
सपने में देखा
उन्होंने मेरे हाथ से क़लम छीन ली
आँख खुलने पर ख़बर मिली
कि दुनिया में काग़ज़ बनाने लायक़ जंगल भी नहीं बचे अब
सपने में सिरहाने से तकिया उठा ले गया था कोई
सुबह पता चला कि आजीवन
किसी और के बिस्तर पर सोई रही मैं
वे सब चीज़ें जो मेरी नहीं थीं
बहुत ज़रा देर के लिए दी गईं मुझे सपनों में
बहुत ज़रा-ज़रा
मछलियाँ पानी से बाहर आते ही जान नहीं छोड़ देतीं
औरतों के सपने उन्हें ज़रा देर के लिए मनुष्य बना देते हैं
यही ग़ज़ब करते हैं
सपने के भीतर दुनिया को मेरे माथे पर काँटों का ताज
और पीठ में अधखुबा ख़ंजर नहीं दिखाई देता
डरती हूँ मैं उन लोगों से जो यातना को
रंग और तबक़े के दड़बों में छाँट देना चाहते हैं
लेकिन पहले डरती हूँ अपने सपनों से
जो अपने साथ कोई हल या हथियार नहीं लाते
उसी आदमी को मेरी थरथराती टूटती पीठ सहलाने भेजते हैं
जिसे अपने चार शब्द सौंप देने का भरोसा नहीं मुझे
और अबकी नींद खुलने पर भी शायद याद रहे
कि यही खोया था मैंने, यही ‘भरोसा’
यही याद नहीं आ रहा था जागते में एक दिन
मेरे सपने बहुत छोटे आयतन और वृत्त
की संभावनाओं पर टिके
दसियों साल से न देखे हुए एक चेहरे
की प्रत्याशा पर टूट जाते हैं
जबकि मैं न जाने क्या क्या करना चाहती हूँ उस चेहरे के साथ
कितनी विरक्ति, घृणा, कितना प्रेम।