
तेजपाल सिंह ‘तेज’ : ओबीसी समाज परिवर्तन की जटिल राह पर कदमताल करता दिख रहा है
ओबीसी समाज परिवर्तन की जटिल राह पर कदमताल करता दिख रहा है
- तेजपाल सिंह ‘तेज’
भारत एक ऐसा जातिवादी देश है जिसमे गायों की गिनती होती है, ऊंटों की गिनती होती है, भेड़ों की गिनती होती है। यहां तक कि पेड़ों की भी गिनती होती है लेकिन ओबीसी ऐसी गई-गुजरी जिंदा प्रजाति है जिनकी गिनती साल 1931 में हुई थी उसके बाद किसी भी सरकार ने उनकी गिनती करने की जहमत नहीं उठाई। हाँ! जाति जनगणना की चर्चा सदैव बनी रही। 2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को लेकर लालूप्रसाद यादव ने दबाव बनाया था और गिनती हुई भी लेकिन उसको जारी नहीं किया गया। आरजेडी के दबाव में नीतीश सरकार ने ओबीसी की जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पारित कर के भेजा, लेकिन उसके बाद की प्रक्रिया पर विमर्श बंद कर दिया गया। अब केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि ओबीसी की जनगणना के आंकड़े 2021 के सेन्सस में शामिल नहीं किये जायेंगे। लेकिन कोविड के बहाने 2021 में भी यह सब नहीं हो पाया। सच तो ये है कि ब्राह्मणवादी सरकारें ओबीसी समुदाय को ओबीसी के बाड़े में शामिल नहीं करना चाहते, जब कि धर्मों के बाड़े का विकल्प खुला छोड़ दिया गया है।
क्या ओबीसी समाज आज भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में है? :
ओबीसी समाज आज भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में है, यह एक जटिल और गंभीर विषय है। इस संदर्भ में ओबीसी समाज पर ब्राह्मणवाद के प्रभाव को देखने के लिए विभिन्न स्तरों पर देखने की आवश्यकता है, जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में। लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि ओबीसी के कुछ तबके अभी भी ब्राह्मणवादी मूल्यों और विचारों को मानते हैं और उनके अनुरूप ही व्यवहार करते हैं, जो दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के साथ भेदभाव को बढ़ावा देता है।
ब्राह्मणवाद के प्रभाव के प्रमुख कारण:
1. सामाजिक संबंध:
ओबीसी समाज में, ब्राह्मणवाद के कारण सामाजिकhierarchy का पालन किया जाता है। कुछ ओबीसी जातियों को अन्य ओबीसी जातियों से ऊपर माना जाता है, जो सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देता है।
2. राजनीतिक संबंध:
ओबीसी समाज में, ब्राह्मणवाद के कारण कुछ ओबीसी नेता ब्राह्मणवादी विचारों को बढ़ावा देते हैं, जो दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के हितों को नुकसान पहुंचाता है।
3. आर्थिक संबंध:
ओबीसी समाज में, ब्राह्मणवाद के कारण कुछ ओबीसी व्यवसायी दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के साथ भेदभाव करते हैं, जो उनके आर्थिक विकास को बाधित करता है।
4. ऐतिहासिक प्रभाव: ब्राह्मणवाद का प्रभाव ओबीसी समाज पर ऐतिहासिक रूप से रहा है, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है।
5. शिक्षा और जागरूकता की कमी: ओबीसी समाज में शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण, वे ब्राह्मणवाद के प्रभाव को समझने और उसके खिलाफ लड़ने में असमर्थ हो सकते हैं।
6. सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव: ब्राह्मणवाद का प्रभाव ओबीसी समाज की सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं पर भी हो सकता है, जिससे वे अपनी पहचान और अधिकारों के बारे में जागरूक नहीं हो पाते हैं।
यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ओबीसी समाज का शिक्षित वर्ग ब्राह्मणवाद के विरोध में दिखने लगा है और इस दिशा में अथक प्रयास भी कर रहा है। और कुछ ओबीसी नेता और संगठन ब्राह्मणवाद को चुनौती दे रहे हैं। दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। ओबीसी समाज को ब्राह्मणवाद के प्रभाव से मुक्त करने के लिए शिक्षा, जागरूकता और सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण की आवश्यकता है। कुल मिलाकर ओबीसी समाज में मानसिक स्तर पर ब्राह्मणवाद का प्रभाव अभी भी मौजूद है। यद्यपि इसका विरोध भी हो रहा है तथापि आने वाले समय में, यह देखना होगा कि ओबीसी समाज ब्राह्मणवाद से कितनी स्वतंत्रता हासिल कर पाता है। और दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों में अपने अधिकारों की रक्षा करने के अर्थ में कितना जुड़ाव हो पाता है।
दलितों पर अत्याचार करने में ओबीसी ब्राह्मणों के सहयोगी रहे हैं...
