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सज रही कुन्तल ( स्वामी विवेकानंद की स्मृति में )


जग उठी है पूर्व की किरणें

गिरी धो रही अँचल काया

क्षितिज कोने से देखो वसन्त

करता पदवन्दन तरुवर नरेन्द्र का

राह के कण्टकाकीर्ण छिप रही

पन्थ – पन्थ भी पन्थी के हो रहें साथ

नीली अंबर सज रही कुन्तल घन के

स्वामी यती बन आएँ भव निलय में

स्तुति स्वर लिप्त कहाँ , तम में ?

यह दिवस क्या अथ है या इति ?

चाह मेरी क्यों करुण छाँव में

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