
पलकें झपकती आँखों के समक्ष
भौंहों के बीच
शून्य सिकुड़ता है तो क्या!—
अंत को पाए हुए मर्त्य की घनीभूत चेष्टाएँ
उसके अपलक होने में आहत हैं?
तुम्हारे अ-साध्य सौंदर्य पक्ष की ओर
मैंने जो स्थैर्य साध लिया है,
क्या तुम उसे विचलन की सीमा कहकर चले जाओगे?
पानी के पुल बाँधकर
उफनती नदी से पार पाओगे तुम!—
[कि, अपनी तहों में डूबी नदी वह
तुम्हें बहा ले जाने को उफनती है।]
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