इस मिट्टी में वों सुगन्ध कहाँ अब ?
जब राम कृष्ण बुद्ध की बेला थी
कहते वों देश काल के स्वयं प्राण
भारत माँ बिखर गई जैसी गंगा – सी धार
तृण तरुवर से कुसुम कली अस्पृश्य हुए
लौट आया नव्य गरल व्याल उपदंश के
मनु माना सुवर्ण हम , यथार्थ वों मूक , भृत्य के दीवाने !
आह भरी दीन लगे देखने , कैसे प्रभु भी बिक गए ?
खग की चाह क्यों नहीं मिलती उस रश्मि क्षितिज में ?
इस महाशून्य के किस कण में वों उर्ध्वंग तस्वीर
यह वसन भी नहीं किस पेट को बांध
Read More! Earn More! Learn More!