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गुमनाम पतझड़ के


मै गुमनाम बन चला इस पतझड़ के

किस करीनों से कहूँ क्या गुमशुम व्यथाएँ ?

तस्वीर भी टूटी किस दर्रा में फँसी जा

खोजूँ , विकलता के किस ओर गयी उमड़


टेढ़ी – मेढ़ी लकीर भी हक नहीं लगाती चलूँ किस ओर ?

आँशू भी टुबूक – टुबूक गिर रही नयनों से धार

यह धार बह चली सब , अब ये भी सुकून नहीं

सुनसान राहों में मैं अकेला , कोई पूछें नहीं , बस अकेला


मत रोक मेरे तरंगिनि हृदय को , जानें दो , जानें दो…..

किन्तु फिर भी छोड़ चलें वों किस गति , वक्त भी गई बीत ?

वक्त बह चली धूल के गर्दिशों में नहीं मेरे कोई सहारा

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