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प्रेम, बून्द का धरती का

जब बारिश की बूंदें धरा पर गिरती है
या यूं कहें लिपटती है
हर बूंद गिरते गिरते ख़ुद को समेटते कुछ कहती जाती है
आपबीती बयाँ करती जाती है
जब वो तालाब ,सागर या कोई नदी का पानी थी
जब वो सूर्य की मार से अंदर तक टूटी थी
जिससे वो भाँप बनी थी
जब वो अपना मूल रूप त्याग
एक नई राह चली थी
और फिर  वो चली थी आसमां में बादलों के संग
उस सारे सफ़र का बयाँ
वो सब दुख दर्द समेटे रखती है
वापस धरा से मिलने तक
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