मूल : किरीट दूधात
अनुवाद : . रानू मुखर्जी
"सभी तैयारियाँ हो गई हैं न जादू?" सवजी दादा ने पूछा।
जादव मामा ने हामी भरी, "जी दादा।"
"रसोई का माहौल कैसा है?"
"लुगाइयों का तो वहाँ ज़बर्दस्त विरोध है अभी तक तो मेरी माँ और चाची यही कह रही हैं कि मंजु को तो नहीं ही भेजना है।"
सवजी दादा ग़ुस्से से भर उठे, "सब गँवार की गँवार ही रहीं। सबको समझाया कि बेकार के झंझट को छोड़ो फिर भी अड़ी हुई हैं, बहुत हो गया अब तो उनसे निबटना ही पड़ेगा," कहते हुए सवजी दादा ऑफ़िस से निकलकर रसोई की ओर चल दिए।
"लुगाइयाँ तो बड़ी जिगरवाली निकलीं," कहते हुए जादव मामा ऑफ़िस के फ़र्श पर चाक से तीन गोटी से खेलने वाले खेल की रेखाएँ खींचने लगे। फिर मुझे देख कर बोले, "भाँजे अपनी दादी से कह देना कि तुझे सुबह-सबेरे तैयार कर दे, कहीं तेरी वज़ह से देर न हो जाए।"
और तभी जादव मामा के पिताजी रामजी दादा बाहर से आए। उन्होंने पूछा, "भाई कहाँ गए सब? क्या हुआ पूरी बात का?"
"देखिए न मेरी माँ और चाची अभी तक इस बात से सहमत नहीं हैं। दादाजी उधर रसोईघर की ओर ही गए हैं।"
"इसका मतलब ये निकाला कि कल अमरेली जाने की कोई निश्चितता नहीं है, क्यों? आज ही बटकों मेडी गया, मैंने उसके हाथ संदेश भेज दिया है कि कल की बात पक्की है?"
"मेरी माँ कहती है कि इस रिश्ते पर यहीं धूल डालो। हमें विराणी के सिवाय दूसरे भी बहुत सारे रिश्ते मिल जाएँगे। वो एक ही है क्या? जो वो जैसा कहें हम वैसा ही करते जाएँ।"
"तेरी माँ की तो मति तो मारी गई है ये कोई माली-तेली के घर का रिश्ता है क्या जो छोटी-मोटी मामूली सी बात पर रिश्ता तोड़ डालें? क्या मंजु हमें प्यारी नहीं हैं? अभी-अभी मैं मगना दर्जी को कहकर आ रहा हूँ कि गुरुवार से अपने ऑफ़िस में सिलाई मशीन रख दे, विराणी का एक पूरा कमरा मंजु के दहेज़ से भर जाए। हम चारों भाइयों में वो अकेली ही तो है, बेचारी!"
इतने में सवजी दादा हाँफते हुए ऑफ़िस में आए और सर की पगड़ी को खटिया पर पछाड़ते हुए बोले, "ओफ़्फ़ो! ये हमारे रीति-रिवाज़, व्यवहार, बाप रे बाप, हद हो गई..."
"क्या हुआ भैया?" रामजी बापा ने पूछा।
"माँ को रुलाना पड़ा, और क्या? मैंने तो माँ से साफ़-साफ़ कह दिया माँ, आप और ये चार लुगाइयाँ आप लोग सब यहाँ से चलते बनो। हमें आप लोगों की कोई ज़रूरत नहीं। फिर तो माँ ख़ूब रोई और कहा कि अगर ऐसा है तो कर लो अपनी मर्ज़ी की और फेंक दो लड़की को कुएँ में। कल सुबह ही मंजु को तैयार कर देते हैं। जादू ये व्यवहार मतलब ये बात ख़त्म, ठीक है?"
और तभी वाघजी दादा और मथुर मामा ट्रैक्टर लेकर आए। वाघजी दादा मंजु के पिता, पर उनको अपनी बेटी की चल रही बातों पर कोई रुचि नहीं है। वो तो बस इतना जानते हैं कि व्यवहार की बातों की पूरी ज़िम्मेदारी सवजी भाई की है। वो सब निभा लेंगे। मुझे तो बस खेती-बाड़ी का काम ही सँभालना है। पर सवजी बापा के बेटे माथुर मामा एक शौक़ीन इंसान हैं। उन्होंने ट्रेलर पर से छलाँग लगाते हुए पूछा, "क्यों भाँजे क्या कह रहे हैं, कामरू देश के सेनानी?"
