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तेजपाल सिंह ‘तेज’ :: केन्द्र से परिधि तक : श्रृंखला – 16 (स्मृति लेख)

केन्द्र से परिधि तक : श्रृंखला – 16


गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है : तेजपाल सिंह ‘तेज’

केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की सोलहवीं किश्त है।


मैं और मेरे सपने......

बकौल अमृता प्रीतम, “अपने-अपने भीतर का सच तो अपने-अपने भीतर से पाना होता है और वह सच शब्दों में नहीं उभरता/उतरता, अनुभव से उतरता है।” इस माने में, मेरे 'शब्द-चित्रों' में स्वप्न के माध्यम से, मन के भाव सामने आए हैं, जो विशुद्ध रूप से ज़मीनी हैं। एक-दो घटनाओं को छोड़कर सभी घटनाएं, मेरे स्वप्न में उभरी सत्य कथाएं हैं; इसके अलावा और कुछ नहीं। पाठक इनमें अलग-अलग तरह से अर्थ तलाश सकते हैं और स्वभावतः तलाशने भी चाहिएं। किन्तु ऐसा करते समय मानवीय धरातल को सिरे से नकार देना, कदाचित तर्कसंगत नहीं होगा । हां! कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं, जो होने तक ही सीमित रह जाते हैं। किन्तु मैंने उन शब्दों को होठों तक सीमित नहीं जाना। उन शब्दों में जमीन को तलाशा है। भावना के कलेवर में ढाला है। तब ही तो मेरे  'शब्द-चित्र' हवा प्राप्त कर सके हैं।  कभी-कभी चीजों को समेटने की कोशिश में बहुत-सी चीजें खो जाती हैं। और इनकी खोज में, शेष चीजें भी जैसे बिखर - सी जाती हैं।

यह भी कि प्रत्येक मनुष्य स्वप्न देखता है... कुछ जागृत तो कुछ सुषुप्त अवस्था में। उम्र भी इसमें बाधा नहीं बनती अर्थात सपनों पर उम्र का कोई भी प्रभावनहीं पड़ता... स्वरूप पर पड़ता है। सपने कम उम्र में भी आते हैं, बड़ी उम्र में भी। जाग़्रत अवस्था में अक्सर सपने बुने जाते हैं। सुषुप्त अवस्था में या यूँ कहें अचेतन अवस्था में सपनों का रूप/स्वरूप जागृत अवस्था में बुने जाने वाले सपनों से नितांत अलग होते हैं....शायद समाज में सुषुप्त अवस्था में आने वाले सपने ही सही दायरे के सपने माने जाते हैं। किन्तु सपनों के संकेतों को समझना अहम बात होती है। मेरी समस्या भी यही रही है। सपनों के भाव कभी भी मुझे समझ नहीं आए। मेरे सपने ठीक वैसे ही हैं, जिनके संकेत मेरी पकड़ में नहीं आते/आए। वैसे भी मैं कोई पीर-फकीर नहीं, जो सपनों की ताबीर जान पाऊं। किंतु हमारी दैन्नदिनी कार्यकालापों और मानसिक अवस्था पर आधारित जैसे लगते हैं। फिर यह भी कि मेरे सपने वस्तुतः ऐसे दौर के सपने हैं  जिसमें प्रत्येक जगह खून के छींटे ही देखने को मिलते हैं।  शायद यही कारण है कि मेरे सपनों में हास और उजास नहीं नहीं उभरा। जबकि जरूरत तो हास-उजास की भी है।

