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ख़ाक मैं ने जो उड़ाई थी बयाबानों में

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ख़ाक मैं ने जो उड़ाई थी बयाबानों में

रस्म अभी तक वो चली आती है दीवानों में

वहशियों को ये सबक़ देती हुई आई बहार

तार बाक़ी न रहे कोई गरेबानों में

जिस को हसरत हो मिरे दिल से निकल जाने की

ऐसा अरमाँ न हो शामिल मिरे अरमानों में

मुझ से कहती है मिरी रूह निकल कर शब-ए-ग़म

देख मैं हूँ तिरे निकले हुए अरमानों में

वही अज़़कार-ए-हवादिस वही ग़म के क़िस्से

'अब्र' क्या इस के सिवा है तिरे अफ़्सानों में

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Sootradhar