जादव मामा बोले, "बड़ी मुश्किल से लाईन पर गाड़ी आई है, अब कल सब कुछ सही हो जाए तो शांति।"
वाघजी दादा चुपचाप आकार ऑफ़िस में बैठ गए। वाघजी दादा एक सच्चे भगत थे। सारा दिन राम नाम की माला जपते रहते हैं। भगत बनने से पहले तो वे तीनों भाइयों के जैसे संसारी थे। एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी चंचला से कहा, "कल से मैं और मेरा भगवान और कोई नहीं। समाज के नियमानुसार तुम मेरी पत्नी हो यह सही है पर कल से मेरा नया जीवन शुरू। कल से संसार के सारे काम बंद और वो भगत बन गए। नया जन्म। गाँव वाले कहते हैं कि भगत पर भक्ति की लाली चढ़ गई है। पर गाँव के कुछ लोग, कुछ और ही बातें करते हैं, भगत, भगत बनने से पहले गाँव के मज़दूरों से बीड़ी माँगकर पीते थे। इसलिए उनके दिमाग़ में मुफ़्त की बीड़ी का धुआँ भर गया है। भक्ति तो मात्र दिखावा है। भगत भगवान को छोड़कर और किसी विषय पर बात नहीं करते हैं। हाँ, कभी-कभी जब मैं आँगन में खेल रहा होता तब मुझे बच्चा समझकर बुलाते, "आओ भाँजे," मेरे नज़दीक जाने पर कहते, "आज तो मीरा बाई के एक भजन की रचना की है।" भगत कभी-कभार मीराबाई या नरसिंह मेहता के भजनों की रचना कर लेते थे। मुझे पूछते, "सुनाऊँ?"
मैं हामी भरता। तब लकड़ी के पुराने सन्दूक पर जंग लगे हुए पुराने पतरे पर अठन्नी से बजाकर भजन सुनाने लगते, फिर पूछते, "कुछ समझ में आया?"
मैं सर हिलाकर ना कहता, तो भी भगत ख़ुश हो जाते और हँसते हुए कहते, "कहाँ से समझ में आएगा, ये तो भक्ति है भक्ति, क्या है?" तब मैं कहता, "भक्ति"।
असली बात तो यह थी कि भगत अपना भजन सुनाने के बाद मुझे दस पैसे ख़र्च करने के लिए देते थे। इसलिए जब तक मुझे दस पैसे ख़र्च करने के लिए मिलते हैं तब तक इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं थी कि ये भक्ति है या पागलपन।
मथुर मामा ने कहा, "माँ को रुलाया ये ठीक नहीं किया।" बात सही थी। पूरा गाँव जकल माँ का आदर करता है। उनकी कही बात को मानता है। जब जकल माँ नज़दीक होती तब माँ बच्चों को मारते-पिटते वक़्त अपशब्द नहीं बोलती है। सवजी दादा भी वक़्त-बेवक़्त ज़रूरत पड़ने पर जकल माँ से सलाह मशवरा करते हैं। पर ये बात तो एकदम अनोखी है।
मंजु की मँगनी बचपन में मेडी के सरपंच रतिभाई विराणी के बेटे दिनेश से तय हो गई थी। दिनेश इकलौता बेटा है। उसकी माँ उसके बचपन में ही गुज़र गई थी। इतने साल तक सब ठीक-ठाक चल रहा था। पर जब शादी के दो-तीन महीने रह गए तब किसी ने दिनेश के कान में यह बात डाल दी कि मंजु की जाँघ पर सफ़ेद दाग़ है।
पहले भी गाँव में दो-एक के साथ ऐसा हुआ कि सुहागरात को उनके दाग़ों का पता चला और फिर दुल्हन को घर से निकाल दिया गया। भविष्य में ऐसा न हो इसलिए दिनेश निश्चिंत होना चाहता था। उसने कहला भेजा था कि या तो मैं वहाँ आकर निश्चिंत हो जाऊँ या आप मंजुला को यहाँ भेज दें।
गर्मी की दोपहर को मैं पढ़ाई पूरी करके सवजी दादा के घर खेलने के लिए जाता हूँ तब अँधेरे सीलनवाले घर में दोपहर का काम ख़त्म करके नहा-धोकर मंजु कंघी कर रही होती या दिनेश को चिट्ठी लिख रही होती तब मैं पहुँचता और मंजु से पूछता, "मंजु क्या कर रही है?"
