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तेजपाल सिंह 'तेज' (प्रस्तोता) : राजनीति का धर्म और धर्म की राजनीति - ईश कुमार गंगानिया

प्रस्त्तुति : तेजपाल सिंह ‘तेज’



राजनीति का धर्म और धर्म की राजनीति

(कितना अधर्म -  कितनी अनीति)


-ईश कुमार गंगानिया



मैं एक साधारण जन के रूप में महसूस करता हूं कि मौजूदा राजनीति और धर्म के चलते मेरा बचा-कुचा अमनचैन भी खतरे में है। पूंजीपति की दबंगई अपने तरीके से मेरे पेट पर लात मारने के नए तरीके ईजाद कर रही है। तन के कपड़ों के स्‍तर पर यह मुझे गांधी जी बनाने पर आमादा है। गांधी जी ने यह रास्‍ता स्वेच्छा से चुना था और वे महात्मा और राष्ट्र पिता बन गए। लेकिन मेरे जैसे करोड़ों लोगों के साथ यह जबरन हो रहा है; जबकि हम न राष्‍ट्र पिता बनने की होड़ में हैं और न ही महात्मा बनने की। हमारा वजूद और अस्मिता कुछ सेर अनाज की भीख तक सिमट गए हैं। कुछ लोग मेरे देश को हिन्‍दू राष्‍ट्र बनाने पर तुले हैं तो कुछ बौद्धमय भारत बनाने की मुहिम चलाए हैं। यहां धर्म की कितनी राजनीति है और कितना राजनीति का धर्म है, यह मेरे लिए एक गंभीर चिंता व चिंतन का विषय बन गया है।

हां, मुझे इतना जरूर समझ आ रहा है जो धर्म और राजनीति की मुहिम का हिस्‍सा बने हैं, उनके सामने मेरे जैसा रोजी-रोटी का कोई संकट नहीं है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि उनकी रोजी-रोटी और सारे ऐसों-आराम की फसल मेरे समर्पण व बेवकूफीकरण की जमीन पर ही फलते-फूलते हैं। धर्म और राजनीति की संसद में जो मारामारी दिखती है मुझे उसमें मेरी मुफलिसी की चिंता नदारद नजर है। उनके जहन में मेरे उज्ज्वल भविष्‍य का सवाल नहीं, बल्कि मेरे बेवकूफीकरण के लिए अपनाई जा रही रणनीतियों की मुहिम बरकरार नजर आती है। इन दोनों के जहन में देश की बेहतरी का व्‍यवहारिक रोडमैप सिरे से नदारद है। इनमें कुछ की छवि तो एक अपराधी जैसी नजर आती है, जिनकी देश, दुनिया और मानवता के बारे में सोचने की औकात नहीं है। मुझे इन चेहरों में कहीं भी दया, करुणा, संवेदनशीलता, गंभीरता व देशप्रेम नजर नहीं आते। कई बार ऐसा लगता है जैसे कि ये अपने अपराधीकरण के हथकंडों के दम पर ही धार्मिक और राजनीतिक सत्ता को बरकरार रखना चाहते हैं। इसलिए मुझे धर्म और राजनीति चेहरे कुछ डरावने लगने लगे हैं। लेकिन मेरी चिंता और चिंतन में मेरा देश बराबर मौजूद है; क्‍योंकि मेरा वजूद मेरे देश और इसकी संवैधानिक व्‍यवस्‍था के दम पर बरकरार है। लेकिन आज धर्म और राजनीति जैसे इन्‍हें रोंदने तुली है।

