तेजपाल सिंह ‘तेज ’ ::मेरे गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है
साहित्य : स्मृति लेख
मेरे गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है
-तेजपाल सिंह ‘तेज ’
(वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे आगे चलकर एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध हुये। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी कर्मचरियों की भर्ती के लिए बने बैंक प्राधिकरण के इंटरव्यू बोर्ड में सम्मिलित होने पर अनुसूचित जाति का कोटा पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उल्लेखनीय है कि तेजपाल जी अनेक बार इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य रहे।)
जब अचानक जमीन के पट्टे लिखने शुरू कर दिए
बात बहुत पुरानी है। शायद 1962/63 की होगी। संभवत: मैं सातवीं या आठवीं का छात्र रहा हूंगा। मेरे भाई ग्राम प्रधान थे। गरीबों को रिहायशी भूखंड आवंटित किए जा रहे थे। पटवारी पट्टे लिखने के कुछ पैसे वसूलता था। हुआ यूं कि एक दिन अचानक मैंने मुफ्त में पट्टे लिखने शुरू कर दिए। करना क्या था, पुराने पट्टे की नकल ही तो करनी थी। बस! आवंटन के प्रार्थी का नाम व पता ही तो बदलना था। गांव वाले लोग बड़े खुश हुए। बस! यहीं से सेवाभाव का कीड़ा मेरे दिमाग में घुस गया। 0000
जब दो रात बारात को रोकने की परंपरा को तोड़ दिया
मैं जब 16/17 साल का ही रहा हूंगा। मेरे भाई की लड़की की शादी होना तय हो गई थी। 60-70 के दशक में बारात दो रात और तीन दिन दुलहन के गाँव में रुका करती थी। गरीब/मजदूर लोग इस परंपरा को तोड़ने की बात तो करते थे किंतु आगे कौन आए ये साहस कोई नहीं कर पाता था। खैर! मैंने अपने भाई से बारात को केवलएक रात रोकने की बात की तो उत्तर में मुझे एक जोर का चाँटा मिला । साथ में यह ताना भी कि दो अक्षर क्या पढ़ गया, चला है हमें पढ़ाने...पता है गाँव वाले क्या कहेंगे । यही न कि खाना खिलाने से मुंह चुरा लिया। भाई के सामने बोलने का मुझमें साहस नही था। लेकिन भाई के चांटे ने मुझे और ताकत दे दी। अब चोराचोरी शादी में विचौली कर रहे व्यक्ति सी मिला । वो हमारे घर आते –जा-जाते रहते थी इसलिए वो मुझे अच्छे से जानते थे। एक दिन मौका पाकर मैं उनके घर पहुंच गया। दुआ- सलाम हुई...वो कहने लगे आज कैसे आया भई? अच्छी बात ये थी कि वो भी एक समाज सेवी होने का कर्म निभाने में अग्रीय थे। सो मैंने डर को साधते हुए उन से कहा कि आपसे एक निवेदन करने आया हूँ, लेकिन इसका भाई को पता नहीं चलना चाहिए नही तो वो मुझे मारेंगे। वो बोले कुछ बोल तो, नहीं बताउंगा तेरे भाई को। मैंने अपने मन की बात उन्हें खुलकर बता दी और एक झूठ भी बोला जो एक रात और दिन के खाने में पैसा लगेगा, वह दहेज के रूप में दे दिया जाएगा। वो मेरी ओर आंख फाड़ कर देखने लगे...बोले एक बुराई की तोड़्ने के साथ साथ दूस्ररी बुराई को बढ़ावा..वाह –भई – वाह्। वो हंसते हुए बोले सच बोल दहेज वाली बात झूठ बोल रहा है न? मैंने भी हंसकर उनकी बात बात मिलादी । अंत में उन्होंने बारात के एक रात ही रुकने की बात का समर्थन करते हुए चल ऐसा ही होगा। अब तू जाने या मैं। मुझे नहीं पता की लड़के वालों को कैसे इस बात के लिए
मनाया और बिचोला ने एक रात बारात रुकने के प्रस्ताव को लड़के वालों की ओर से मेरे भाई से सामने रखवादिया। अब भाई के सामने कोई विकल्प शेष नहीं रह गया। लड़के वालों की हां मैं हां मिलानी पड़ी। किंतु भाई ने मुझसे आंखें तरेड़ कर कहा, करली न अपने मन की।...अब झेलना गाँव वालों के ताने। हुआ भी यही, बारात जाने के बाद गांव वालों ने जाने क्या-क्या न कहा। लगभग दो साल बाद मैं दिल्ली चला आया। और जब पहली बार दिल्ली से गांव गया तो गांव के कुछ लोगों के मुंह से ये सुना कि भैया तुझे लोगों ने एक रात रोकने को लेकार क्या- क्या न कहा पर तूने किसी के सामने मुंह नहीं खोला। सच कहें तेरी इस शरारत ने बहुत से गांव वालों को कर्जा लेने से बचा लिया। यह सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया। और जो भी मेरे भाई को मुझसे शिकायत थे वो भी दूर हो गई।