ऐसे में यह विषय पाठकों के सोचने के लिए ही रह जाता है। एक बात और, हम-तुममें से कोई भी ऐसा नहीं है जो सपने न देखता हो। किन्तु ज्यादातर लोग सपनों के अर्थ तलाशते-तलाशते सपनों को ही भूल जाते हैं। लेकिन मैंने इन्हें कागज़ पर उतार दिया है। शायद मन में एक डर था कि कहीं ये खो ही न जाएं। इच्छाएं और आवश्यकताएं दो अलग-अलग तथ्य हैं। दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है। न कभी होगा। इच्छाएं और आवश्यकताएं चेतन/अचेतन दशा को दर्शाती हैं। सुना है कि अक्सर सपनों में दिशा-संकेत होता है । किन्तु मेरे सपनों में खोज का भाव ज्यादा रहा है। पता नहीं क्यूं ? सपने आकाश और पाताल की सीमा से परे होते हैं। मेरे भी हैं। किन्तु ये जमीन को छूते नज़र आते हैं। मैं बहुत-बार टूटा हूं और संभला भी। फिर भी मेरे सपनों ने मुझे कभी भी, किसी डगर पर, अपने से अलग नहीं किया। सच कहूं तो मेरे शब्द चित्र मेरी दैनिक वास्तविक दिनचर्या और उसी दिन के सुषुप्त अवस्था आए सपनों का संगम हैं। बतादूं मेरे ये शब्द चित्र मेरे साहित्यिक-कबाड़ से शीलबोधि द्वारा निकाले गए हैं। उन्होंने ही इन्हें सजाने संवारने की हिम्मत जुटाई है। अन्यथा ये शब्द-चित्र एक न एक दिन दफ़्न हो रहते। उनमें सें एक-दो शब्द-चित्र  आपसे रूबरू हैं।

Øरफ्ता-रफ्ता सारे बादल छंट गए....

आज करवा चौथ है। हल्की-सी बारिश के बाद छुटपुट बादल अभी भी आकाश में घिरे हैं। हवा में कुछ ठंडक है। महिलाएं बादलों को देखकर कुछ व्याकुल-सी नजर आ रही हैं। बार-बार छत पर आ-जा रही हैं। शायद सोच रही हैं कि यदि बादल न छटे तो चांद को जल कैसे चढ़ाएंगी। कहीं चांद के दर्शन के बिना पति की लम्बी उम्र और सेहत की उनकी दुआ-अर्चना अधूरी न रह जाए। दरअसल आज करवा चौथ है। हवा में अचानक तेजी आ गई और रफ्ता-रफ्ता सारे बादल छंट गए। अब चंद्रमा निकल आया है। सो महिलाएं अपना व्रत खोलने में जुट गई हैं। सजी-धजी औरतें बेशक आदर्श पत्नी का सच्चा रूप लग रही हैं। चंद्रमा की रोशनी भी धरती पर फैल गई है। हवा से ठंडक और बढ़ गई है। वैसे भी अक्तूबर का महीना है। रात तो अमूमन ठंडी हो ही जाती है। ठंड में चाय का असर भी ठंडा-सा पड़ने लगता है। फिर भी मैं रसोई में जाकर चाय बनाकर पी लेता हूं। घर में अकेला जो हूं। नींद का अभी अता-पता नहीं है। अब क्या करता? सिगरेट सुलगाकर टेलिविज़न देखने लगता हूं। आधा गाना ही देख-सुन पाया था कि चेनल बदल देता हूं। 'आज तक' चेनल पर समाचार आ रहे होते हैं। समाचार भी पूरे नहीं देख पाया कि नींद आने लगी। टेलिविज़न बंद किया और सो गया। सपने में देखता हूँ कि रात के धुंधलके में  चारों तरफ चहल-पहल है। बच्चे उछलने-कूदने में लगे हैं। शायद कहीं कोई उत्सव है। गाना-बजाना हो रहा है। अचानक भंयकर सन्नाटा छा जाता है। लोगों में अफरा-तफरी मच जाती है। सब अपने-अपने घरों में घुस जाते हैं। आज मैं घर पर अकेला हूँ सो छत पर घूम रहा हूँ। देखता हूं कि कुछ लोग सिर पर काली पट्टियां बांधे अजीबो-गरीब लोग में बस्ती में आ घुसते हैं। उनमें कुछ बच्चे-बच्चियां भी शामिल हैं। वे बस्ती वालों पर अचानक हमला बोल देते हैं। चार-चार, पांच-पांच लोगों की टोली घर-घर जाती और घर के मुखिया को बुलाती... उनके कपड़े उतारती... बेरहमी से उसके सीने पर क्रॉस जैसी कोई आकृति बनाती और हत्या कर देती। सन्नाटे को दंगाइयों की आवाज़ बराबर चीर रही थी। यह देख मैं इतना घबरा गया कि कुछ भी कहना-करना दूर की बात हो गई।