देश और देशप्रेम के संबंध में मुझे एक जापानी कहावत याद आती है। इस कहावत का लब्‍बोलुआब है कि एक जापानी बालक से पूछा जाता है-‘यदि कोई आपके पिता पर आक्रमण करे तो आप क्या करेंगे?’ बालक का जवाब था-‘अगर कोई ऐसा करता है तो मैं उसकी गर्दन काट दूंगा।’ उसी बालक से दोबारा पूछा गया-‘अगर आपके पिता बुद्ध पर आक्रमण करें तो आप क्या करेंगे?’ बालक का जवाब था-‘अगर मेरे पिता बुद्ध पर आक्रमण करेंगे तो मैं उनका सिर धड़ से अलग कर दूंगा।’ अगर बुद्ध जापान पर आक्रमण करें तो आप क्‍या करेंगे?’ तीसरे प्रश्‍न के जवाब में बालक ने कहा-‘अगर बुद्ध मेरे जापान पर आक्रमण करेंगे तो मैं बुद्ध की गर्दन उड़ा दूंगा।’

इस संदर्भ में कितनी सच्चाई है, कितनी नहीं, यह अलग से विचारणीय विषय हो सकता है। लेकिन इससे यह सीख जरूर मिलती है कि देश के नागरिकों के लिए देश सर्वोपरि होता है। धर्म, राजनीति या कोई भी इंसानी रिश्‍ता देश से बड़ा नहीं होता। देश किसी राजनेता, धर्म विशेष, धर्म गुरुओं या किसी बहुसंख्यक समुदाय से नहीं बनता बल्कि देश इसके समस्त नागरिकों से मिलकर बनता है। हमारी चर्चा के केन्‍द्र में भी देश और आम नागरिक के सरोकार हैं। लेकिन यह हकीकत है कि देश का आम नागरिक धर्म और राजनीति के चंगुल से कभी बाहर नहीं रहा है। आज इसकी स्थिति बद से बद्तर होती जा रही है। जरूरी है कि देश और मानवीय हितों के संरक्षण के लिए धर्म और राजनीति के जो भी नापाक इरादे हैं, उनका खुलकर प्रतिरोध होना चाहिए।

यह बात अपने आपमें विवादित व आपत्तिजनक लग सकती है कि ‘देश’ हमारी प्राथमिकता कभी रहा ही नहीं। अगर देश हमारी प्राथमिकता रहा होता तो हमारी गुलामी का इतिहास इतना लम्‍बा व अंधकारमय ना रहा होता। मुझे इस गुलामी के मूल में जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा आदि की संकीर्णता का आधिपत्य नजर आता है। इस आधिपत्य को तोड़ने और देश की प्राथमिकता को रेखांकित करते हुए सन 1938 में डा. अम्‍बेडकर ने कहा था-‘मैं चाहता हूं कि सारे लोग पहले भी भारतीय रहें, अंत में भी भारतीय और भारतीय के अतिरिक्‍त और कुछ न रहें।’ यह टिप्‍पणी उन्‍होंने उन गुमराह लोगों का मुंह बंद करने के लिए कही थी जो कहते थे-‘हम पहले भारतीय हैं और बाद में कुछ और।’

हम देश की गुलामी के लिए अक्‍सर बाहरी आक्रांताओं पर आरोप लगाते है कि उन्‍होंने ‘फूट डालो और राज करो’ के फार्मूले को अपनाया और हमारा शोषण-उत्‍पीड़न किया। लेकिन हकीकत यह कि ‘फूट डालो और राज करो’ का घिनौना चरित्र हमारा ही है। वर्ण और जाति के बंटवारे तो हमारे तथाकथित हिन्दू धर्म के मूल आधार हैं। आज जितने भी धर्म और जाति को लेकर दंगे-फसाद और नरसंहार होते हैं वे ‘फूट डालो और राज करो’ की ही देन हैं। आज जो शहरों और चौराहों के नाम बदले जा रहे हैं। इतिहास के गड़े मुर्दों को कब्र से निकालकर सांप्रदायिकता की आग में घी डालने का काम आज भी बदस्तूर जारी है। अपने चारों ओर देखिए यह कौन कर रहा है, आराम से दिख जाएगा।

