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बाँग

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कौन लौटेगा तुम्हारी दुनिया में

यह जानते हुए कि

अब एक टीस के साथ पूरी उम्र बितानी है

उम्र, कितनी लंबी उम्र

कहो तो बिलांग भर की भी नहीं

नापो तो साहिल तक पैर भी नहीं डिगते

जितनी दूर से इस पारावार को देखता हूँ

किनारा उतना छोटा होता जाता है

तैरकर पहुँचने को भी साँसें छोटी होती जाती हैं

साँस, कितनी लंबी साँस भर कर

पूरी उम्र जिया जा सकता है

क़रीबन एक साँस में रेत के भीटे की तरह ढह जाती है

बार-बार ग़ुब्बारे की तरह फेफड़े फुला-फुलाकर

भरते रहना है इसे आसरे से

ताकि आसान लगता रहे जीते हुए मरना

दम धर कर तल्ख़ियाँ पर माथा धुनते हुए

सवालों की भीड़ में एक सवाल की तरह खो जाना

एक सवाल, जिसकी उधेड़बुन में लगी हुई तादाद

सवाल जिसकी चपेट में आ रहे हैं आँकड़े

जम्हूरियत नाच-गा रही है

मौक़ापरस्तों की दुकानों का मुनाफ़ा बढ़ गया है

कालाबाज़ारी का और काला होना

और सरकारी साजो-सामान की सफ़ेदी का बढ़ते चले जाना

देखा-गिना जा सकता है

कौन लौटेगा तुम्हारी दुनिया में

जिसे दुनिया नहीं कह सकते

लापरवाह आवारा भीड़ कहना ठीक होगा

जो अपनी बेहूदगियों से बाज़ नहीं आती

उस दुनिया में लौटने से

क्या लौटा दोगे मुझे?

खो देने को पा लेने से कभी नहीं बदला जा सकता

इतनी व्याकुलता के साथ कोई निर्झर नहीं गिरता होगा

जितनी अकुलाहट से शरीरों को गिरते हुए देखा

आसमान कई बार ढहता है

सीने पर पत्थर रखकर

हर बार सहारा देना पड़ता है उसे वापस उठाने को

एक टूटी हुई भाषा में निकली हुई कराहें

उधार रहेंगी बची-खुची आत्माओं पर

इस दुनिया तक लौटने का रास्ता

मिटता जाएगा मन के मानचित्र से

यह दुनिया अब बस एक धुँधली परछाई है

जिसे मैं नहीं देख सकता

अपनी आँखों में उतरते हुए

तुम्हारी आँखों पर चढ़ते हुए

लाचारगी ही है कि

ताउम्र आँखें मलते रहने पर भी

उजाला नहीं लौटेगा

कौन लौटेगा तुम्हारी दुनिया में

जहाँ का सूरज अंधा हो चुका है।

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