अपने पड़ोसी के इस दम पर कि उनके होते हुए उनका विभाग मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा, मीटर डेड होने के बाद अब जितनी चाहे बिजली फूँक डियर! जब तक वे यहाँ हैं, बिजली का बिल औसत से भी कम न दिलवाया तो उनका नाम भी....
आदर्श पड़ोसी होने के नाते वे बेचारे मेरा इससे अधिक और फ़ायदा अपने विभाग को नुक़सान पहुँचाकर कर भी क्या सकते थे? अगर आपका कोई जिगरी संबंधित विभाग में हो तो उसका कम से कम एक यह फ़ायदा तो होता है कि उसके दम पर आपको ग़लत करने से डरने की चिंता क़तई नहीं होती। वह खुद सँभाल लेता है। आप तब तक उसके दम पर उसके विभाग से संबंधित कुछ भी ग़लत पूरे दम-खम से करने के अधिकारी बने रहते हैं, जब तक आप एक दूसरे के दोस्त रहते हैं।
...और मैं फ़ेसबुक पर मरे मरे भी लाइव रहने वाला बिजली के डेड मीटर के साथ सीना चौड़ा कर चलता रहा, मुँबई के अस्पताल की तरह।
पर लॉकडाउन में एकाएक पता नहीं कहाँ से पचास साल के अबोध को आत्मबोध हुआ कि जब देश नहीं चल रहा तो कम से कम मीटर तो चलने वाला लगवा ले पगले! ताकि तुझे भी लगे कि कुछ तो चल रहा है।
सो, ज्यों ही सरकार ने ऑफ़िस में फ़िफ़्टी परसेंट स्टॉफ़ के साथ बिजली विभाग भी खोला तो मैं पड़ोसी को बिन बताए जा पहुँचा पहली बार देश का आदर्श नागरिक हो मीटर बाबू के पास। ज़िंदगी में जब आदमी पहली बार व्यावहारिक आदर्शवादी बनता है तो उस पर दूसरों को हँसी आए या न, पर उसे अपने पर बहुत हँसी आती है जो वह ज़रा भी आदमी हो तो। तब उसे लगता है कि जैसे वह आदर्शवादी बनकर अक्षम्य पाप कर रहा हो कोई। और इस घोर अपराध के लिए भगवान भी उसे शायद ही माफ़ करें।
मीटर बाबू ही नई लुक में क्या! बिजली विभाग के मुस्तैद सभी नई लुक में। सिर से पाँव तक पीपीई किट पहने। मुँह पर फ़ेस शील्ड लगाए। टेबल पर फ़ाइलों के बदले क़िस्म क़िस्म के सैनिटाइज़र की शीशियाँ। चौकस इतने कि क्या मजाल बड़े से बड़े उन्हें पकड़ने वाले उनका बाल भी बाँका कर सकें।
मीटर बाबू तो नई लुक में बिल्कुल भी पहचाने की नहीं जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें पहचाना। नई लुक में जो वे न भी होते तो भी वे मुझे नहीं पहचानते। उनको हर हाल में मुझे ही पहचानना था। सरकारी ऑफ़िसों में जिसका काम फँसा हो, उसे जेब से लेकर मेज़ तक हरेक का मुँह ताकते अपने को पहचानवाने की मशक़्क़त करनी पड़ती है। जब दोनों में पहचान होती है, तभी काम सिरे चढ़ता है। अकेले काम करवाने वाले के काम करने वाले को जानने से कुछ नहीं होता।
वैसे मीटर बाबू की नज़रों में मेरी इमेज सही नहीं थी। इसलिए वे मुझे पहचानते हुए भी पहचानते नहीं थे। हमारे मिलने के पिछले कई कड़वे अनुभवों से उन्हें पता चल गया था कि रिश्वत देने के मामले में मैं बहुत कमीना आदमी हूँ।
मीटर बाबू ने कोरोना की वज़ह से अतिरिक्त सेफ़्टी ली हुई थी। सिर से पाँव तक पीपीई किट पहने। चेहरे पर फ़ेस शील्ड लगाए। कपड़े तो वे ख़ैर कोरोना के आने के पहले से ही नहीं पहनते थे। कहते थे कि कुर्सी पर बैठै-बैठे कई बार उन्होंने ऐसा फील किया था कि कपड़े जैसे उनकी आत्मा को खरोंचते हों। टेबल पर क़िस्म क़िस्म का सैनिटाइज़र रखा था। असली था या नक़ली, ये तो वे जाने या वे जिन्होंने सरकारी सप्लाई का आर्डर दिया था।
‘राम! राम! मीटर बाबू! क्या कमाल के लग रहे हो? इस लुक में तो आपको यमराज भी न पहचान पाएँ जो आपके गले में आई कार्ड न पड़ा हो तो,’ मैंने काम करवाने का बेहूदा अभिनय शुरू किया तो वे मेरी ओर टेढ़ी नज़र देखते बोले, ’क्या है? कौन हो? महामारी के बीच में भी घर में बीवी का हाथ नहीं बँटा सकते क्या? मुझे मरवाने तो नहीं आए हो?’