विदेशी आक्रांताओं और अंग्रेजों ने तो हमारी ही ‘फूट डालो और राज करो’ की विरासत की आग में पेट्रोल डालकर अपनी आर्थिक व राजनीतिक रोटियां सेकी है। अगर हम अपने गिरेबां में झांके तो आपसी फूट का विद्रूप चेहरा नजर आएगा। यह हम ही हैं जो इसमें जहरीली खाद डालकर धर्म और राजनीति की फसल उगा रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो आज की राजनीति देश के एक नागरिक के हाथ में दूसरे नागरिक का गला रेतने के लिए अलग-अलग जाति और धर्म के खंजर न थमाती। आपसी खून-खराबे पर राजनीति की रोटियां सेंक कर खुद को निरंकुश शहंशाह और मासूम जनता को भिखारी बनाने का दुस्‍साहस नहीं करती। इसे सीधे व सपाट शब्‍दों में कहा जाए तो ‘फूट डालो और राज करो’ हमारे देश में धर्म व राजनीति का मूल चरित्र बन गया है। कल विदेशी हमारा दोहन कर रहे थे, आज पुन: स्वदेशी कर रहे हैं। दोनों में एक बात कॉमन है कि इस दोहन का शिकार पहले भी देश का दलित-शोषित, आदिवासी, पसमांदा मुसलमान यानी देश का बहुजन रहा है और आज भी वही है। 

संभवत: धर्म और राजनीति के ऐसे ही चरित्र के चलते ओशो ‘राजनीतिज्ञों और प्रीस्‍ट्स को स्‍टुपिड पीपल कहते हैं। जनता राजनीतिज्ञ व प्रीस्ट का आज्ञा पालन करते हैं, तर्क व विरोध नहीं करते।’ हम ऐसा नहीं कह सकते और कहना भी नहीं चाहिए। लेकिन हां, हम इतना जरूर कह सकते हैं कि आज धर्म और राजनीति इंसान के दिमाग के अपहरण की टूलकिट बन गए हैं। देश और समाज में आपसी सौहार्द, प्रगति व खुशहाली का जज्बा जैसे धर्म व राजनीति के विषय नहीं रह गए हैं। इनका दोनों का मकसद अपने वर्चस्‍व का लहराना है, इसके लिए ये किसी हद तक जा सकते हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में मुझे धर्म और राजनीति के पुरोधा कमोबेश सेडिस्‍ट यानी परपीड़क जैसे नजर आने लगे हैं। जातीय व धार्मिक उत्‍पीड़न करना निजाम द्वारा संरक्षित लोगों के आनंद, प्रतिष्‍ठा व व्‍यवसाय बन गया है। जाहिर है, देश की जनसंख्‍या का एक बड़ा भाग इस परपीड़न की प्रायोजित नई नॉर्मल संस्‍कृति (?) का बुरी तरह शिकार है।

हमें धर्म और राजनीति द्वारा किए जा रहे अपने दिमागी अपहरण व बेवक़ूफ़ीकरण को समझना पड़ेगा कि धर्म व राजनीति की सफलता के मूल में अमर्यादित व झूठ की चाशनी में लिपटी भाषा, क्रियाकलापों में नौटंकी, हवाई सपने बेचने की कला, अलग-अलग तरह के प्रलोभन, जाति व धर्म की आड़ में दहशत का कारोबार आदि इनकी नई टूलकिट के औजार बनते जा रहे हैं। इस टूलकिट के प्रयोग के लिए किसी शिक्षा, प्रशिक्षण‍ या डिग्री जरूरत नहीं, ठीक वैसे ही इसे प्रभावहीन करने के लिए भी किसी विशेष योग्‍यता की जरूरत नहीं है। जरूरत है कि हम सभी यह समझें कि न्‍याय का चरित्र क्‍या है और इसे क्‍या होना चाहिए?