     लोग इतने डरे-सहमें हैं कि कुछ करना तो दूर, घर से बाहर आने का साहस भी नहीं पाते हैं। चांद निकल आता है। धरती पर चांदनी उतर आती है। हत्यारे अब किसी दानव की परछाईं-सी दिखने लगते हैं। लोग रात होने का लाभ उठाना चाहते हैं। भाग जाना या घर में छुपने का यत्न करना चाहते हैं। पर चांद की स्वच्छ चांदनी ऐसा कुछ भी नहीं करने देती। यदि कोई घर से बाहर निकलता भी तो हमलावर उसे घेर लेते। कुछ कहते-ना-सुनते । बस! चाकू-छुरी चलती और काम खत्म। हमलावर खुलकर हिंसा पर उतारू हैं। नेता-अभिनेता सब नदारद। किसी को भी जनता की चिंता नहीं। चौकीदार गायब। पुलिस थानों, चौकियों में टेलिफोन की घंटियां तो बजतीं, पर उठाता कोई नहीं।

    हमलावर मौका देखकर फिर आ धमकते हैं। चारों तरफ फिर हाहाकार मच जाता है। पुरुष अपने-अपने घरों की ओर दौड़ने लगते हैं। पर हैरत कि औरतें अपने मर्दों यानी पतियों को घर के अन्दर नहीं घुसने देतीं। कुछ कहती सुनी गईं कि क्या तेरे अकेले के लिए अपने बेटे-बेटियों को मरवा दूं...चल बाहर। कुछ ने अपने-अपने मर्दों को छुपाने का असफल प्रयास भी किया। किन्तु एकदम हताश और निसहाय लोग, एक खाली पड़े मकान में घुस जाते हैं। मैं भी उनमें शामिल हो जाता हूं। कमरे में एक दीवान और कुछ टूटी-फूटी कुर्सियां पड़ी होती हैं। प्रायः लोग अपनी आंख बंदकर दीवान व कुर्सियों पर बैठकर दरवाजा बंद कर लेते हैं। कुछ खड़े भी होते हैं और एक दूसरे का मुंह ताक रहे होते हैं। सबके चेहरे पर मौत का खौफ स्पष्ट झलक रहा था। कुछेक क्षण ही गुजरे होंगे कि हमलावर दरवाजा तोड़कर कमरे में घुस आते हैं। उनके हाथों में धारदार खंजर लगे हैं। उनमें से एक चीखकर हमें हाथ ऊपर करने को कहता है। अन्य हमलावर हमारी जेबों की तलाशी लेने लगते हैं। जिसकी जेब में जो मिलता, उसको देखते और एक कोने में फेंक देते। पैसे तक नहीं लिए उन्होंने। मेरी और मेरे एक अन्य मित्र की जेब में पाए  ‘प्रेस' लिखे पहचान पत्रों को वे अपने मुखिया को दिखाते हैं। मुखिया हमारी ओर खारिश भरी नजरों से देखता है और आंख तरेड़ कर हम दोनों को उंगली का इशारा कर कमरे से बाहर चले जाने को कहता है। हम दोनों अपने-अपने घर की ओर बढ़ते हैं। घबराहट में हम अपना घर नहीं ढूढ़ पाते हैं। मुड़कर देखा तो मेरा दूसरा साथी गायब होता है। मैं अपने को अकेला पा और घबरा जाता हूं। मुड़कर उस कमरे की ओर देखा तो अन्य लोगों को एक-एक कर बाहर निकालते और काम तमाम कर देते। मैं डरकर दौड़ना चाहता हूं। पर सब बेकार...मैं दौड़ ही नहीं पाता। लगा, कोई मुझे पीछे की ओर खींच रहा है। आकाश में सहसा बादल उमड़ आते हैं और हल्के से बरस पड़ते हैं। पानी की छुअन से लाशों से सहसा सडांध आने लगती है। हमलावर उनपर से ऐसे गुजरते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जैसे ही बारिश बंद होती है। हमलावर अपना काम कर लापता हो जाते हैं। अब लोग-लुगाई-बच्चे घरों से बाहर आ जाते हैं। औरतें अपने-अपने मर्दों की लाश तलाशने लगती हैं। सब-की-सब रो-पीट रहीं हैं। कुछ ने अपने हाथों की चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं। वे रोते-रोते चीखने-चिल्लाने लगती हैं कि अब वे किसके सहारे जिएंगी। कैसे पलेंगे अब उनके बाल-बच्चे।

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