व्यापक रूप से निर्विवाद सत्य यह भी है कि ओबीसी सदैव ब्राह्मणवाद के वाहक रहे हैं। यहाँ तक कि ओबीसी दलितों पर अत्याचार करने में ब्राह्मणों के सहयोगी कल भी थे और आज भी हैं या फिर ब्राह्मणों से भी आगे रहे हैं। इतना ही नहीं, आर एस एस की सेना में अधिकतर लोग ओबीसी और दलित जातियों के लोगों की भरमार है।
"मंडल के बाद के परिदृश्य ने ओबीसी चेतना को जन्म दिया, और इस घटना का महत्व राजनीतिक वर्ग से छिपा नहीं रहा। तथ्य यह है कि अब एक बड़ा समूह था, जिसे चुनावी रूप से लामबंद किया जा सकता था, जिसके कारण पार्टी मंचों पर पहचान की अवधारणा पर अधिक जोर दिया गया। पार्टियों द्वारा पहचान के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ सूचना की दृष्टि से सीमित मतदाता बेहतर मार्गदर्शक के अभाव में पहचान को वोट देने के संकेत के रूप में इस्तेमाल करते हैं, और इस प्रकार पार्टियों द्वारा फिर से पहचान पर अधिक जोर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप एक प्रकार का दुष्चक्र बन गया है, जहां समय के साथ पहचान का महत्व बढ़ता गया है।"
परिवर्तन की जटिल राह पर आगे बढ़ता ओबीसी समाज...
ओबीसी चेतना के कारण भी वे एक संगठित राजनीतिक ताकत नहीं बन पाए। हालांकि यह सच है कि मंडल आंदोलन ने ओबीसी को एक राजनीतिक पहचान दी और उन्होंने यूपी और बिहार से लेकर हरियाणा और राजस्थान तक स्थानीय राजनीति में अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी, लेकिन राम मंदिर आंदोलन ने इस 'चेतना' के प्रभाव को कम कर दिया। तथाकथिकओबीसी मोदी जी के प्रधान मंत्री बन जाने से भी ओबीसी समाज आर एस एस और भाजपा की चेरी बनकर रह गया।
''फिलहाल, मोदी अपनी 'पिछड़ी' वर्ग की पहचान को दिखाने में कभी संकोच नहीं करते और सरकार में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ता जा रहा है, इसलिए यह रुझान अपरिवर्तनीय लगता है और इससे भाजपा के पक्ष में हिंदू एकजुटता में योगदान मिलेगा।'' वे इस बात पर जोर देते हैं कि कोई भी पार्टी जो ओबीसी मतदाताओं को आकर्षित करने में विफल रहती है, वह दूसरों पर बढ़त की उम्मीद नहीं कर सकती। यह नरेंद्र मोदी के दौर में किसी अति उत्साहित भाजपा नेता का बेतुका आशावाद नहीं है। वह समय की राजनीतिक भावना को प्रतिध्वनित करता है। दलितों का भी कमोबेश यही हालत है। इतना जरूर है कि दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा बुद्ध धम्म की ओर मुड़ गया है जो ब्राह्मणवाद पर तो प्रहार करता ही है, अपितु समाज को कुछ हद तक एकत्र करने का काम करता है।