न्‍याय के चरित्र को समझने से पहले हमें अन्‍याय के स्वरूप व इसकी क्रूरता को समझना पड़ेगा। अतीत में जातियों की बेडि़यां डालकर, शिक्षा, संपत्ति व इंसानी पहचान से बेदखल करना आम बात रही है। आज एकलव्य और द्रोणाचार्य अपनी अलग तरह की भूमिका में मौजूद हैं। आज एकलव्य के घड़ा छू लेने से द्रोणाचार्य अंगूठा या हाथ नहीं कटवाता, जान ही ले लेता है। धर्मग्रंथों की आवाज कानों तक स्‍वत: पहुंचने के अपराध में कानों में शीशा पिघलाकर डालना किसी से छिपा नहीं है। शम्‍बूक की निर्मम हत्‍या करने के लिए नए-नए किस्‍म के राम आज कदम-कदम पर मौजूद हैं। मूंछ रख लेना, जूते पहन कर गांव चले जाना, घोड़े का मालिक हो जाना और इसकी सवारी करना जातिवादी दबंगई की नजर में संपत्ति है, जिसका अधिकार दलित-शोषित को नहीं है। इसके लिए व्‍यक्ति की हत्‍या तक कर देना आम बात है। देवदासी प्रथा और किसी स्‍त्री को डायन करार देकर ईंट-पत्‍थरों व लाठी-डंडों से हत्‍या कर देना आज तक थमा नहीं है।

इतना ही नहीं, न जाने हमारे चारों ओर कितने हाथरस मौजूद हैं जहां बेटियों को न अस्मिता की रक्षा का अधिकार है, न जीने का और मरने के बाद भी मां-बाप व सगे-संबंधियों के हाथों दफन होने का अधिकार भी नहीं रह गया है। बकौल नवीन कुमार, आर्टिकल 19, किसी आदिवासी पत्रकार लिंगारामगुडोपी को यू-टयूब पर सच दिखाने के लिए जेल में डाला जाना, उसके मल द्वार में डंडा डाल दिया जाना या किसी आदिवासी सोनी सोरी की योनि में पत्‍थर डाल दिया जाना हमारे नए भारत के नए नॉर्मल हैं। मुझमें ऐसे मसलों को गिनाने और अधिक चर्चा करने का साहस नहीं है और शायद जरूरत भी नहीं है। ये सभी धर्म और राजनीति के अदृश्य मगर अटूट गठबंधन की बानगी भर हैं। इस संबंध में यह भी बताना जरूरी है कि धर्म और राजनीति पर कब्‍जा हमेशा समाज के जातीय व आर्थिक रूप से दबंग लोगों का ही रहा है।

भले ही आज देश में संविधान है, लोकतंत्र है लेकिन उपरोक्त तस्‍वीर में बदलाव की उल्‍लेखनीय संभावनाएं नजर नहीं आ रही हैं। पुलिस व प्रशासन के अपने कभी न खत्‍म होने वाले चारित्रिक विवाद हैं। पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण लगभग सभी संवैधानिक संस्थाएं निरंतर आरोप-प्रत्‍यारोप की गिरफ्त में हैं। सर्वोच्‍च न्यायालय भी आजकल विवादों से दो-चार होता रहता है। उसके किसी जज को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ जाता है कि किसी को जमानत देते हुए भी डर लगता है। लोकतंत्र और संविधान आजकल कुछ-कुछ किताबी हो गया है, जो व्‍यवहार की विषय वस्‍तु कम और विवाद की विषय वस्‍तु अधिक हो चला है।

ऐसा लगता है कि आज हम जिसकी लाठी उसकी भैंस के युग में वापस लौट रहे हैं, जिसमें राजनीति ने धर्म को लाठी बना लिया और यह लाठी निरंकुश हो गई है। इसके एक दूसरे चरित्र को समझने के लिए योगेन्‍द्र यादव को याद करना प्रासंगिक लग रहा है। योगेन्‍द्र मौजूदा निजाम के संबंध में कहते हैं-‘ये लोग जो मुसलमानों को दिन-रात सबक सिखाने की बात करते हैं, वे अपने मतलब के लिए काबा को भी प्राथमिकता दे सकते हैं।’ ऐसे ही वे आम आदमी पार्टी के ईमानदार महानायकों के बारे में कहते है-‘वे एक हाथ में पेट्रोल और दूसरे हाथ में पानी की बाल्टी लेकर चलते हैं। वे नफा नुकसान देखकर पेट्रोल या पानी का इस्तेमाल करते हैं।’ कहने की जरूरत नहीं, यह बात राजनीति व धर्म पर ही नहीं, बल्कि जातीय उत्‍पीड़न के मामले में भी बराबर लागू रहती है।

