हर गाम सँभल सँभल रही थी's image
0204

हर गाम सँभल सँभल रही थी

ShareBookmarks

हर गाम सँभल सँभल रही थी
यादों के भँवर में चल रही थी

साँचे में ख़बर के ढल रही थी
इक ख़्वाब की लौ से जल रही थी

शबनम सी लगी जो देखने मैं
पत्थर की तरह पिघल रही थी

रूदाद सफ़र की पूछते हो
मैं ख़्वाब में जैसे चल रही थी

कैफ़ियत-ए-इंतिज़ार-ए-पैहम
है आज वही जो कल रही थी

थी हर्फ़-ए-दुआ सी याद उस की
ज़ंजीर-ए-फ़िराक़ गल रही थी

कलियों को निशान-ए-रह दिखा कर
महकी हुई रात ढल रही थी

लोगों को पसंद लग़्ज़िश-ए-पा
ऐसे में 'अदा' सँभल रही थी

Read More! Learn More!

Sootradhar