उस समय मैं बारहवीं पास करके नौकरी की तलाश में दिल्ली आ चुका था। इस खुशी का आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से गांव लौट कर वापस गया था। अब परम्पराओं को तोड़ने की ओर मेरा साहस और बढ़ गया। अभी मेरी नौकरी लगा नहीं थी। हाँ! याद आया कि मैं अपने रिश्तेदारों को भी कम से कम 5-6 पृष्ठ के पत्र लिखा करता था। सो पत्र लिखने का मेरा एक पुराना शौक है। जब मैं गांव में रहता था, तब कभी-कभी गांव के लोग भी अपने ख़त लिखवाने आ जाया करते थे। इस प्रकार समाज की समस्याओं से मेरा नाता जुड़ता चला गया। 0000
मुझे तो दिल्ली आने के बाद ही मनुवादी दुराचरण देखने को मिला
उल्लेखनीय है कि कालेज में मुझे ही नहीं किसी को भी कोई जातीय दुराव देखने को नहीं मिला जबकि मेरे कालेज में तीन-चार अध्यापकों को छोड़कर शेष सभी अध्यापक ब्राह्मण थे लेकिन उनमें जाति भेद से इतर गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अजीव सी सद्भावना थी कि वे उनकी हर संभव मदद किया करते थे। सभी छात्र भी जाति भेद की भावना से परे एक साथ मिलकर रहते थे।
किंतु दिल्ली आने के बाद मनुवादी दुराचरण गहरे से देखने को मिला। यह बात अलग है कि मैं इसकी गिरफ्त से परे ही रहा। किंतु शासन-प्रशासन की घनी आबादी वाली बस्तियों के प्रति अनेक प्रकार की हो रही अनदेखी दिल को सालती रहती थी। सरकारी शिक्षा संस्थानों की दुर्दशा, बिजली की आँख-मिचौनी, बस्तियों की ऊबड़-खाबड़ गलियां होना जैसे आम बात थी और आज भी है। वैसे इस सब अव्यवस्था का कारण जनता का चुप रहकर मुश्किलों को झेलते रहना ही है ।
ऐसे में देश की न्यायपालिका और विधायिका जैसी संवैधानिक संस्थाएं आजकल जनता की अभिभावक होने की भूमिका का निर्वाह करने में कमजोर ही नहीं हो गई है बल्कि संज्ञा-शून्य हो गई हैं। गरीब और निरीह जनता के सामने दो ही विकल्प बचे थे। पहला विकल्प तो यही बनता है कि वे सरकारी/राजनीतिक झूठे और खोखले वायदों की बैसाखियां फेंक दें और मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने के लिए सामूहिक रूप से सड़कों पर निकल पड़े।
इसका दूसरा सरल सहज विकल्प यही बचता है कि वे ईश्वर/अल्लाह की दुआ पर ही जिंदा रहे। किंतु यहां सवाल पैदा होता है-‘क्या ये रास्ते राष्ट्रीय मूल्यों और राष्ट्र की विश्वव्यापीधर्मनिरपेक्ष छवि की रक्षा कर पाएंगे? मेरे विचार से यह कदापि व्यवहारिक नहीं है। अतः आवश्यक ही है कि सरकार खुलेपन से देश के अल्पसंख्यकों, दलित-पिछड़ों को समय रहते संवैधानिक सुरक्षा और हक प्रदान करे। समाज का प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग व समुदाय एक दूसरे के हितों और धार्मिक भावना को समझे।इसकेसंरक्षण के लिए अपने दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वाह करे।इससे न केवल मानवीय मूल्यों की रक्षा होगी, अपितु परस्पर सद्भाव के सहारे राष्ट्रीय एकता की मूल भावना को बल मिलेगा।
भ्रष्टाचार के मामले में एक प्रवृत्ति चारों तरफ देखने को मिलती है। आमतौर पर भ्रष्टाचार में रसूखदार और मालदार विशेष रूप लिप्त पाए जाते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार का दोष भूखे-नंगे मजदूरों और कमजोर वर्ग पर लगाया जाता है। भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि भूखे को क्या चाहिए? केवल दो वक्त रोटी, तन ढापने को कपड़ा औरसिर छिपाने के लिए झोंपड़ा जिसे मकान कह सकते हैं। अगर वह भ्रष्टाचार करेगा भी तो क्या-ज्यादा से ज्यादा रोटी की। इससे ज्यादा कुछ नहीं। वो समझता है कि उसकी चाहत ही उतनी है। जिसने पैसा कभी देखा ही नहीं, उसके लिए पैसे भूख बहुत ही छोटी होती है।
पैसे का मूल्य तो वो जानता है, जिसके पास पैसा होता है। जिसके पास पैसा कल भी था और आज भी है। वह इसका सं