
कहां हैं वो जौहरी जो
ढूंढते थे हीरा पसीने में
ये वाले तो मशगूल हैं
कांच को हीरा जताने में
न सब्र है न फिक्र है,
न अब है वो पारखी नज़र
कांच के टुकड़े लगे हैं
खुद की बोली लगाने में
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कहां हैं वो जौहरी जो
ढूंढते थे हीरा पसीने में
ये वाले तो मशगूल हैं
कांच को हीरा जताने में
न सब्र है न फिक्र है,
न अब है वो पारखी नज़र
कांच के टुकड़े लगे हैं
खुद की बोली लगाने में