
जग उठी है पूर्व की किरणें
गिरी धो रही अँचल काया
क्षितिज कोने से देखो वसन्त
करता पदवन्दन तरुवर नरेन्द्र का
राह के कण्टकाकीर्ण छिप रही
पन्थ – पन्थ भी पन्थी के हो रहें साथ
नीली अंबर सज रही कुन्तल घन के
स्वामी यती बन आएँ भव निलय में
स्तुति स्वर लिप्त कहाँ , तम में ?
यह दिवस क्या अथ है या इति ?
चाह मेरी क्यों करुण छाँव में
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