तेजपाल सिंह ‘तेज’ :: केन्द्र से परिधि तक : 5 गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है ’
संस्मरण : केन्द्र से परिधि तक : 5
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गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है : तेजपाल सिंह ‘तेज’
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की पाँचवीं किश्त है।
माँ : बनिया भी, कूटनितिज्ञ भी
अपने गाँव की चर्चा करते समय यदि मैं अपने घर-परिवार की बात न करूँ तो शायद ये उनके साथ नाइंसाफी होगी। जैसा की ऊपर बताया जा चुका है कि गाँव में चार-पाँच परिवार ही ऐसे थे जिनके पास खेती की जमीन नहीं थी। उनमें से एक घर हमारा भी था। पिता के देहांत के बाद घर में बड़े भाई ही अकेले कमाऊ व्यक्ति रह गए थे। पिता जी खेती-बाड़ी में मजदूरी करते थे तो बड़े भाई उस समय जमीन से पानी निकालने वाला हैंड-पम्प लगाया करते थे। भाई जो भी पैसे कमाकर लाते, माँ को सौंप देते थे। यहां यह बताना अतार्किक नहीं होगा कि मेरी माँ अनपढ़ होने के बावजूद पैसे के रख-रखाव के साथ-साथ ज़हनी तौर पर एक राजनेता के जैसी थी। कौन सा काम कब करना है, कैसे करना है, पैसा कब, कहाँ और कितना खर्च करना है, कितनी बचत करनी है, उसे वह बखूबी अंजाम देना जानती थी। माँ के गोरे-चिट्ठे छरेरे बदन और ठिगने कद को देखकर माँ की इस कैफियत के विषय में आसानी से कुछ जान लेना, किसी के लिए भी आसान नहीं था। गाँव में ही नहीं अपितु पड़ोसी कस्बे के जानकार भी माँ को फूफी या बहन के रिश्ते में देखते थे। सबसे अच्छे रसूख रखना उसे बहुत भाता था। एक खेती विहीन मजदूर की पत्नी होने के बावजूद घर में पाँच-छ्ह भैंस रखती थी। पड़ोसी कस्बे सठला के एक जमींदार की पंद्रह-बीस बीघा खेतीहर जमीन को लगान पर अथवा बटाई पर हमेशा लेकर काश्त करती थी।
माँ के समय में हमारे घर की आर्थिक स्थिति गाँव के हिसाब से ठीक-ठाक ही थी। उन दिनों घरों में अलमारी आदि जैसी कोई चीज नहीं होती थी। घर में अनाज रखने के किए कुठला/कोठी या फिर बड़े-बड़े घड़ों का प्रयोग किया जाता था। पैसे रखने के लिए भी यही साधन उत्तम समझे जाते थे। लेकिन माँ पैसे रखने के लिए अक्सर अनाज अथवा दालों से भरे हुए मटकों का प्रयोग किया करती थी। जब मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगी तो माँ अक्सर मुझसे ही पैसे रखवाने का काम करवाती थी। पैसे-धेले के मामले में घर में जहाँ मां का साम्राज्य था, वहीं घर की रसोई और घर की देखरेख का जिम्मा भाभी का था। बच्चों की देखभाल का जिम्मा भी भाभी का ही था। देखा तो यह भी गया कि अच्छे-अच्छे बड़े घरवाले लोग भी माँ के पास अनाज व उधार पैसे माँगने के लिए आया करते थे। माँ थी कि कोई माँगता पाँच सेर, तो देती थी तीन सेर। ऐसे ही पैसे के लेन देन के मामले में देखने को मिलता था। शादी-ब्याह के मौकों पर कई लोग माँ से पैसे उधार मांगा करते थे। यह भी कि माँ गाँव भर जवान लोगों के लिए ‘फूफी’ तो उमरदराज लोगों के लिए ‘बहन’ थी।