परिवर्तन की जटिल राह पर आगे बढ़ता ओबीसी समाज की वास्त्विक स्थिति को जानने के लिए अब थोड़ा पीछे उन दिनों की ओर चलते हैं जब देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था। उस समय की स्थिति कुछ यूँ थी - पिछड़े वर्ग के लोग गांधी जी को अपना नेता, अपना मसीहा मानते हैं। पिछड़े वर्ग के लोग नेहरू को अपना नेता, अपना मसीहा मानते हैं। पिछड़े वर्ग के लोग तिलक को अपना नेता, अपना मसीहा मानते हैं। जब गांधी जी इस देश में पैदा भी नहीं हुए थे, 1848 में ज्योतिबा फुले ने हमारी आजादी की लड़ाई शुरू की थी, ज्योतिबा फुले ने हमारी आजादी की लड़ाई शुरू की थीऔर ज्योतिबा फुले ने हमारी आजादी की लड़ाई शुरू की थी, लेकिन पिछड़े वर्ग के लोगों को इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है। जब बाबा साहब अंबेडकर को संविधान लिखने का अवसर मिला, तो तब हम अपने महापुरुषों को नहीं जानते, अपने महापुरुषों की लड़ाई को नहीं जानतेऔर अपनी विरासत को नहीं जानते। यदि जानते होतेतो हम ब्राह्मणों के पूर्वजों को अपना पूर्वज नहीं मानते। अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद, हमें पढ़ने का अधिकार तो मिल गया, लेकिन हमें अभी भी यह तय करने का अधिकार नहीं है कि हमें क्या पढ़ना है।
हमारे पूर्वजों की लड़ाई को दलित आंदोलन कहा गया। ज्योतिबा फुले दलित नहीं थे, वे ओबीसी थे। छत्रपति साहू महाराज दलित नहीं थे, वे ओबीसी थे। पेरियार रामानुस्वामी नायकर ओबीसी थे। पेरियार ललई सिंह यादव ओबीसी थे। डॉ. रामस्वरूप वर्मा ओबीसी थे। बाबू जगदेव प्रसाद कुसुमहा ओबीसी थे। ऐसे कई महापुरुष हुए जिन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष किया। पिछड़े वर्ग के लोग पढ़ते नहीं थे। और जब पढ़ते नहीं थे तो अपने दोस्त और दुश्मन को कैसे पहचानते। और जब ओबीसी वर्ग के लोगों ने अपने दोस्तों और दुश्मनों को पहचाना ही नहीं तो उन्होंने अपने दोस्तों को ही दुश्मन मान लिया। और अपने दुश्मनों को दोस्त मान लिया।इसका नतीजा ये हुआ कि आज की तारीख में देश में जानवरों की गिनती होती है। कुत्तों और बिल्लियों की गिनती होती है। देश में कुत्तों की गिनती तो होती है, लेकिन OBC की गिनती नहीं होती। देश में OBC की आबादी 52% है, लेकिन 52% लोग जो 52 रोटी के भूखे हैं, उन्हें केवल 27 रोटियां दी गईं। और जब उन्हें खिलाने का समय आया तो उन्हें केवल 6 रोटियां भी नहीं दी गईं। इस प्रकार पिछड़े वर्ग के साथ बहुत बड़ा धोखा हो रहा है। क्योंकि पिछड़ा वर्ग अपने मित्रों और शत्रुओं को नहीं पहचानता। जिस तिलक को पिछड़े लोग अपना नेता, अपना मसीहा मानते हैं, उन्हीं तिलक ने 1918 में जब बाबा साहब अंबेडकर और भास्कर राव जाधव ने ओबीसी और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की मांग की थी, तब उन्हीं बाल गंगाधर तिलक ने कहा था - क्या ओबीसी के लोग संसद में जाकर तेल निकालना चाहते हैं? क्या आप संसद में जाकर कपड़े सीलना चाहते हैं? क्या आप संसद में जाकर तेली, तमोली और कुलभट्टों के साथ भी ऐसा ही करना चाहते हैं? अगर तिलक की लड़ाई सबकी होती तो वे संसद में जाकर तेल निकालने की बात नहीं करते। वे संसद में जाकर कुर्मी का समाधान करने की बात नहीं करते। इसका मतलब यह है कि तिलक को हमारी आज़ादी ही पसंद नही आ रही थी। ग़ाधी जी कांग्रेस के नेता थे। ग़ाधी जी ने पिछड़े वर्ग के लोगों को बाबा साहब अंबेडकर के खिलाफ़ भड़काया। और उन्होंने कहा, अंबेडकर जाति की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे साथ आओ। पिछड़े वर्ग के लोग गांधीजी के साथ चले गए।
