
शब्द – चित्र
सपना कुछ यूं था
-तेजपाल सिंह ‘तेज ’
उस समय की बात है, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। मईका महीना था। भोर के लगभग तीन बजे होंगे। मेरा एक करीबी मित्र शर्मा अचानक मेरे घर आ पहुंचा। बिल्कुल हताश और निराश...सांसे उखड़ी- उखड़ी, आँखें फटीं-फटीं.. माथे पर पसीना ही पसीना, बाल बिखरे-बिखरे,. होश नाम की कोई चीज तो थी ही नहीं। अंदर आते ही, वो चुपचाप सोफे पर पसर गया। आखिर मैंने ही पूछा, "अमां यार! हुआक्या है? कुछ बोलते क्यों नहीं?” वह फिर भी नहीं बोला। इस पर मैंने चुटकी ली, "क्या भाभी ने घर से बाहर कर दिया है? कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर की होगी तूने ।" वह फिर भी कुछ नहीं बोला। मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा, "यदि कुछ कहना-सुनना ही नहीं था तो मेरी नींदक्यों खराब की?” इस पर वो बोल ही उठा। कहा, "बात कुछ ऐसी है जो न मेरी है, न तेरी भाभी की। नितान्त असत्य है। पर पता नहीं क्यों सत्य-सी लगती है। समझ नहीं आता क्या करूं । अब पत्नी भी तो मेरे साथ नहीं देती है। सपने की कहानी को सत्य मान बैठी है। फाड़-खाने को आती है। तू तो जानता है कि मैं उसे कितना प्यार करता हूं। ऐसा भी नहीं कि मैं यहां-वहां मुंह मारता फिरता हूं।” शर्मा जी बोले चले जा रहे थे। पर मैं कुछ नहीं समझ पाया। आखिर मैं फिर पूछ बैठा, "यार कुछ हुआ भी है या यूं ही गाजरों में गुठली मिलाता रहेगा? कुछ बतानाहै तो बता वर्ना चलता बन। न सोया न सोने दिया। साला! चला आया मुंह बनाकर।" इतना सुन शर्मा जी जैसे बर्फ सरीखे पिघल गए। आंखों में पानी भर आया। यह देख मैं स्वयं भी पसीज गया। रसोई में गया, चाय बनाई और मिल बैठकर चाय पी। शर्मा जी कुछ हल्के हुए तो बोले, "तू कहानी जानना चाहता है तो सुन, आज जब मै घर आया तो देखा कि बिजली गुल थी। गर्मी तो शुरू हो ही गई है। मेरा कमरा भी छोटा है। आंगन तो है ही नहीं। बच्चों की परेशानी मुझसे देखी नहीं गई। पत्नी से परामर्श करने के बाद एक बड़ा सा बेड़ेदार बड़ा दसा मकान किराये पर ले लिया। आज पहला ही दिन था। मैं खाना खाकर ऐसा सोया कि सपनों में खो गया। सपना इतना भयंकर था कि मैं झेल नहीं पाया। पत्नी को भी बताने का साहस नहीं जुटा पाया।
सपना कुछ यूं था- सूरज अपने यौवन पर था। अच्छा-खासा मौसम था। न हवा थी न धूल। मेरा मन हुआ कि दाढ़ी ही बनवा लूं। घर के पास ही खाली पड़े प्लाट के सामने वाली गली में एक नाई मेज लगाए बैठा था। दीवार पर शीशा टंगा था। उसके पास कई बूढ़े और जवान खड़े थे, अपनी-अपनी बारी के इन्तजार में खड़े थे किंतु अजीब से वार्तालाप में लिप्त थे। एक कह रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री आज के जिन्ना हैं। चतुर-चालाक हैं। कई-कई मुखौटे हैं उनके पास। पार्टी का अलग, धर्म का अलग, सहयोगी दलों का अलग और न जाने कितने ही और। दूसरा बोला, "अरे! सच तो ये है कि हमारे प्रधानमंत्री