‘आपको मरवाएँ आपके दोस्त! मैं तो असल में.…’
‘असल में क्या? दूर से बात करो। गए वे ज़माने जब मीटर बाबू के सिर पर चढ़ बात की जाती थी। छह फुट दूर से,’ कहते वे उठे, उन्होंने पीपीई किट की जेब से इंच टेप निकाल एक तरफ से मुझसे पकड़वाई तो दूसरी ओर से ख़ुद पकड़ी। जहाँ छह फीट हुआ वहाँ एक फ़ाइल रख दी। पता नहीं किस अभागे की होगी। फिर हिदायत देते बोले, ‘इससे पीछे से ही बात करना। कहो, अब क्या काम है?’
‘डेड मीटर लाइव करना था। ये रही अर्जी।’
‘पहले भी कितनी बार कहा कि मुफ़्त में मीटर तो क्या मीटर के तार भी नहीं बदले जाते। पर एक तुम हो कि... यार! मरने के बाद साथ ले जाओगे क्या? हमें खिला दोगे तो आगे का रास्ता ही साफ़ होगा। उसमें काँटे नहीं पड़ेंगे। खिलाने से मेल-जोल ही बढ़ता है, दुश्मनी नहीं। पता है डेड मीटर को लाइव करना कितना कठिन काम होता है? डॉक्टरों का डेड घोषित किया आदमी लाइव हो जाता है पर डेड मीटर... अपने यहाँ तो लाइव मीटर भी डेड ही होते हैं...’ कह वे दूसरी कंपनी के सैनिटाइज़र से हाथ साफ़ करने का अभिनय करने लगे तो मैंने कहा, ’जानता हूँ मीटर बाबू! पर…’
‘पर क्या?’
’पूरा विश्व मंदी की चपेट में हैं। ऐसे में... मानवीयता के आधार पर…’
‘देखो! मीटर बाबू सब कुछ हैं, पर होमन क़तई नहीं हैं जो उनसे होमनिटि के ग्राउंड पर बात की जाए। कभी भी फ्री में कुछ भी होने की उम्मीद कम से कम मुझसे तो न करो,’ कह वे मेरा मुँह ताकने लगे तो मैं उनका, ‘तो…’
‘पंद्रह सौ लगेंगे फ़ाइनल। दो महीने का भूखा-प्यासा डरता-मरता कुर्सी पर बैठा हूँ। घर से ऑफ़िस आने तक पता है कितना रिस्क है? जानते हो, निगेटिविटी को कहाँ-कहाँ छुपा बचाना पड़ रहा है? ऐसे में रिस्क का रिवार्ड न मिले तो लानत है ऐसी नौकरी पर,’ वे तीसरी कंपनी के सैनिटाइज़र से हाथ साफ़ करते बोले।
‘ज़्यादा नहीं हो गए मीटर बाबू ये...’