संकोच से भर मंजु कह उठती, "देख न दिनेश को लेटर लिख रही हूँ।"
"इसमें मेरा नाम लिखा या नहीं?" आती-जाती चिट्ठियों में मेरा नाम हो ऐसी मेरी इच्छा रहती। नखरे दिखाकर मंजु कहती, "तेरी घरवाली जब तेरे को पत्र लिखेगी तब उसमें तेरा नाम लिखेगी।" पर मैं अपनी परेशानी दिखाता हुआ कहता कि मेरी तो घरवाली है ही नहीं।
फिर मंजु कहती, "एक दिन तेरी बहू आएगी न। अगर जल्दी है तो घर जाकर मटके में कंकड़ डाल।"
घर जाकर मैं पिताजी को पूछता, "मेरी बहू कब आएगी बाबा?"
बाबा ख़ुश होकर कहते, "तू कहे तो अभी लेकर आएँ। बोल एक चोटीवाली लानी है या दो चोटीवाली?"
मैं परेशान हो जाता, दादी को जाकर पूछता कि इसमें क्या फ़रक पड़ता है? फिर दादी समझाती एक चोटीवाली काम ज़्यादा करती है जबकि दो चोटीवाली अपना साज-शृंगार ख़त्म करेगी तब न घर का काम करेगी और मैं थोड़ी देर तक सोच-विचार में खोया रहता और फिर कहता, "मुझे तो एक चोटीवाली बहू ही चाहिए, काम न करे ऐसी घरवाली किस काम की?"
मंजु दो चोटी बनाती और घर के काम-काज में उतनी रुचि नहीं लेती। मंजु की माँ तो अक़्सर कहा करती, "निर्लज्ज, यहाँ बाप के घर में कुछ काम-काज सीख ले नहीं तो ससुराल जाकर तू तो बातें सुनेगी ही, हमें भी सुनाएगी।" पर भगत की पत्नी चंचल बा कहती, "मंजु तो अपने घर की लक्ष्मी है। इसके जन्म के बाद ही हमारे घर का सारा क़र्ज़ ख़त्म हुआ। हमें इससे काम थोड़े ही करवाना है।"
घर में इस बात का कोई विरोध नहीं करता था। इसका एक कारण यह भी था कि चंचल माँ को उनकी देवरानी-जेठानी जैसा संस्कारी नहीं माना जाता है। सवजी दादा कहते, "ये तो मज़दूरों की बेटी है। इसको दूसरी बातें कैसे समझ में आएँगी। दिन में चार-पाँच बार पेट जल जाए, इतनी उबलती हुई गरम चाय पिएगी और जानवरों के जैसे दिन भर काम करती रहेगी। ये तो हमारे पिताजी और इसके दादा बचपन के दोस्त थे इसलिए हमारे पिताजी ने दोस्त की बात रख ली।"
अर्थात चंचल माँ थोड़ी असंस्कारी है सही पर अगर बोलने मे आए तो किसी को नहीं छोड़ती है। मुँह से गंदी गाली भी निकल आती है। फिर जकल माँ उसको समझाती है कि "चंचल बहू यह अच्छा नहीं लगता।" इसलिए माँ की बात को मानती हुई चंचल माँ ने दिनेश की बात पर दो-चार गालियाँ सुनाईं और इस बात पर दिनेश और उसके बाप का गला दबा देने की इच्छा भी व्यक्त की थी और यह भी कहा था कि "मंजु मेरे बेटी है, आए तो कोई इसको परखने. . . थोबड़ा ही न तोड़ डालूँ उसका।"
इस पर घर की सभी लुगाइयाँ एक हो गईं। जकल माँ जैसी बुद्धिशाली स्त्री की अंतरात्मा भी थरथरा उठी।
सभी लुगाइयों का एक ही मत था कि भले ही ये रिश्ता टूट जाए पर मंजु की जाँच तो कभी नहीं करने देंगे।
सवजीबापा तुरंत मेडी गए। उन्होंने रतिभाई को कहा, "भले आदमी, हमारे इतने वर्षों के संबंध हैं और आपको, मैं झूठा मोती दूँगा भला?" पर रतिभाई का एक ही जवाब था, "दिनेश जब बहुत छोटा था तभी उसकी माँ चल बसी थी। उसका पालन-पोषण एक राजा के जैसे हुआ है, वह कहे दिन है तो दिन है अगर कहे रात है तो रात है।"