अब मैं उस मुद्दे पर आता हूं जिसने मुझे धर्म और राजनीति के संबंधों को समझने के लिए संपादकीय लिखने पर विवश किया। आज मेरी प्राथमिकता किसी अन्‍य समाज, धर्म व राजनीति के अखाड़े में जाकर दो-दो हाथ करने की नहीं है। मैं शुरू में ही रेखांकित कर देना चाहता हूं कि यहां मेरी पहली प्राथमिकता समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े शोषित-उत्‍पीडि़त व्‍यक्ति के घर में लगी आग को बुझाने की है। प्राथमिकता इस समाज के मूल्‍यांकन व विशेष रूप से आत्ममंथन की भी है। इसका लक्ष्‍य समाज के किसी नेता, कार्यकर्ता या बुद्धिजीवी की आलोचना व अवमूल्‍यन का बिल्‍कुल नहीं।

हम मानते हैं कि राजेंद्र पाल गौतम सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित हैं। वे ‘जय भीम मिशन’ चला रहे हैं। देश को बौद्धमय बनाने का संकल्‍प दोहरा रहे हैं। उन्‍होंने अपने प्रस्तावित कार्यक्रम के अनुसार 5 अक्‍तूबर 2022 को आंबेडकर भवन, रानी झांसी रोड़, दिल्‍ली में धम्म दीक्षा ली। इसमें बाईस प्रतिज्ञाओं के चलते विवाद हो गया। इस दौरान उन्‍होंने खुद को आगे करने की अपेक्षा राज रत्‍न आंबेडकर को आगे कर दिया और कहा-‘उन्‍होंने उन प्रतिज्ञाओं को भीम मिशन का सिपाही होने के नाते दोहराया था।’ यह चर्चा का विषय नहीं है कि उन्‍होंने इन प्रतिज्ञाओं को पहले दोहराया या बाद में।

गौतम जी ने इस विवाद को भाजपा की ओछी राजनीति बताया। उनका आरोप भी निराधार नहीं हैं। लेकिन जब मि. गौतम से उनकी पार्टी के उनके साथ खड़े होने के बारे में प्रश्‍न पूछे गए तो उन्‍होंने गुजरात में होने वाले चुनाव और अपनी पार्टी की छवि को लेकर चिंता जताई। उन्‍होंने सामाजिक न्‍याय और भारत को बौद्धमय बनाने के संकल्‍प से एक कदम पीछे हटकर अपनी पार्टी व केजरीवाल को तरजीह दी। उन्‍होंने पार्टी का टिकट देने, विधायक बनाने और मंत्री बनाने के लिए अपनी पार्टी व केजरीवाल के प्रति कृतज्ञता जताई।

लेकिन कृतज्ञता ज्ञापित करने के चक्कर में कहीं न कहीं अम्‍बेडकरवाद, बुद्धवाद और उनके बौद्धमय भारत बनाने की बुलंद आवाज की धार कम हुई। उनसे ठीक को ठीक और गलत को गलत कहने अपेक्षा थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यहां मुझे बाबा साहब के त्यागपत्र के घटनाक्रम की याद आती है। 25.04.1948 में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्‍ट फेडरेशन के लखनऊ सम्मेलन में अभिव्‍यक्‍त विचारों से नेहरू, पटेल और डा. अम्‍बेडकर के बीच बवाल-सा मच गया था। अपने एक पत्र में डा. आंबेडकर ने कानून मंत्री पद से अपना त्यागपत्र में कहा-‘मुझे लगता है कि आपकी पीड़ा के उचित उपचार के लिए मैं भारत सरकार में अपने कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दूं। शायद आप जानते हैं कि राजनीति मेरे लिए कभी खेल नहीं रहा। यह एक अभियान है। मैंने अपनी सारी व्यक्तिगत जरूरतें/इच्छाएं और अपना पूरा जीवन अनुसूचित जाति की बेहतरी के लिए व्यतीत कर दिया है।’ स्‍पष्‍ट है कि यहां बाबा साहब का राजनीति में होने का मतलब अपने समाज की बेहतरी भी था। इसमें समाज उनकी प्राथमिकता थी, राजनीति की नहीं।