ऐसे मौके तो बहुत ही कम देखने को मिले जब माँ से किसी को पैसे देने के लिए मना न किया हो। नकारा लोग तो माँ के पास फटकते ही नहीं थे। होता यूँ था कि पैसे तो घर पर रखे होते थे किंतु वह मांगने वाले से हमेशा यही कहती थी कि अच्छा ठीक है भैया, लाला के पास जाऊंगी, पैसे मिल गए तो तुम्हें दे दूंगी। लाला के पास जाती तो सर्दी-गर्मी में मुझे साथ ले जाती थी। इस प्रकार माँ ने कभी भी किसी को न तो पूरे पैसे दिए और न ही शादी-ब्याह के समय से ज्यादा पहले। यह सब देखकर अनजाने में मुझे बड़ी हैरत होती थी। एक दिन मैंने माँ से उसके इस बर्ताव के विषय में पूछ ही लिया कि वह ऐसा किस लिए करती है। माँ ने कहा तू अभी बालक है, अभी नहीं समझेगा तू। सुन–अनाज माँगने वाले को यदि एक बार में ही मुंह-माँगा अनाज मिल जाएगा तो वो फिर दोबारा जल्दी थोड़े ही आएगा, समझा कि नहीं। और यदि पैसे माँगने वाले को मुंह-माँगे पैसे और वह भी काम के समय से ज्यादा पहले मिल जाएं तो वह फिजूल-खर्ची कर बैठेगा। इस तरह वह पैसे की फिजूल-खर्ची का हमेशा ध्यान रखती थी। इस माने में माँ न केवल एक बनिया थी अपितु सबके बुरे-भले का पूरा ख़याल रखती थी, यह कहना ग़लत न होगा। मेरे प्रति माँ का जो प्यार था वह था कि जब भैंस का दूध निकालती थी तो मुझे रोजाना भैंस के पास बिठाकर ताजा निकाला गया कच्चा दूध पिलाया करती थी।
माँ तो आखिर माँ होती है : तकरार भी ममता भी
एक घटना और याद आ रही है। मैं चौथी या पांचवीं कक्षा में रहा हूंगा कि एक दिन भाभी और माँ के बीच किसी बात को लेकर कुछ कहा सुनी हो गई। कहा सुनी इतनी बढ़ गई कि भाभी भाई पर ऐसी बिफरी कि भाई के पास भाभी का साथ देने के अलावा शायद कोई और रास्ता नहीं रह गया था। माँ को यह सब गवारा न हुआ। आखिर थी तो वह भी औरत उतर आई जमीन पर। गुस्से में भाई से बोली – ठीक है जोरू के गुलाम, तू मेरे से मर गया और मैं तेरे से। अपनी घरवाली को साथ लेकर इसी टैम निकल जा घर से बाहर। कहीं भी जा…बस! इसी टैम चला जा…इतना सुनकर भाई ने भाभी का हाथ पकड़ा और बढ़ने लगे दरवाजे की ओर…तू-तू मैं-मैं में कुछ और समय गुजर गया। यह सब देखकर मुझसे और कुछ तो बना नहीं, मैं जोर-जोर से रोने लगा और माँ की टांगों से चिपट गया। पर ये क्या, माँ ने मुझसे बड़े ही धीरे से कहा – मुझको छोड़.. भैया को पकड़। मैंने रोते हुए माँ के मुंह की ओर देखा और भाई को छोड़कर भाभी की टांगों जा चिपका और जोर-जोर से रोने लगा। कुछ देर रोता रहा। कभी माँ की ओर देखता तो कभी भाभी की ओर। आखिर भाभी टूट गई और मुझे बाहों में भरकर वह भी सुबकने लगी। हाथ में लगा सामान तुरंत नीचे रख दिया और मुझे लेकर अंदर कोठे (कमरे) में जा बैठी। इस प्रकार माँ और भाभी के बीच की रार अंजाम को पहुंच गई। तूफान के बाद वाली शांति घर भर में पसर गई। आज जब मैं माँ के इस व्यवहार के बारे में सोचता हूँ तो केवल सोचता ही रह जाता हूँ। माँ बच्चों से कितनी ही भी खफा हो जाए किंतु उसके मन में ममता का जो सागर होता है, वह कभी सूख नहीं पाता।
भाभी, मेरी भाभी कम, माँ ज्यादा थी
आज जब मेरे संगी-साथी इस सत्य को जान गए हैं कि मेरे पिता का देहांत मेरे बचपन में ही हो गया था। माँ थी कि उसका ध्यान बस भैंसों और खेतीबाड़ी पर ज्यादा रहता था। चौधड़ात उसके डीएनए में थी। गाँव के झगड़े निपटाने में उसका समय बीतता था। भाई अपने काम-धाम के बाद ग्राम-प्रधान होने के कारण प्रधानी के काम में लगे रहते थे। इसलिए किंतु मैं यह भी सोचता हूँ कि कोई न कोई तो इस प्रश्न के केन्द्र में होता ही है, जिसकी चर्चा करना ही चाहिए। तो वो थी मेरी भाभी..उसके एहसान अदायगी का मुझे इससे अच्छा कोई माध्यम नजर नहीं आ रहा है कि मैं उसके मेरे प्रति लगाव को एक दो उदाहरण देकर आप सबके सामने रखूँ…मेरे इस लिखे का भाभी को तो कोई खबर नहीं होगी किन्तु इसे पढ़कर शायद मेरे मनत्व से आप परिचित हो जाएंगे।
