
तेजपाल सिंह ‘तेज’ : झीने आँचल की छाया में (तेजपाल सिंह ‘तेज’ की चयनित ग़जलें)
तेजपाल सिंह ‘तेज’ की चयनित ग़जलें
झीने आँचल की छाया में
संपादन
हरेराम नेमा समीप
कॉपीराइट :-तेजपाल सिंह ‘तेज’
वेबसाइट :- www.bookrivers.com
प्रकाशक ईमेल :-publish@bookrivers.com
प्रकाशन वर्ष :-2023
मूल्य:- 200 /-रूपये
ISBN:- 978-93-5842-716-5
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झीने आँचल की छाया में
तेजपाल सिंह ‘तेज’
तेजपाल सिंह ‘तेज’ की ग़जलों पर विद्वानों की सम्मतियाँ
‘टी.पी.सिंह बागी तेवर का शायर है, वे आने वाले दिनों में छिपे रह गए ममार्थ को खोजकर कुछ और भी दिशा-परक कहेंगे। इनकी गजले अक्सर सच बोलती है, जो पेस्तर कड़वा और दर्द भरा हुआ करता है। ये नई जमीन परिवार के सदस्य सरीखे हैं।
तेजपाल सिंह 'तेज' की ग़ज़लों का मुख्य विषय आदमी है। वह आदमी के दुख-दर्द को बहुत शिद्दत से महसूस करते हैं और बहुत खूबसूरती से ग़ज़ल के पैकर में ढालकर पेश करने का हुनर जानते हैं। आज की मशीनी दुनिया में जिस तरह प्रेम, सद्भावना दया और मेल-मिलाप का खून हो रहा है, उसे देखकर वह खामोश नहीं रहते बल्कि ग़ज़लों के माध्यम से इसके खिलाफ इस तरह आवाज़ उठाते हैं कि यह हर दर्दमंद इंसान की आवाज़ बन जाती है। इस तरह तेजपाल सिंह 'तेज' की ग़ज़लों का संग्रह' दृष्टिकोण' हर संवेदनशील इंसान का दृष्टिकोण बन जाता है"।
मि ‘तेजपाल सिंह ‘तेज’ आसान भाषा में भावार्थ की ऐसी दुनिया पेश करते हैं, जिसमें आजकल के हालात की सच्चाई अपने असली रूप में सामने आ जाती है। वह एक आदर्श संसार का सपना देखते हैं, जहाँ हर तरफ भाईचारा, प्रेम, और सद्भावना पायी जाती है। लेकिन वास्तविक संसार में जब यह सपना बिखरने लगता है, तो उनके लहजे में कटाक्ष हावी हो जाता है। यह निष्पक्ष लहजे को प्रभावकारी बनाने में मदद ही देता है, लेकिन इस लहजे से ग़ज़ल के नाजुक बदन पर कोई खरोंच नहीं आने पाती।तेजपाल की ग़ज़लों का मुख्य विषय आदमी है। वह आदमी के दुःख दर्द को बहुत शिद्दत से महसूस करते हैं और बहुत खूबसूरती से ग़ज़ल के पैकर में ढालकर पेश करने का हुनर भी जानते हैं। आज की मशीनी दुनिया में जिस तरह प्रेम, सद्भावना, दया और मेलमिलाप का खून हो रहा है, उसे देखकर वह खामोश नहीं रहते बल्कि ग़ज़लों के माध्यम से इसके खिलाफ इस तरह आवाज़ उठाते हैं कि यह हर दर्दमंद इंसान की आवाज़ बन जाती है।’
’शाहिद सिद्दीकी
संपादक, नई ज़मीन व वरिष्ठ राजनेता, नई दिल्ली
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“मुस्कराहट दर्द से भरी है या दर्द को मुस्कराहट छिपाने का प्रयास कर रही है ? बात के पीछे व्यंग्य है या व्यंग्य की हीबात है ? सूई को हाथ में अपना तन बेधने के लिए पकड़ रखा है या उसे दूसरों के बदन में चुभोने के लिए ? इन सवालों का जवाब तो 'तेज' को देख, सुन या पढ़कर दे पाना मुश्किल है, पर उसे देख, सुन या पढ़कर ऐसे सवाल आपके मन में उठेंगे ज़रूर।“
ए०पी०एन० पंकज
सेवा-निवृत्त महाप्रबंधक, भारतीय स्टेट बैक
वरिष्ठ गीतकार एवं कथाकार
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‘‘तेजपाल सिंह ‘तेज’ की दलित मर्म छूती हुई इन ग़ज़लों में जिन्दगी के संघर्षों की कड़वाहट मिलती है। साथ ही सामाजिक परिवर्तन की प्यास भी।’’
मोहनदास नैमिशराय
वरिष्ठ साहित्यकार