उपरोक्त की रोशन में देखें तो मि. गौतम ने राजनीति को प्राथमिकता दी। थोड़ा आगे बढ़ते हैं, गौतम जी की आम आदमी पार्टी ने दिल्‍ली सरकार के कार्यालयों व स्‍कूलों में डा. आंबेडकर और सरदार भगतसिंह की फोटो को अनिवार्यता की श्रेणी में रखा। अच्‍छी बात है, दोनों महा नायकों का सम्‍मान होना चाहिए। अगर हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और न होते तो क्‍या ‘आप’ पार्टी को गौतम जी द्वारा ली गई धम्म दीक्षा के समर्थन में आगे नहीं आना चाहिए था? जब गौतम जी पर एफआईआर हुई तो उनकी पार्टी कहां थी, वह पार्टी जो सत्‍येन्‍द्र जैन, मनीष सिसोदिया, अन्‍य विधायकों व मंत्रियों के मामले में मीडिया व सड़कों पर बवाल काट देती है। इसके विपरीत पार्टी की ओर से अंदर खाने गौतम जी विरोधी ऐसी मुहिम चलाई गई कि उन्‍हें अपना इस्तीफा देना पड़ा। आम आदमी पार्टी के अन्‍य दलित विधायकों ने भी किसी एकजुटता का परिचय नहीं दिया। पार्टी ने साफ कर दिया कि उनके दांत खाने वाले नहीं, दिखाने वाले हाथी के दांत हैं। इसके बावजूद गौतम जी ने अपने राजनीतिक कौशल के चलते समाज व मिशन जय भीम की अपेक्षा अपनी पार्टी को अपर हैंड दिया।

अब पुन: बाबा साहब की टिप्पणी पर लौटते हैं। हम मानते हैं कि बाबा साहब जैसे जज्बे का एक-दो प्रतिशत होना भी बड़ी बात है। हमने गौतम जी से इतने की ही अपेक्षा की थी लेकिन उनकी पार्टी ने बाबा साहब और उनकी छवि के विरोध में काम किया और गौतम जी ने चुप रहकर पार्टी को प्राथमिकता दी। शहीद-ए-आजम के संबंध भी उनकी पार्टी हाथी के दांत ही साबित हुई। अति तो तब हो जाती है जब मि. केजरीवाल बार-बार दावा करते हैं कि उनकी पार्टी कट्टर ईमानदार है और वे मि. सिसोदिया की तुलना शहीद-ए-आजम भगतसिंह से कर डालते हैं।

क्‍या भगत सिंह की देशभक्ति, ईमानदारी और शहादत के सामने कोई भी राजनेता टिक सकता है? क्या भगतसिंह के जाति, धर्म, देश व साम्यवाद के चिंतन-दर्शन व व्यवहारिकता की कसौटी इतनी ही बोनी है जितनी केजरीवाल जैसे मौकापरस्त नेताओं ने बना दी है? ऐसी स्थिति में भी गौतम जी यदि अपनी पार्टी और पार्टी-नेतृत्‍व के साथ हैं तो वे खुद ही तय करें कि यह कितना धम्म, अम्‍बेडकरवाद, सामाजिक न्‍याय और कितना नैतिकता की श्रेणी में आता है। हम किसी राजनीतिक पार्टी के खंडन या मंडन के लिए बात नहीं कर रहे हैं। हमारे केन

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