
तेजपाल सिंह ‘तेज’ :: केन्द्र से परिधि तक : श्रृंखला – 12 (स्मृति लेख)
केन्द्र से परिधि तक : श्रृंखला – 12
गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है : तेजपाल सिंह ‘तेज’
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की बारहवीं किश्त है।
छेड़छाड़ भी तो प्रेम ही है कि नहीं….
मैं मानता हूँ कि प्रेम जीवन का एक ऐसा अवयव है जो किसी भी जीव में जन्म के साथ ही जन्म ले लेता है। उसकी समझ उसमें हो अथवा न हो किंतु मन-मस्तिष्क में प्रेम के अवयव विद्यमान होते ही हैं। तभी तो नवजात बालक माँ से तनिक दूर होने पर ही विचलित हो उठता है। इतना अघाध प्रेम होता है। कितनी अदभुत बात है, आम जीवन में हम सबने देखा है। हाँ! प्रेम के प्रकार पर प्रश्न जरूर हो सकते हैं....किंतु इससे सब से प्रेम की परिभाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कहने को कोई कुछ भी कहे......किसी को कुछ कहने से रोका तो नहीं जा सकता।
मैं यह भी मानता हूँ कि उम्र के उतार-चढ़ाव के हिसाब से प्रेम के अर्थ बदलते चले जाते हैं, इसमें कोई शंका नहीं की जानी चाहिए। बाल्य-काल और बचपन में मां-बाप और संतान के बीच का प्रेम, युवावस्था में उन्माद-भरा प्रेम और जवानी में स्त्री के प्रति मोह का ही नहीं, अपितु शारीरिक यौन आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रति प्रेम उमड़ता ही जाता है। यानि कि ये कहा जा सकता है कि उम्र के हर पड़ाव के प्रेम की परिभाषा निरंतर बदलती चली जाती है.... क्या इस तर्क को नकारा जा सकता है? अब मैं अपने लड़कपन के एक ऐसे प्रसंग पर बात करना चाहूँगा। जो प्रेम कहानी तो कही जा सकती है लेकिन है लड़कपर की अनजानी शरारतों में से एक, ऐसा मेरा मानना है।
यदि मैं ये कहूँ कि हमारे समय के आँगन में सब बच्चे..... फिर चाहे वो लड़के हों या फिर लड़कियाँ......मुक्तभाव से एक-दूसरे के साथ निश्छल भाव से खेलते-कूदते थे ...इस खेल-कूद में केवल और केवल शालीनता और भोलापन होता था.....अश्लीलता का भाव तो कतई नहीं होता था....किसी की सोच में ही अश्लीलता का भाव होता ही नहीं था। बड़े होते-होते ये खेल-कूद छेड़-छाड़ में बदलती चली जाती थी।... जीवन का यह एक व्यावहारिक पक्ष है.....केवल एक कथन-भर नहीं....।
शहरों की बात छोड़िए, देहातों में तो आज भी एक-दूसरे के घर आना-जाना बरकरार रहता है। भाभी बताती थी कि मैं अपने बचपन के अल्लहड़पन में आस-पड़ोस का इतना प्यारा था कि महीने के पन्द्रह दिन शाम का खाना अलग-अलग पड़ोसियों द्वारा खाना खिलाकर ही मुझे अपने घर जाने दिया जाता था। अब ऐसे में आस-पड़ोस के बच्चों के बीच कोई उछल-कूद/ छेड़-छाड़ न हो, ये संभव ही नहीं। जाहिर है मैं भी उस खेल-कूद/ छेड़-छाड़ में शामिल होता था।......
एक वाकया याद आ रहा है कि वारिशों के दिन थे..... मैं अपने घर के आगे वाले भाग में पड़े छप्पर में खाट बिचाए वारिश की बून्दों और औसारे से झड़ती औलातियों से पैरों के जरिए छेड़छाड़ न हो, ये संभव ही नहीं होता था। मैं भी इसी औलातियों से छेड़छाड़ में मस्त था ...अचानक पड़ोस की एक लड़की उधर से गुजर रही थी...पता नहीं कब उसे मेरा पाँव छू गया...... पड़ोस की एक बूढ़ी औरत ने उसे देख लिया... यद्यपि ये एक जानबूझ कर की गई घटना नहीं थी....किंतु उस महिला ने सारे गाँव मेरे द्वारा पड़ोस की उस लड़की को छेड़ने की घटना को ऐसी हवा दी कि मेरे और उस लड़की के घर वाले सकते में आ गए....सबका मानना था कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि तेजपाल किसी लड़की के साथ इस प्रकार का व्यवहार करे.... खैर! लड़की पक्ष के लोगों ने यह कहकर मामला शांत कर दिया कि वो लड़का हमारे यहाँ रोज आता-जाता है....ये अफवाह केवल पडोसियों के बीच दरार डालने का मामला समझकर लड़की के घर वालों नए उल्टे उस बुढ़िया की ही लानत-मलामत की। उसके बारे में किसी के द्वारा भी फैलाई गई इस प्रकार की घटना पर विश्वास नहीं जा सकता।