Ø एक समय ऐसा आया कि मुझे अजीब से सपने आना शुरू हो गए।..अक्सर ही ऐसा होता था कि थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके जैसे ही नींद में घिरता… यानी सोता तो छोटे-बड़े सपनों का आना एक सहज अवस्था होती थी। मैं घर के अगले भाग में बनी दुकड़िया में अक्सर अकेला ही सोता था। भाई-भाभी और उनके बच्चे अन्दर वाले कोठों (कमरों) में सोते थे। अब मैं जैसे-तैसे बारहवीं कक्षा में आ गया था। रात को देर तक पढ़ना मेरा नित्य कर्म बन गया था। कई बार पढ़ते-पढ़ते आँखों में नींद भर आती तो दीया बन्द करता और सो जाता। कुछ घरों में दीए की जगह लालटेन ने ले ली थी किंतु मेरे पास अभी भी दीया ही था। एक दिन की बात है कि मैं पढ़ते-पढ़ते थक-हारकर दुकड़िया का दरवाजा बन्द किए बगैर ही सो गया, दीया भी जलता ही रह गया। सोया ही थी कि मैं स्वप्न की चपेट में आ गया। स्वप्न में एक धवल-वस्त्रा रूपसी उम्र में मुझसे काफी बड़ी, मेरे सिरहाने ऐसे आकर खड़ी हो गई कि जैसे मेरी और उसकी बहुत पुरानी दोस्ती हो। उसका बर्ताव प्रौढ़ अवस्था वाला ही लग रहा था, सिरहाने से झुक कर उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया और कहा, ‘अब तुझे मेरे साथ चलना होगा।’ इतना कहकर वो अचानक गायब हो गई, मेरी नींद भी टूट गई। खाट में पड़ा– पड़ा जाने क्या-क्या सोचता रहा। कभी-कभी इधर-उधर ताक-झाँक करके जैसे उसकी तलाश करता, फिर न जाने कब नींद आ गई और मैं सूरज के उगने पर ही उठा।
Ø ये ग्यारह जनवरी 1968 का दिन था। जब सवेरे उठा तो पाया कि मुझे बड़े जोरों का बुखार चढ़ा हुआ था शायद सपने से घबरा कर। अचानक भाभी दुकड़िया में आई और बोली आज उठना नहीं क्या। मैंने भाभी की ओर मुँह घुमाते हुए उसे देखा…वो मेरा चढ़ा हुआ चेहरा देखकर सकते में आ गई। उसने मेरे माथे पर हाथ रखा और सन्न रह गई। तेज गर्म माथा देखकर..घबरा गई और भरी हुई आँखें लेकर मुझे डांटने लगी, ‘तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं मेरी तबियत खराब है।’ वो मुझे डांटे ही जा रही थी और मैं मूक बना उसका चेहरा देखकर खुद घबरा रहा था। कहता भी तो क्या कहता, मुझे खुद ही कुछ पता नहीं था। भाभी ने मुझे हाथ पकड़कर बिठाया और मेरे पास ही बैठकर जाने क्या-क्या विलाप किए जा रही थी।
Ø दरअसल भाभी मेरी कुछ ज्यादा ही चिंता किया करती थी। वो मेरी भाभी कम और माँ ज्यादा थी। भाभी के मुझसे पांच-छह महीने बड़ी एक लड़की थी। मुझे बताया गया कि जब मैं बहुत छोटा था तो माँ की एवज भाभी ही मुझे स्तनपान करा दिया करती थी। इस पर किसी को कोई एतराज भी नहीं होता था। मेरे स्कूल आने-जाने का ख़याल करना भी भाभी का ही होता था। भाभी के कोई लड़का नहीं था। वह मुझे ही बेटे के जैसा प्यार देती थी। मेरे हक में जो बात रही वो थी कि भाभी ने ये सारी कहानी बड़े भाई को पूरा दिन गुजर जाने के बाद दी। वैसे वो उन्हें समय से बता भी देती तो उन पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। उन्हें ताश खेलने और नेतागीरी करने के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं था