
मैं वह रेखा
जो तुम्हारी ज्यामिति से बाहर निकल गई है
तुम्हारी खगोल विद्या से बाहर का तारा हूँ
मैंने कमरे के भीतर आना चाहा था बस
तुम्हारी शाला की विद्यार्थी नहीं मैं
कैसे अटूँ तुम्हारे प्रमेय के किसी स्टेप में
जबकि मेरा भी एक हिसाब है
जो पराजयवश नहीं हल किया मैंने
यही दो और दो को पाँच कहने से मना करता है
गणित मेरा प्रिय विषय कभी नहीं रहा
मैं अपनी गढ़न में पृथ्वी की मूल निवासी
लगातार भी सिखाया जाए
कि क्या कहना कितना छिपा लेना है
सीख नहीं पाऊँगी
झूठ लिखते वक़्त भी
सच बोल सकने का साहस होना चाहिए
मिट्टी को उगकर, पानी को डूबकर देखना
अर्वाचीन है
कुछ ऊबड़-खाबड़ लोग ही
दुनिया को रहने लायक़ समतल बना रहे हैं
कविता का स्टीरियोटाइप तय करने की
तुम्हारी क़वायद बेकार गई
मेरा वसंत तो एक उजाड़ की बाँहों में खिलता है
डरती हूँ उस आदमी से जो कहेगा
जाओ, एक औरत से क्या लड़ूँ
जान जाती हूँ, अब वह मुझसे पुरुष की तरह लड़ेगा
आख़िर, तुम्हारे गिलास की तली में बच रहा नशा नहीं
विक्टोरिया प्रपात से छिटक गई बूँद हूँ
उग रही हूँ हरे रंग में जांबिया के जंगल में
नहीं डर रही पानी की विराट सत्ता से।