पढ़े-लिखे हैं, सो शब्दों पर सवारी करते हैं। जैसे चाहें शब्दों को घुमा-फिरा देते हैं। अब देखो न आज़ादी की लड़ाई लड़ने का गुनाह तक उन्होंने किया नहीं, पर आज स्वतन्त्र भारत के प्रधानमंत्री हैं।" तीसरा बोला, "अरे! मूर्ख तो जनता है। कुछ समझती ही नहीं। नारों के बल पर ही जिन्दा हो उठती है। हमारे प्रधानमंत्री जमाने की नस को जान गए हैं। जनता की परवाह नहीं करते। नेताओं से ताल-मेल कर सत्ता पर काबिज हैं। जो नाराज होता है उसे ही मंत्री बना देते हैं।" मेरा मन था कि मैं भी कुछ कहूं। पर अचानक तेज हवा चलने लगी। हवा आंधी में बदल गई। दोमट मिट्टी मरुस्थल में बदल गई। चारों तरफ धूल ही धूल छा गई। कई घरों की चादरों वाली छतें तक उड़ गईं।
मैं जैसे-तैसे घर आया। पर ये क्या? अब न आंधी थी न तूफान, न धूल न धक्कड़। सब कुछ सामान्य था। यह देख मैं चकित हो रह गया। मन में राहत भरी सांस ली और सोफे पर पसर गया। इस बीच मिसेज भाटिया आ धमकीं। इतनी सजी-धजी कि मैं देखते रह गया। पचास वर्ष की जवान। गठा हुआ बदन, बिन्दासशराबी हंसी। चेहरा जैसे लाल गुलाब। एकदम पूरी भारतीय... कोई लीपा-पोती नहीं। हाथों में कांच की बस दो-दो चूड़ियां... हलका-गुलाबी कुरता-पाजामा। इस हालत में उनसे हाथ मिलाने का सीधा मतलब था पिघल जाना। मैं सहसा पसीना-पसीना हो गया। मैं पसीना पौंछने को ही था कि मिसेज भाटिया का रुमाल-भरा हाथ मेरे माथे पर था। अचानक मेरी पत्नी आ गई। बच्चे घर से बाहर थे। मिसेज भाटिया को मेरे साथ देखकर मेरी पत्नी बिना कुछ कहे दूसरे कमरे में चली गई। मिसेज भाटिया को पत्नी का यह बर्ताव अच्छा नहीं लगा। इसी बीच मिस्टर माटिया उनकी दोनों बेटियां भी आ गईं।
यह एक संयोग ही था क्योंकि मिसेज भाटिया और मेरे बीच में कोई किसी प्रकार का व्यक्तिगत या सामाजिक रिश्ता कभी नहीं रहा। मिसेज भाटिया और मैं एक ही आफिस में काम जरूर करते हैं। बस इतना सा रिश्ता है हम दोनों में। हाँ, मिस्टर भाटिया कभी-कभार मेरे घर आते जाते रहते थे। मिस्टर भाटिया अपनी पत्नी को मेरे पास देखकर मन ही मन परेशान थे। कुछ कहा भी नहीं। पर अब मिसेज भाटिया गायब थी।
मैं पाखाने चला गया। दरवाज़ा बन्द करने को ही था कि मिस्टर भाटिया ने पाखाने के दरवाज़े में जोर से ठोकर मारी। दरवाज़ा खुल गया। फिर वो जोर से चीखा, “तो यहां आके छुपी है साली, निकल बाहर। आज पता चला, साले शर्मा के साथ मौज मस्ती करती है।" यह सुन मैं जैसे सुन्न रह गया। मैं पाखाने से तुरन्त ही बाहर आ गया। बोला, “भाटिया क्या हो गया है तुझे? वो तो मेरी पत्नी के साथ बैठी है।” लेकिन मिस्टर भाटिया का पारा नहीं गिरा। पलट कर कमरे में चला गया। मिसेज भाटिया की चुटिया पकड़ी और तड़ातड़ दो-तीन हाथ जड़ दिये। इस पर मिसेज भाटिया के चेहरे पर खारिस-भरी हंसी उभर आई। भाटिया बड़बड़ा उठा, बोला कि जैसी तू है, वैसी ही तेरी औलाद भी...।" दरअसल मेरे और मिसेज भाटिया के बीच ऐसा-वैसा कुछ भी तो नहीं था। सो भाटिया की बातें सुनकर मिसेज भाटिया आपा खो बैठी। बिना कुछ कहे वो सहजता से उठी, बेलन उठाया और भाटिया पर टूट पड़ी। भाटिया तो बच गया, पर बीच बचाव में मुझे दो-चार बेलन जरूर पड़ गए। खैर! बीच-बचाव हो गया ।