लेकिन जब सब अपने अधिकारों की बात कर रहे थे, तब गांधी जी ने पिछड़े वर्ग का एक भी मुद्दा नहीं उठाया। जब संविधान परिषद के चुनाव का समय आया, तब गांधी जी ने संविधान परिषद में एक भी ओबीसी को टिकट नहीं दिया। मित्रों, मैं यह कहना चाहूंगा कि जिस नेहरू को पिछड़े वर्ग के लोग अपना नेता मानते हैं, उस नेहरू ने काका कालेलकर के आयोग की रिपोर्ट को लागू नहीं होने दिया। उसे कूड़ेदान में डालने का काम किया। अभी तक पिछड़े वर्ग के लोगों को गुमराह किया गया है। पिछड़े वर्ग के लोगों को आपस में लड़ाया गया। कांग्रेस के ब्राह्मणों ने पिछड़े वर्ग को धोखा दिया। भाजपा के ब्राह्मणों ने भी पिछड़े वर्ग को धोखा दिया था। सरकार चाहे कांग्रेस या भाजपा की रही हो, दोनों ने ही पिछड़े वर्ग को धोखा दिया। ऐसा क्यों किया गया? क्योंकि पिछड़ा वर्ग अपने मित्रों और शत्रुओं को नहीं पहचानता था। इसीलिए ब्राह्मण पिछड़े वर्ग को उठा लेते थे। और जैसे कोई व्यक्ति पत्थर उठाकर किसी पर फेंकता है, वैसे ही ब्राह्मणों ने पिछड़े वर्ग को उठाकर अनजान वर्ग पर फेंक दिया। अज्ञात वर्ग और पिछड़े वर्ग में लड़ाई हो गई। कभी पिछड़े वर्ग को उठाकर मुसलमानों पर फेंक दिया। मुसलमानों और पिछड़े वर्ग के बीच लड़ाई हो गई। ब्राह्मण तमाशा देख रहे थे। इस तरह ओबीसी के लोग बहुत दिनों तक ब्राह्मणों के हाथों में कठपुतली बने रहे।
इस देश में पिछड़े वर्ग का ऐसा कोई नेता नहीं है जो पिछड़े वर्ग का सच्चा इतिहास बता सके और उसे जगा सके। ओबीसी समाज का मानना है कि इस देश में सिर्फ एक आदमी है - श्री अमन मेश्राम, जो हर दिन पिछड़े वर्ग को जगाने का काम कर रहे हैं। अमन मेश्राम की मेहनत की वजह से ओबीसी के लोगों को अपने पूर्वजों के इतिहास के बारे जानकारी मिल पा रही है।
अब पिछड़ा वर्ग जाग गया। जब कासगंज में मुसलमानों के खिलाफ दंगा कराने की कोशिश हुई तो ब्राह्मण ओबीसी के पास गए और कहा, हमें मुसलमानों से लड़ना है। तो ओबीसी के लोगों ने कहा, हम मुसलमानों से लड़ने में सक्षम हैं। किंतु हम मुसलमानों से लड़ेगे नहीं। ब्राह्मण कहते है कि हम मुसलमानों से लड़ने में सक्षम हैं किंतु जब हम अपनी भर्ती अथवाअपनी नौकरी की बात करते हैं, तो ब्राह्मणवादी ही कहते हैं किहम अक्षम हैं। अब हम आपके साथ नहीं आने वाले हैं।पिछड़ा वर्ग अब समझ गया है कि उनका दोस्त कौन है और दुश्मन कौन। इसीलिए ब्राह्मण ओबीसी से नाराज हैं। और ब्राह्मण जगह-जगह विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। अब गुजरात में ब्राह्मण श्री मेश्राम का बुद्धि-शुद्धि यज्ञ कर रहे हैं। इस पर ओबीसी समाज का कहना है कि श्री मेश्राम की बुद्धि तो हमेशा से शुद्ध रही है। ब्राह्मण अपनी बुद्धि को शुद्ध करें। ओबीस समझ गया है कि अगर एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी, चारों भाई मिलकर ब्राह्मणों के चारों तरफ से खड़े हो गए तो इनको लिए भागने की जगह नहीं बचेगी।
