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मकां का गुरुर...

इतराता फिरता है मकां कितना गुरुर है खुद पर

कभी पलट कर पूछा नहीं किसी पत्थर का हाल


न कभी नींव से पूछा कैसे संभाला है भार इतना

न दीवारों से कभी पूछा कैसे हुई इतनी बदहाल


शहतीर जो मकां को कांधे पे उठा रखे है हर दम

कभी नजर झुका कर पूछा नहीं उससे भी सवाल


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