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बहुरि अकेला भव में

नव्य शैशव हुए कितने वीरान

प्लव – प्लव – प्लावित माया

अब इस पुलिन की क्या कसूर?

जग – जग हुँकार अब भी त्राण


कौन सुने इन दुर्दिन की व्यथाएँ?

कहर उठी उर में चुभती भी कोमल हृदय में

लहर दे मारती स्वप्न में विकलता भी क्रदन करती

बहुरि अकेला भव में, दे अन्तिम कौन सन्देश?

आशाएँ टूट पड़ी जैसे पतझड़ के तृण यहाँ


दे बोल उठते सब कैसे हो तू प्रिय/प्रियवर?

मै सहचर तेरा सदा अगर एक हाँक दे दे मूझे

सच बताऊँ एक बार तू खंगाल दे उस उर को

बात भी बदल जाएगी जो दिए वचन मुख को


मुख – मुख में छिपा अग्नि के ज्वाल अंगार

जो दे विष उगल, हो जाएगा जग हाहाकार

दर्प हनन शेष नहीं, दे रही किस करुण कहा

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