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यात्रा

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रात के अँधेरे में दौड़ती जाती है पंजाब मेल

खिड़कियों से छुट-छुटकर गिरते हैं रोशनी के पट्टे

हवाएँ लोह झंझरियों-सी बजतीं।

तलहथियों की आड़ में बग़लगीर मुसाफ़िर ने

सुलगाई माचिस

और उघारती गई लौ चेहरे के अनगिनत रहस्य—

कलकत्ते के कारख़ाने में बहाल

जलंधर का एक मज़दूर

जा रहा है वापस फिर काम पर,

छूट गया है मुल्क बहुत दूर

थोड़ी-सी धूल पंजाब की।

दौड़ती जाती है पंजाब मेल—

पच्छिम से पूरब, पच्छिम से पूरब।

“पंजाब तो बहुत ख़ुशहाल है, निहाल सिंह?

सुनते हैं लोग वहाँ दूध और मट्ठे से तर हैं,

निहाल सिंह?

फिर तुम क्यों जाते हो पश्चिम बंगाल,

बोलो, निहाल सिंह?”

“कौन नहीं चाहता जहाँ जिस ज़मीन उगे

मिट्टी न जाए वहीं,

पर दोमट नहीं, तपता हुआ रेत ही है घर

तरबूज का,

जहाँ निभे ज़िंदगी वही घर वही गाँव।”

फैलता जाता है धुआँ

लोहे की छातियों को धोता जाता है धुआँ,

खिड़कियों से झाँकता है पंजाबी मज़दूर

दूर अंधकार गहन गसा अंधकार

कहीं-कहीं से रोशनियों के परिवार

और यहाँ पंजाबियों से भरा हुआ डिब्बा

पंजाबी मर्द, पंजाबी लड़कियाँ, औरतें, बच्चे

सब के सब जा रहे हैं वापस फिर काम पर,

ये परिवार मज़दूरों के

जूट कारख़ानों के, लोह कारख़ानों के

कोई नहीं जानता कब बंद हो जाएँगी कौन-सी मिलें

किनकी होगी छँटनी, किनकी कटेंगी तनख़्वाहें,

सब रह गए थे पर दो-एक दिन फ़ाज़िल।

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Sootradhar