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मन से संवाद!

एक दिन निराश मन मेरा,होने लगा हताश फ़िर से,

भर कर पीड़ा से करने लगा संवाद मुझसे,

कब तक जोर लगाएगा गा तू, 

मुझे पता है अंत मे हार ही जाएगा तू ,

तु तुच्छ मानव है, कोई देव नहीं,

रोग जरा ही , मानव का सार है, कुछ और नहीं,

जब तक जियेगा मृत्यु का भय ही तुझे सताएगा,

एक दिन दौड़ते दौड़ते थक और हार जाएगा,

मुखर हो कर मैंने निराश मन को जवाब दिया, 

उठ हे मन तुझे आज मानव दर्शन कराता हू, 

हुआ जो सफर सुरू अंधेरी गुफाओं से,

भोजन की तलाश और, मार्मिक घटनाओं से 

देख अन्तरिक्ष मे भी तुझे बस्तियां दिखाता हू, 

देख इस अंत हीन हिमालय को, 

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