इस जवाब के साथ लौटने के बाद घर के सभी पुरुष इकट्ठे हुए और विचार-विमर्श करने बैठे कि क्या किया जाए? वाघजीबापा ने इसका एक ही समाधान निकाला कि दिनेश की बात मान ली जाए।
सवजी दादा ने कहा, "जादू, माँ को कहकर आओ कि कल सुबह मंजु को तैयार करके रखे। उसे कल सुबह अमरेली में डॉ. खोखर के दवाखाने भेजना है। कोई पूछे तो कहना कि मंजु की भाभी बीमार है, उसे डॉ. खोखर के दवाखाने में भर्ती किया है इसलिए उनका हालचाल पूछने जा रही है। और दिनेश को जो जाँच करानी है करा ले, बात ख़त्म करो यही पर, बस।"
जादव मामा जितनी तेज़ी से गए उतनी तेज़ी से ही लौट आए, "लुगाइयाँ तो कह रही है कि ये रिश्ता तोड़ दें।" इतना आश्चर्य तो सावजी बापा को दिनेश की बातों से भी हुआ था।
"लो कर लो बात, कह रहे हैं कि संबंध तोड़ दो। और भई, अगर दूसरा संबंध करने जाएँगे तो उनको क्या जवाब देंगे कि पहला संबंध क्यों टूटा?"
राघवजी दादा के चेहरे पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी जैसा तेज छा गया। उन्होंने कहा, "जादू बैलगाड़ी में बैठाकर अपनी चाची को उनके पिता के घर छोड़कर आ।"
वाघजी बापा ने कहा, "भई हम कल से सब काम-काज छोड़कर खाना पकाने बैठ जाएँ।"
जादव मामा ने कहा, "भाँजे! एक जगह पर आकर लुगाइयों की अक्कल काम करना बंद कर देती है। इसलिए उनसे ज़्यादा बात करेंगे तो हम ही मूर्ख कहलाएँगे। बड़ा होने पर इस बात का ध्यान रखना समझे?"
सवजी दादा बोले, "घाघरा टोली ने कहा अर्थात बात ख़त्म।"
फिर सब ठहाका लगाने लगे। इतना आनंद तो भवाई देखने जाएँ और गले में ढोल लटकाकर सवजी दादा जैसे प्रतिष्ठित लोगों से, पैसा दे दो माई बाप हम आपके भंगी है कहकर चतुराई से पैसा ऐंठ ले तो भी नहीं आता है। ये तो मैं पास में ही बैठा था इसलिए नहीं तो कोई बाहर से आनेवाला तो यही समझता कि सब इकट्ठे होकर जकल माँ का शोक माना रहे हैं।
दूसरे दिन मंजु को अमरेली भेजना तय हुआ। जादव मामा बैलगाड़ी लेकर जानेवाले थे और काम पूरा होने पर शाम को वापस आनेवाले थे। मैंने कहा कि अमरेली में जेसल-तोरल फ़िल्म लगी है। मुझे देखनी है। इसलिए मुझे भी साथ लेकर जाना तय हुआ। सबेरे से मंजु रो रही थी और कमरे में पालथी मारकर बैठ गई थी और उठने का नाम भी नहीं ले रही थी। सवजी दादा ग़ुस्से हो गए, "माँ अब और कितनी देर? जल्दी निबटाओ न इस बात को।"
फिर तो जकल माँ की आँखों में आँसू आ गए। उन्होने मंजु को बाँहें पकड़कर उठाते हुए बोला, "जा नभ्भाई (बिन भाई के) अब न कहने से क्या होने वाला है?" चारों ओर नीरवता फैली थी केवल मात्र बैल की साँसें और मंजु की सिसकियाँ ही गूँज रही थीं।
जैसे भगवान ऊपर ही चढ़कर बैठे हों इस तरह से ऊपर देखते हुए भगत ने कहा, "बहन मंजु तो नासमझ है इसलिए रो रही है, बाक़ी तो सभी को अपने किए का फल भोगना ही है। क्यों भगवान?" कहते हुए भगत ख़ुश हुए।
मंजु ने रोते हुए जादव मामा से कहा, "भाई अभी भी वक़्त है गाड़ी को लौटा ले न।"
