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तुम्हारी मुस्कान

कहो तो दिन
कहो तो रात
यूं बैठे हम खिड़की पर
ताक लगा कर

आग जला कर 
इस ठिठुरती ठंड में
ख्वाब सजा कर 
दिन शाम रात दिन

ख्वाब बिना नींद
उड़े हम कहीं 
कुद खिड़की के पार

पर नए लगे 
बस हुए कुछ वार 
बहकते हुए पीछे 
तुम्हारी महक के
टाप आए 
नदिया समंदर पहाड़ 

देखा शहर को 
किसी अलग ऊंचाई
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