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तेजपाल सिंह ‘तेज’ :: उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया (शब्द चित्र )

साहित्य : शब्द चित्र


उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया


-तेजपाल सिंह ‘तेज’



          शायद मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ता था। प्राथमिक शिक्षा-काल में मेरा पढ़ने-लिखने से कम ही सरोकार था। बस! खेलना कृदना, साथियों के साथ मार-पीट करना, प्रत्येक पर अपनी बातमनवाना, जाने क्या-क्या मेरी शरारतों में शामिल था। पूरा गांव मुझ पर नजर रखता था। सबका एक ही मत था- ये लड़का न पुलिस भर्ती हो सकेगा और न कुछ और ही बन सकेगा। पांच फुटा ये छोरा बदमाश या डाकू भी तो नहीं बन सकता । इसकी ये सब बचपनी शरारतें हैं। अभी नादान है ये। समय शायद रास्ते पर ले आए। यदि इसने ये तमाम हरकतें छोड़ दीं तो कुछ आशा की जा सकती है। पर ऐसा लगता नहीं है। मैं यह सब कुछ सुनता... और हंसी में उड़ा देता। आज जब,मैं ये सत्य लिख रहा हूँ, मैरे वो अपने गांव वाले शेष नहीं रहे हैं। सबके-सब चल बसे हैं। एक दिन सबका ही ये हस्र होना तय है.... मेरा भी।


          सपने आना एक सत्य है। सब सपने देखते भी हैं और बुनते भी हैं।.... बुनने भी चाहिएं। खुली आँखो सपने देखना तो अपने वश की बात होती है किंतु नींद में सपनों का आना...... अपने वश की बात नहीं होती। मैं दोनों ही अवस्थाओं से गुजरा हूँ...... नींद में भी सपने देखे भी हैं..... और पाले भी हैं। ....अक्सर ही ऐसा होता था कि थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके जैसे ही नींद में घिरता... यानी सोता तो छोटे-बड़े सपनों का आना एक सहज अवस्था होती थी।


मैं घर के अगले भाग में बनी दुकड़िया में अक्सर अकेला ही सोता था। भाई-भाभी और उनके बच्चे अन्दर वाले कोठों (कमरों) में सोते थे। अब मैं जैसे-तैसे बारहवीं कक्षा में आ गया था। रात को देर तक पढ़ना मेरा नित्य कर्म बन गया था। कई बार पढ़ते-पढ़ते आँखों में नींद भर आती तो दीया बन्द करता और सो जाता...। कुछ घरों में दीए की जगह लालटेन ने ले ली थी किंतु मेरे पास अभी भी दीया ही था। एक दिन की बात है कि मैं पढ़ते-पढ़ते थक-हारकर दुकड़िया का दरवाजा बन्द किए बगैर ही सो गया..... दीया भी जलता ही रह गया। सोया ही थी कि मैं स्वप्न की चपेट में आ गया। स्वप्न में एक धवल-वस्त्रा रूपसी..... उम्र में मुझसे काफी बड़ी.. मेरे सिरहाने ऐसे आकर खड़ी हो गई कि जैसे मेरी और उसकी बहुत पुरानी दोस्ती हो। (......हालाँकि बारहवीं कक्षा और...लड़की से दोस्ती उस गए समय में कहाँ संभव था।) उसका बर्ताव प्रौढ़ अवस्था वाला ही लग रहा था...सिरहाने से झुक कर उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया.... और कहा, “अब तुझे मेरे साथ चलना होगा।” इतना कहकर वो अचानक गायब हो गई ... मेरी नींद भी टूट गई। खाट में पड़ा – पड़ा जाने क्या-क्या सोचता रहा.... कभी-कभी इधर-उधर ताक-झाँक करके जैसे उसकी तलाश करता... फिर न जाने कब नींद आ गई और मैं सूरज के उगने पर ही उठा।