एक बात और कि जब ब्राह्मण यादव के घर जाते हैं, तो वे पटेल के खिलाफ जाते हैं। और जब वे पटेल के घर जाते हैं, तो वे यादव के खिलाफ जाते हैं और जब ब्राह्मण लोधी के घर जाते हैं, तो वे यादव और पटेल के खिलाफ जाते हैं। जब ब्राह्मण कुशवाहा के घर जाते हैं तो यादव, पटेल और लोधी के खिलाफ जाते हैं। और जब ब्राह्मण जाटव जी के घर जाते हैं तो जाटव जी से कहते हैं, जाटव जी, जमाना बदल गया है। और जब जमाना बदल गया है तो ब्राह्मण भी बदल गए हैं।
जाटव जी पूछते हैं, पंडितजी, क्या हुआ? आप कैसे बदल गए? पंडितजी कहते हैं, मैं ब्राह्मण हूँ। और आप जाटव , मैं आपके घर आता हूँ, आपके गिलास से पानी पीता हूँ, आपकी थाली से खाना खाता हूँ। और जब आप मेरे घर आते हैं, तो मैं आपको अपने बर्तन में खाना भी खिलाता हूँ। मैं आपको अपने गिलास में पानी देता हूँ। बस इतना ही नहीं अगर आपके पास कोई बड़ा अधिकारी है, अगर आपके पास कोई बड़ा आईएएस है, अगर आपके पास कोई बड़ा पीसीएस है, अगर आपके पास कोई बड़ा मंत्री है, तो हम ब्राह्मण अपनी बहन-बेटियों की शादी जाटवलोगों से करवाते हैं। क्योंकि समय बदल गया है और हम ब्राह्मण भी समय के साथ बदल गए हैं। लेकिन आप इन पिछड़े लोगों को देखिए, ये आपको छूते भी नहीं हैं। वही ब्राह्मण बाल्मीकि, खटीक के पास जाकर कहते हैं कि जाटव लोगों ने सारी नौकरियाँ ले लीं इसलिए तुम्हें नहीं मिली। जाटव और बाल्मीकी दोनों को आपस में लड़ाते हैं। यथोक्त के आलोक में यह तो कहा ही जा सकता है कि अगर सारे लोग एक जगह पर मिल जाएँ, यादव, पटेल, लोधी, कुशवाहा, जाटव, खटीक, बाल्मीकि आदि दलित/ओबीसी जातियां आपस में एक हो जाए तो सामाजिक और राजनीत स्थिति कुछ और ही होगी। ब्राह्मणों ने इस देश में अन्याय की व्यवस्था स्थापित की है। और ब्राह्मणों ने जो अन्याय की व्यवस्था स्थापित की है, उसका मुकाबला एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक लोग अलग-अलग करके करेंगे और उन्हें सफलता नहीं मिलेगी... उन्हें पीटा जाएगा। अलग-अलग लड़कर इन ब्राह्मणों की अन्याय की व्यवस्था को नष्ट नहीं किया जा सकता।( https://www.facebook.com/share/v/1YgKc5QWiE/) इस प्रकार दलित/ओबीसी वर्ग सामाजिक एकता की ओर जरूर बढ़ा है किंतु इनकी राजनीतिक आकांक्षाओं के चलते दलित राजनीति को खासी ठेस पहुँच रही है। ओबीसी समाज की तरह ही दलितों में निजी हितों को साधने के भाव से अनेक राजनीतिक दलों का पिटारा बन गया है।
ओबीसी समाज कन्फ्यूजड है कि वो ओबीसी में रहे या क्षत्रिय कहलवाये :