इस घटनाचक्र के बाद, अब मेरी पत्नी भी मुझे शक की नज़र से देखने लगी। चुपचाप उठी। मेरी ओर देखा और कपड़े समेटकर घर से बाहर निकल गई। मैं हक्का-बक्का-सा उसे देखता रह गया। कुछ देर बाद उसकी तलाश में, मैं भी घूमता-घूमता पास की एक बस्ती में जा पहुंचा। वहां पानी के लिए मारा-मारी हो रही थी। पता नहीं क्यों, मैं भी पानी के लिए लाइन में लग गया। देखते ही देखते सारे नलके सूख गये। पानी आना बन्द हो गया। सत्ता पक्ष के विरोधियों को भाषण देने का मौका मिल गया। जनता को नारे लगाने का । नुक्कड़ सभाएं होने लगीं। नेताओ के गुरगों ने आसमान सिर पर उठा लिया ।
मैं अवाक यह सब देख ही रहा था कि किसी ने मेरे कंधे पर धीरे से हाथ रखा और कान में यह कहकर चलता बना कि मिस्टर भाटिया चल बसे। मैंने सोचा, “अभी आधा घन्टे पहले ही तो दोनों पति-पत्नी का मेल-मिलाप कराया था...ऐसा कैसे हो गया ?” खैर! मैं घर की ओर दौड़ा। पर कैसा दौड़ना? ... चलना भी दूभर हो रहा था। घर से थोड़ा पहले मेरी पत्नी भी मुझे मिल गयी। किन्तु अब वह सहज थी। शायद उसे भी यह ख़बर मिल गयी होगी। वह भी मेरी तरह परेशान थी। घर पहुंचे तो देखा कि घर के आस-पास भीड़ जमा थी । हम पति-पत्नी एक दूसरे को ही देखे जा रहे थे। मन ही मन सोच रहे थे कि हम कल ही तो इस मकान में आये थे। अब क्या होगा हमारा? पुलिस का डर अलग सता रहा था। इस साले भाटिया को आज ही मेरे घर पर मरना था। मन में जाने कैसे-कैसे विचार लगातार आ-जा रहे थे।
भीड़ हमें सहानुभूति-भरी नज़रों से देख रही थी। अब तक मैं पूरी तरह टूट चुका था। घबराहट पूरी तरह हावी थी मुझ पर। ऐसे में अचानक मेरी नींद टूट गई। नींद टूटी तो पाया कि सब कुछ सामान्य था। पर में सहज नहीं हो पाया। पत्नी को भी कुछ नहीं बताया। सीधा तेरे पास चला आया, शर्मा ने कहा।
शर्मा की कथा-व्यथा सुनते-सुनते मुझे लगा कि शायद मैं भी कोई सपना देख रहा हूं। शर्मा ने जैसे ही अपनी बात समाप्त की, मैंने उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखा और बोला, "अमां यार ये भी कोई बात हुई। सपने से ही डर गया। धत-तेरे की...।" मैं मन ही मन सोचने लगा कि आज का जमाना ही कुछ ऐसा हो गया है कि कुछ हो या ना हो, अफवाहें बहुत जल्दी उड़ जाती हैं और लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि अफवाहों को 'सच' मानकर स्वयं शंकाओं के गर्त में चले जाते हैं। मैंने माहौल बदलने की चेष्टा की। न चाहकर भी मैं कह उठा, "चल! अब छोड़ सब कुछ। अब ये बता, तेरे पास सिगरेट-विगरेट है कि नहीं? छोड़ मैं ही लाता हूं। ले! इसे सुलगा और धुंए में उड़ा दे सब बीती बातें... आराम से घर जा। और सुन कल शाम तेरे घर आऊंगा। खाने-पीने का इन्तजाम रखना।" 0000