’तो किसी और से डेड मीटर लाइव करवा लो।’
‘अच्छा तो मीटर बाबू! ये बताना कि ये पीपीई किट बचाने की है या दिखाने की?’ आदमी जब अपनी बोली लगा दे तो उसके बाद वह सब मज़े से सुन लेता है कानों में पिघला शीशा डाल।
‘क्या मतलब तुम्हारा?’ कह वे मुस्कुराए।
‘मैंने तो यों ही पूछ लिया था बस! क्या है न कि सरकारी ख़रीद कमबख़्त होती ही ऐसी है कि कितने ही ईमानदार होकर अमृत का भी आर्डर दो, कमबख़्त बीच में मिशन ए कमीशन के चलते घटिया क्वालिटि कहीं से आ ही जाती है।’
‘देखो, कोरोनाकाल में उपजे आध्यात्मिक महापुरुष के साथ ज्यादा मजाक न करो। माना, तुम इतने दिनों से घर में कैद रहे हो। तुम ही क्या! भगवान भी तो कैद ही थे। इसलिए कुछ चुप हूँ। तुम्हारे लिए बीवी के होते तुम्हारी पड़ोसन होगी पूजा तो होगी, पर मेरे लिए तो बस, रिश्वत ही पूजा है। ब्रह्मांड का हर वायरस क्षण भंगुर है, पर रिश्वत का वायरस अजर अमर है। यह वह वायरस है जिसे ने अग्नि जला सकती है, न वायु उड़ा सकती है, न जल बहा सकाता है, न मृत्यु डरा सकती है। कोरोना मर जाएगा, हम भी एक न एक दिन गर्व से रिश्वत लेते-लेते मोक्ष पा जाएँगे, पर यह वायरस सदा रहेगा। ईश्वर शाश्वत हो या न, आत्मा शाश्वत हो या न, पर रिश्वत का वायरस शाश्वत है! अब जल्दी बात फ़ाइनल करो नहीं तो हम चले अपने घर!’
‘तो कितने दूँ? पूरे पंद्रह सौ ही?’
‘माहवारी सेस और मेरे आने जाने के किराए समेत केवल पंद्रह सौ,’ यह दीगर बात है कि उन्हें हर साल हिंदी दिवस पर हिंदी में अपने ग्राहकों के साथ बोलने, हिंदी में सरकारी काम काज करने के लिए राजभाषा सम्मान मिलता रहा है।
‘ये महामारी सेस क्या है मीटर बाबू? जनता तो महामारी से वैसे ही मरी जा रही है और ऊपर से बची जनता से अब ये...’
‘सरकार से पूछो जिसने माहवारी सेस लगाया है,’ मैंने ज्यों ही जेब में ख़ारिश होने के चलते जेब की ख़ारिश करने को जेब की ओर हाथ बढ़ाया कि मीटर बाबू ने टेबल पर रखा सैनिटाइज़र अपने हाथों में मला और मेरे सामने अपने सारे हाथ फैला दिए। अब मरता क्या न करता। सवाल डेड मीटर की जगह लाइव मीटर का था सो चुपचाप जेब से आठ सौ निकाले और उनके हाथ पर रखने को हुआ तो वे बोले, ’ठहरो! पागल हो क्या?’
‘हाँ तो! अब क्या मीटर बाबू?’ मैं चौंका। इधर-उधर देखा। कोई हम दोनों को देखने के बाद भी नहीं देख रहा था।
‘लो, सैनिटाइज़र लो। ये किस लिए है? मुझे समर्पित करने से पहले इन्हें पूरा सैनिटाइज़ करो। इनका इंफेक्शन खत्म करो,’ मैंने उनके टेबल पर रखा सैनिटाइज़र उठाया, पहले अपने हाथों में लगाया फिर अपनी जेब से निकाले पाँच पाँच सौ के नोटों को। जब उन्हें विश्वास हो गया कि सैनिटाइज़र से नोट हर क़िस्म के संक्रमण से संक्रमण मुक्त हो गए हैं तो वे उन्हें मुस्कुराते सादर ग्रहण करते बोले, ’ये हुई न बात! अब काम डन डना डन डन! याद करके परसों आ जाना डियर!’
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