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“यह ग़ज़लकार बाजारवाद और उसकी बिकाऊ वृत्ति, राजनीतिक तिकड़मबाजी, समाज के ठेकदारों की ‘नूरा कुश्ती’, नौकरवर्ग की लालफीताशाही, मानवीय संवेदनाओं का यांत्रिकीकरण, सांप्रदायिकता, अलगाववाद, धर्म के नाम पर दंगे-फसाद, भ्रूण हत्या, स्त्री, दलित शोषण, प्रदूषण, मँहगाई, भ्रष्टाचार, बेकारी, झूठ-फरेब, फैशन, प्रेम के नाम पर हो रहे शरीर प्रदर्षन आदि त्रासदियों, विसंगतियों को अभिव्यक्त कर रहे हैं। आज की स्थिति विपरीत से विपरीत बनती जा रही है। जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं, वैसे ही वह अपनी असली औकात पर उतर आते हैं और लोगों से गुण्डों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। आज यहाँ नेता ही डाकू और डाकू ही नेता है जो मानवता के सीने पर ‘मजहब का भूचालश् मचा रहे हैं। निर्बल किसान, मजदूर, औरत आदि को अपनी ईच्छाओं की पूर्ति का साधन मान रहे है।’’
“शती का यह ग़ज़लकार बाजारवाद और उसकी बिकाऊ वृत्ति, राजनीतिक तिकड़मबाजी, समाज के ठेकदारों की 'नूरा कुश्ती', नौकरवर्ग की लालफीताशाही, मानवीय संवेदनाओं का यांत्रिकीकरण, प्रदायिकता, अलगाववाद, धर्म के नाम पर दंगे-फसाद, भ्रूण हत्या, स्त्री, दलित शोषण, प्रदूषण, मँहगाई, भ्रष्टाचार, बेकारी, झूठ-फरेब, फैशन, प्रेम के नाम पर हो रहे शरीर प्रदर्शन आदि त्रासदियों, विसंगतियों को अभिव्यक्त कर रहे हैं।
"सारांशत ग़ज़ल की जिस परम्परा को दुष्यंत ने पाला-पोसा, उसकी अगली कड़ी के ग़ज़लकारों में तेजपाल सिंह 'तेज़' का नाम लेना सर्वथा उपयुक्त है।"
प्रो. गोरख काकड़े
इक्कीसवींशती की हिंदी ग़ज़ल : स्थिति एवं संभावनाएँ”
हिंदी विभाग, सरस्वती भुवन महाविद्यालय, औरंगाबाद
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‘युवा ग़ज़लकार तेजपाल सिंह ‘तेज’ का ग़ज़ल-संग्रह “दृष्टिकोण”अपने कथ्य और भाषा शैली के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। तेजपाल सिंह ने नई जमीन पर ग़ज़लें कहने की कोशिश की है। उनकी इन ग़ज़लों में मौजूदा व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, क्रोध है, चीख और चिल्लाहट है। वस्तुतः संघर्षधर्मी रहे तेजपाल सिंह की निजी जिन्दगी की तरह उनकी ग़ज़लों में आम आदमी की जिन्दगी के संघर्षों की कड़वाहट भी है, और सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद भी है। और सबसे बड़ी विशेषता इन ग़ज़लों में ग़ज़ल के मिज़ाज और गीतों की रवानगी दोनों का एक सफल समन्वय है।’’
जगदीश चंद्रिकेश
उप-संपादक, कादंबनी, हिंदुस्तान टाइम्स
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‘‘समृद्ध हिन्दी ग़ज़लकारों की परम्परा में एक नया नाम बागी तेवर के धनी तेजपाल सिंह ‘तेज’ का जुड़ता है, उनकी ग़जलें एक नया संवेदनात्मक आक्रोश लेकरआती हैं। टी पी सिंह 'तेज' निःसंकोच आलोचना के धनी मूर्धन्य गजलकार साहित्यकार 'कवि' लेखक हैं। वर्तमान समय के लेखकों में आपसी द्वेष भाव व मिलनसार ना होना तथा संवेदनशीलता के अभाव में संवादहीनता का होना दलित साहित्य आंदोलन के लिए एक भयावह संदेह की दृष्टि उत्पन्न करती है। टी पी सिंह में यह भाव देखने को नहीं मिलता ।
डॉ . कुसुम वियोगी
वरिष्ठ कवि एवं साहित्यकार
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“तेज ने इंसानी जज्बात को बखूबी महसूस करते हुए कागज को रोशनाई दी है। युग की आवाज़ को वे पहचान गए हैं।उन्होंने आज की कशमकश को अपनी शायरी में पिरो दिया है। आम आदमी का दर्द ही जैसे उनकी ग़ज़ल है। ग़ज़ल की रिवायत रूमानी थी, आशिकाना थी, शराबी थी, किन्तु तेजपाल सिंह की ग़ज़लें सियासी जामा पहनकर संघर्षों के साथ निर्माण को तलाशती हैं।’’
जावेद अख्तर