डा. लक्ष्मण यादव का कहना है कि आज का ओबीसी समाज कन्फ्यूजड है। वह नहीं समझ पा रहा कि वो ओबीसी में रहे या क्षत्रिय कहलवाये या फिर ब्राह्मणवादी। ओबीसी को नहीं पता कि उनके अधिकारों की मांग करने वाले लोग किस वेश में आते हैं। आज भी वे इस वेश में आते हैं कि धर्म को खतरे में बताकर ओबीसी को भ्रमित कर देते हैं । उन्हें बरगलाया जाता है कि जाति/समुदाय से ऊपर धर्म है। और ये भ्रमित होकर ब्राह्मण्वादी होने का दम्ब भरने लगते हैं। डा. लक्षमण आगे कहते हैं कि ओबीसी असमंजस में था कि खुद को ओबीसी कहें या क्षत्रिय। यही स्थिति कमोबेश आज भी है।
ओबीसी और दलितों में सामाजिक चेतना कम, राजनीतिक चेतना का उभार ज्यादा हुआ है। इस विपरीत समय में जब सच बोलना और सत्य बोलना पुरस्कार और सम्मान से भी ज्यादा जोखिम भरा हो गया है, ऐसे समय में ऐसे सवालों पर सेमिनार या मीटिंग का आयोजन करना इस देश के वंचित और गरीब तबके के लिए ही नहीं बल्कि इस देश को सबका देश बनाने के लिए बहुत जरूरी है। इसका आयोजन करना भी एक साहस का काम है| आज के इस आयोजन का विषय है - सामाजिक न्याय के लिए जाति जनगणना क्यों आवश्यक है? इसके दो चरण हैं- प्रथम : सामाजिक न्याय का अर्थ क्या है? दूसरा : सामाजिक न्याय कहां हो रहा है? तब मुझे एक दोहा याद आ रहा है – “उससे मत हारो जो तुझे तेरे कर्मों का बखान करता है, मैं तुझसे कहां मिलूं, जो मुझे आईना दिखाता है।” जाति संहार का सवाल इस देश के हर नागरिक का सवाल होना चाहिए। जाति संहार पर सेमिनार करना और इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाना, सिर्फ ओबीसी या एससी/एसटी समुदाय की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। बल्कि जो भी इस देश से प्यार करता है, उसे न्याय और समानता के विचार से सहमत होना चाहिए। सभी को जाति संहार का समर्थन करना चाहिए क्योंकि जाति संहार का मतलब सिर्फ जातियों से नहीं गिना जा सकता है। इस राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया में, हम अब तक कहां तक पहुंचे हैं, हमने कितनी यात्रा की है और उस यात्रा में कितनी कठिनाइयां आई हैं, हम उन कठिनाइयों को कैसे दूर करेंगे, इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है। उस प्रोजेक्ट का नाम जाति संहार है। अगर कोई गरीब था, कमजोर था, वंचित था, शोषित था, तो उसे उसका हिस्सा देना जाति संहार कहलाता है। समानता और न्याय के विचार का नाम ‘जाति संहार’ है। आज हम इतिहास की बात न करके वर्तमान के बारे में बात करते हैं। 1931 तक जाति जनगणना होनी थी, क्योंकि उस समय भी बहुत से लोग रह गए थे। कारण कि शायद उन्हें पता नहीं था कि अगर वो अपनी जाति को ओबीसी में लिखवा लेंगे, तो उनका क्या फायदा होगा। आखिरी जनगणना 1931 में और फिर 1941 में हुई थी, लेकिन उसकी जनगणना संकलित नहीं हो सकी। वो आज भी पब्लिक डोमेन में नहीं है। जनगणना तो स्वतंत्र भारत में 1951 से होनी थी। मैं बस एक बात का उल्लेख करना चाहता हूँ – ऐसा नहीं था कि देश में कभी भी कोई ओबीसी आंदोलन नहीं हुआ।