
जाड़े की सुबह को,
बैठा हूँ मैं बाहर धूप में,
जब एक भूरा कुत्ता और काला कौवा
आकर कुछ इस तरह बैठ जाते हैं -
मेरे ठीक सामने तो नहीं
पर किसी कोण से लगातार दिखाई देते रहते हैं।
भूरा कुत्ता बहुत कुछ सड़क पर पड़ी
गंदगी जैसा लगता है -
जिसे सूँघता है वो खुद,
और काला कौवा आकाश पर छाए
उसी काले धुंआ की तरह
जिसमें उड़ता है वह खुद।
मन ही मन अपनी इस
सोच पर इतराता हूँ, जब
घर के अन्दर से आती एक आवाज़
मुझे कुछ याद दिलाती है;
और मैं स्कूटर स्टार्ट कर
उसी गन्दी सड़क पर,
वैसा ही काला धुआँ छोड़ता
निकल पड़ता हूँ, कुछ काम निबटाने।
काला कौवा और भूरा कुत्ता अब
बहुत पीछे छूट गए हैं ।
(सन् 1995 की कविता)
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