एक बार तो जादव मामा को, ’मेरी भाभी की क़सम गाड़ी लौटा लो न’, ऐसा भी कहा फिर तो जादव मामा ने चिढ़कर कहा, "तेरी भाभी अगर मरे तो मैं दूसरी कर लूँगा पर ये गाड़ी तो अब लौटने वाली नहीं है।" और उसके बाद रास्ते भर मंजु ने जादव मामा को एक शब्द भी नहीं कहा।
जब सब लोग डॉ. खोखर के दवाखाने पर पहुँचे, तब वहाँ दिनेश की मोटर साइकल खड़ी थी। जादव मामा ने मुझसे कहा, "भाँजे मैं तंबाकू लेकर आता हूँ, तू यहीं पर रहना।" तभी एक रूम में से दिनेश निकला और मंजु को एक कमरा दिखाकर बोला, "यहाँ पर आ जा।"
मंजु ने मुझे दोनों हाथों से जकड़ रखा था, "तू मेरे साथ ही रहना।"
दिनेश ने कहा, "इसका कोई काम नहीं है।"
वह मंजु को कमरे मे ले गया और एक-आध मिनट के बाद सीटी बजाता हुआ बाहर आया और अपना बुलेट लेकर चलता बना। पीछे से मंजु बाहर आई। मैंने पूछा, "क्या हुआ मंजु?"
उसने जवाब दिया, "इससे तो मर जाना बेहतर है।"
मैं बार-बार पूछता गया पर उसने कोई जवाब नहीं दिया बस रोती रही।
"ठीक है, कोई बात नहीं जल्दी चलो वरना फ़िल्म शुरू हो जाएगी।"
लौटते समय रास्ता भर मंजु रोती ही रही। घर पहुँचने पर सभी ने पूछा क्या हुआ? जादवमामा ने जवाब दिया मेरे लौटने से पहले ही दिनेश निकाल चुका था और मंजु तो तब से ही रो रही है।
दूसरे दिन जादव मामा नारियल और पेड़े का डिब्बा लेकर आए और ख़बर दी कि रति भाई ने शादी की तारीख़ पक्की करने को कहा है। फिर बोले, "चलो ये नारियल मंजु के माथे पर फोड़ते हैं। यों तो ये सभी लुगाइयों के माथे पर फोड़ना चाहिए। मूर्ख सब मिलकर विलाप कर रही थीं।"
बाद में वाघजी बापा और रामजी दादा सब एक के बाद एक आकर लुगाइयों पर व्यंग्य कसकर गए।
"ज़रा भी बुद्धि नहीं है, देखा! आपके कहने पर चलते तो पूरे समाज में फजीता न होता?"
अंत में सवजी दादा आए और टोककर गए कि "कुछ समस्या आकर खड़ी होती है तो अक्कल से काम लेना चाहिए सोचे-समझे बग़ैर गालियाँ देने नहीं बैठ जाना चाहिए। समझ में आया? पर आप लोगों के सामने समझदारी की बात करने का क्या फ़ायदा और नहीं करें तो भी क्या? निरे पत्थर पर पानी डालना ही है। मूर्ख लुगाइयाँ।"
जकल माँ कोने में बैठकर चुपचाप माला फेर रही थी। वह कुछ नहीं बोली पर जैसे ही सवजी दादा ऑफ़िस के लिए मुड़े और कुछ ही क़दम चले होंगे कि चंचल माँ रोटी बनाती हुई धधकते चूल्हे में से जलती हुई लकड़ी को लेकर खड़ी हो गई और चीख़ पड़ी, "तुम्हारी माँ की क़सम, अब आए हो सयाने बनकर, तुम्हारे कूल्हों पर तो ये अंगारे दाग देने चाहिएँ. . . मेरी रतन जैसी बेटी. . ." कहकर चंचल मा ने ज़ोर से बगैर लीपी, पपड़ी वाली दीवार पर जलती लकड़ी ठोकी, उसके कोयले चारों ओर उड़े, फिर चंचल माँ नीचे बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। एक सिसकी लेकर दूसरी के लिए जब उन्होंने साँस अंदर लिया तब तक तवे की रोटी जलकर कोयला बन चुकी थी।
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