़ है कंकर और नगीने में
ज़िंदगी की सआदतें 'असलम'
मिल गईं सब मुझे मदीने में
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