स्नेहाकांक्षी's image
0425

स्नेहाकांक्षी

ShareBookmarks

तुम प्रणाम करते हो

उसे रोज़ सवेरे

सर झुका कर

क्योंकि

डर है तुम्हें

झुलसा न दे तुम्हें वह कहीं।

तुम्हारा प्यारा चन्द्रमा

हो जाता है अदृश्य,

तारे अस्तित्वहीन

उस के समक्ष ।

फिर भी

वह तुम्हें कुछ भला नहीं लगता

क्योंकि

तेज बहुत है उस में;

और

दोपहर को

होता है जब वह अपने चरमोत्कर्ष पर

तब उस की ओर

सर उठा कर देखा भी

नहीं जाता ।


वह

कुछ – कुछ

घमंडी, थोड़ा अक्खड़

और काफी बदमिज़ाज

प्रतीत होता है (है भी ) ।

वह

समझता क्या है

अपने आप को!

हुँह, तानाशाह ?


तुम

उसे पसंद नहीं करते

क्योंकि

तुम्हें लगता है

कि झुलसा देगा वह

बड़े यत्न से लगाई हुई

तुम्हारी बगिया ।

देखो

तारे रहते हैं

कैसे मिल जुल कर,

चन्द्रमा भी साथ में,

पर

वह

हठीला, मदमस्त

बस अपनी ही चलाता है।

अकेले चलना

शान समझता है।


लेकिन ……….

अरे सोचो तो

उस की क्रोधाग्नि

उस की लपटें

क्या उसे भी

नहीं जला रहीं?

स्नेह के कुछ छींटे

या राह के कुछ

सच्चे हमसफ़र

शीतल

न करेंगे उसे ?


मन बड़े विश्वास से भी

“शायद”

ही कह पाता है ।


(मई ५, १९९६)

Read More! Learn More!

Sootradhar