यहाँ इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि उस समय मैं शायद आठवीं/नौंवी कक्षा का छात्र रहा हूँगा...... मेरे माता-पिता की मृत्यु के बाद मेरे बीच वाले मामा- छिद्दा ने हमारी देख-रेख के करने के लिए हमारे घर पर ही रहना शुरु कर दिया था। इस अफवाह के बाद उन्होंने आठवीं/नौंवी कक्षा में पढ़ते हुए ही मेरी शादी कर देने का सुझाव दे डाला।.....मेरा भाई भी उनकी हाँ में हाँ मिलाता रहता था....उन्हें ये चिंता सताती थी कि लोग ये न कहें कि बिना माँ-बाप के लड़के की शादी करने की किसी को भी कोई चिंता नहीं है। ....और मैं था कि शादी करने के पक्ष में नहीं था। उक्त घटना की सूचना पाकर मेरे मामा जी ने एक तगड़ा सा तंज भी कसा – ‘ वैसे तो कहता है कि मैं शादी नहीं करूँगा.... वैसे आस-पड़ोस की लड़कियों को छेड़ता फिरता है।‘ ....अच्छा हुआ कि लड़की के घर वालों ने इस घटना को तूल नहीं दी और मामला शांत हो गया किंतु मुझे अनायास घटी ये दुर्घटना बराबर सालती रही.... और घटना के लगभग तीस-पेंतिस वर्ष बाद इस घटना को एक कविता में ढाल दिया जो वर्ष 2000 में प्रकाशित मेरी पुस्तक “पुश्तैनी पीड़ा” में “नाबालिग-प्रेम” शीर्षक से प्रकाशित है। मैं चाहूँगा कि आप भी उसे पढ़ें.....और मेरे लड़कपन की प्रकृति पर दृष्टिपात करें.....
“लड़कपन की/ वो बरसाती सांझ / अब भी / रह-रहके याद आती है/…याद आती है/ साथिन धनिया की ताज़गी/…ताज़गी/ शरारतों की / विचारों की/….शरारतें भी अक्सर/ जी का जंजाल बन जाती हैं / हो जाती हैं बदनाम/…काटने लगती हैं/ जेठ की दोपहरी की तरह/ जो एक सार्वभौम सत्य है/ …न शरारत है/ न विचार/…साथिन धनिया की शरारत भी/ एक ऐसा ही सच थी/ नितांत निष्पाप/ नितांत पवित्र/….ठीक मेरी शरारत की तरह / उस दिन सब कुछ/ अनायास ही घटा था/ कुदरती बरसात की तरह/…औलाती पड़ना / छान के घर का सच है/ …..और / सच है औलती में पाँव भिगोना/ मैंने भी औलाती में पाँव भिगोए थे/ पता नहीं धनिया कब आ गई / पता नहीं / उसे मेरा पाँव कब छू गया/ …दोनों निरे अनजान / जैसे बून्द का बून्द से टकराना / ….अफसोस!/ ये टकराहट / किसी की आँख में चुभ गई / …और बन गई हवा/ फैल गई समूचे गाँव में / ….सच पूछो तो ये अच्छा ही हुआ / आँधी आने से पहले ही छँट गई/ प्रेम चपटा होने से बच गया…।“
ऐसे थे मेरे कालेज के प्राचार्य रामाश्रय शर्मा जी.....
शायद 1976 की बात है। मेरे बड़े भाई ने अपने पुत्र- भूपेंद्र को आंठवी में पढ़ाने से रोक लिया। मेरे पास खबर आई। मैं गांव गया । कालेज गया और अपने भतीजे भूपेंद्र की पूरे साल की फीस जमा करके दिल्ली लौट आया। कुछ महीनों बाद भाई साहेब का पत्र आया जिसमे न जाने क्या-क्या न लिखा था उन्होंने। खैर! मैंने प्राचार्य रामाश्रय शर्मा जी को इस बाबत अंग्रेजी में एक पत्र लिख भेजा जिसमें भूपेंद्र की फीस का मसले का खुलासा किया था । फीस का मामला तो सुलट गया। अब मुझे प्राचार्य महोदय का वापसी पत्र मिला।उन्होंने अपने पत्र में लिखा था, “ बेटे! आपका पत्र पाकर मुझे बहुत अच्छा लगा कि अब मेरे बच्चे अंग्रेजी बोलना-लिखना सीख गए हैं, फिर भी मेरा अनुरोध है कि जब कभी भी किसी अपने कोपत्र लिखें तो अपनी ही भाषा में ही पत्र लिखें।“ इस संदेश को पाकर मेरा सिर शर्म के मारे जमीन में गढ़ गया और उनके संदेश को मन में गहरे तक उतार लिया। मैं समझता हूँ उनका यह संदेश केवल मेरे लिए न होकर सबके लिए है।
आखिर मै करता भी तो क्या करता....
Ø जिंदगी में कुछ सत्य ऐसे भी होते हैं, जो सपनों से ज्यादा कुछ और नहीं लगते। यहाँ उल्लिखित घटना उन दिनों की है, जब मैं भारतीय स्टेट बैंक की सेवा से सेवा निवृत्त नहीं हुआ था। उन दिनों मैं घर से आफिस और आफिस से घर लोकल ट्रेन से आया-जाया करता था। एक दिन मैं कार्यालय से शाम के लगभग साढ़े पांच बजे घर के लिए निकलताथा। बतादूं कि स