ये ग्यारह जनवरी 1968 का दिन था। जब सवेरे उठा तो पाया कि मुझे बड़े जोरों का बुखार चढ़ा हुआ था..... शायद सपने से घबरा कर। अचानक भाभी दुकड़िया में आई और बोली आज उठना नहीं क्या...। मैंने भाभी की ओर मुँह घुमाते हुए उसे देखा...वो मेरा चढ़ा हुआ चेहरा देखकर सकते में आ गई.... उसने मेरे माथे पर हाथ रखा और सन्न रह गई।... तेज गर्म माथा देखकर..... घबरा गई और ...भरी हुई आँखें लेकर मुझे डांटने लगी, “ तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं ..... मेरी तबियत खराब है।” वो मुझे डांटे ही जा रही थी...... और मैं मूक बना उसका चेहरा देखकर खुद घबरा रहा था।.... कहता भी तो क्या कहता.......मुझे खुद ही कुछ पता नहीं था।..... भाभी ने मुझे हाथ पकड़कर बिठाया......और मेरे पास ही बैठकर जाने क्या-क्या विलाप किए जा रही थी। दरअसल भाभी मेरी कुछ ज्यादा ही चिंता किया करती थी। वो मेरी भाभी कम और माँ ज्यादा थी। भाभी के मुझसे पांच-छह महीने बड़ी एक लड़की थी। मुझे बताया गया कि जब मैं बहुत छोटा था तो माँ की एवज भाभी ही मुझे स्तनपान करा दिया करती थी। इस पर किसी को कोई एतराज भी नहीं होता था। मेरे स्कूल आने-जाने का ख़याल न तो भाई को और न ही माँ को रहता था, यह काम भी भाभी का ही होता था। भाभी के कोई लड़का नहीं था। वह मुझे ही बेटे के जैसा प्यार देती थी। माँ जब भैंस का दूध निकालती थी तो मुझे रोजाना भैंस के पास बिठाकर ताजा निकाला गया कच्चा दूध पिलाया करती थी।


मेरे हक में जो बात रही वो थी कि भाभी ने ये सारी कहानी बड़े भाई को पूरा दिन गुजर जाने के बाद दी। वैसे वो उन्हें समय से बता भी देती तो उन पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। उन्हें ताश खेलने और नेतागीरी करने के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं था।


खैर! देखते-देखते भाभी ने तमान टोने-टोटके कर डाले...मेरी अवस्था बिगड़ती जा रही थी।.... जैसे मूर्छित अवस्था में था....प्रशिक्षित चिकित्सक तो गाँवों में उस समय होते ही नहीं थे...टोने-टोटके और बाबाओं की दुआओं के बल पर ही गाँव जिन्दा रहा करते थे। सो भाभी ने भी तमाम देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी के भेलियाँ (प्रतीक) बनाकर मेरी खाट के सिरहाने पर तैनात कर दीं...कुछ नीम की पत्ते वाली टेहनियाँ भी मेरे सिरहाने रखदीं। यह सब कुछ मैंने होश आने पर देखा...किंतु पता नहीं क्यों ये टोने-टोटके मुझे जन्म से ही पसंद नहीं आए?.....स्वत: ही मेरी मानसिकता बनी हुई थी...किसी सोच के तहत नहीं। ऐसे ही एक-दो दिन निकल गए.... मैं अक्सर देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी की उन भेलियों को ही देखता रहता... भाभी कुछ पूछती तो इधर-उधर गर्दन हिला देता...... और “कुछ नहीं” कहकर भाभी से पीछा छुडाता। एक दिन मौका पाकर मैंने सभी देवी-देवताओं की भेलियाँ बारी-बारी से दुकड़िया के आगे वाली गंदी नाली में फेंक दीं।


जब भाभी को मेरी इस हरकत का पता चला तो वो आग-बबूला हो गई। जाने क्या-क्या न कहा उसने मुझे। कहती भी क्यों न......मैं जैसे उसका बड़ा बेटा था। मुझे बताया गया था कि जब मैं नवजात शिशु था तो वो मुझे अपने स्तनों से दूध पिलाया करती थी। यहाँ गौरतलब है कि भाभी की बड़ी बेटी लगभग मुझसे केवल छ: माह बड़ी थी। सो इस दूध स्तनपान कराने की बात पर भरोसा किया जा सकता है। .....वो मुझे खोना नहीं चाहती थी..... खैर! दो-तीन माह की बीमारी के बाद मैं ठीक हो गया। मौत के मुँह से तो निकल आया किं

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