सेवानिवृत्त महाप्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक
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आज की ग़ज़ल का निर्वाह भावों की संकरी गली से नहीं जीवन-मूल्यों, विषमताओं और दैनिक संघर्षों के खुले मैदान में है। ग़ज़ल अब इस तंग गली से निकलकर मानवीय संवेदनाओं खेल रही है। ग़ज़ल अब महबूब से बतियाने तक सीमित नहीं है, अब वह गेसू, रुखसार और महबूब के दिलकश तिल की बनी सीमाओं से बाहर निकल, जीवन की दैनिक भट्टी में जलते जन साधारण के जख्मों को सहलाती है, उन पर मरहम लगाती है; बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि जख्मों को कुरेद नए सिरे से भरती है। रोटी से लेकर बेटी तक के यथार्थ प्रश्नों को सुलझाती है। आज की ग़ज़ल शाम के धुंधलके में मात्र सुरमई रंग ही नहीं तलाशती बल्कि जीवन की पथरीली सड़कों पर कर्कश धूप में भागने का साहस भी रखती है। आंखों में रंगीन सपने ही नहीं भरती, सियाह रात की ओर भी इंगित करती है। आज की ग़ज़ल जीवन के उस यथार्थ की बात करती है जहां खोटे सिक्के पिघलकर राख हो जाया करते हैं। आज की ग़ज़ल वह प्रकाश पुंज है जो अंतर को उद्भासित करती है, आलोकित करती है और यथार्थ के रूबरू हो आंखें मिलाने की हिम्मत रखती है। अव्यवस्था को चिंदी-चिंदी कर व्यवस्था के ताने-बाने बुनती है । इन अर्थों में ‘तेजपाल की ग़ज़लें अन्य विशेषताओं के साथ-साथ मन-मस्तिष्क को झकझोरती हैं। जीवन के यथार्थमयी तिक्त-मधुर अनुभवों को पूरी शिद्दत के साथ सम्प्रेषित करती हैं। कठोर यथार्थ का पाठक तक यह सम्प्रेषण इन ग़ज़लों की अपनी ही विशेषता है।’’
कन्हैयालाल बालू
सेवा निवृत्त प्रधानाचार्य केंद्रीय विद्यालय
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जितना मैंने तेजपाल सिंह 'तेज' को उनके साहित्य कर्म की निजता के आधार पर जाना-पहचाना है, उसके आधार पर मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि वे एक साहित्यकार के रूप में सामाजिक यथार्थ के चितेरे, जग-जीवन के व्याख्याता और व्यंग्य के साधक तो हैं ही, साथ ही उनके काव्य में मानव-जीवन की अनुपम छवियां देखने को मिलती हैं। उन्होंने मानव-जीवन के यथार्थ का चित्रण किया है। उनका काव्य उनके अनुभव से प्रेरित है। वे एक ऐसे स्वस्थ समाज का निर्माण होते देखना चाहते हैं, जिसमें सभी सुखी हों, कुत्सित परंपराएं, रूढ़ियां, कुरीतियां, शोषण, अन्याय-अत्याचार और आडंबर न हों। तेजपाल सिंह 'तेज' का दृष्टिकोण मानवतावादी है। उन्होंने किसी भी रूप में पीड़ा भोगने वाले व्यक्ति के प्रति सहानुभूति का भाव ही नहीं दर्शाया, अपितु संवेदना को महत्ता प्रदान की है। साहित्यकार के लिए संवेदनशील होना पहला और आवश्यक है। तेजपाल सिंह 'तेज' संवेदनशील होने के साथ-साथ एक जागरूक और जुझारू नागरिक भी हैं। यह बात उनकी ग़ज़लों, गीतों, कविताओं और गद्य साहित्य से स्पष्ट होती है।
डा. देवी प्रसाद
डीडीयू शेखावटी विश्वविद्यालय, सीकर (राज.)
9414777031
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मेरे लिए सिंह साहब, अपने पिता के समान आदरणीय हैं। आप सिर्फ एक सच्चे लेखक ही नहीं अपितु एक अच्छे रहनुमा भी है, जो ऊंगली पकड़ के राह दिखाने का काम करते है। मेरी दोनों किताबों 'रेतीली सांझ' व 'औरत एक बोनसाई' के छपने का श्रेय तेजपाल जी को ही जाता है। अगर आप न होते तो शायद मेरी रचनाएं भी डायरी के जर्द पन्नों में ही सिमट कर रह जाती। आपकी प्रेरणा व समयानुसार निर्देशन ने मुझ में सदैव नई ऊर्जा का संचार करवाया व मेरे साहित्यिक मार्ग को प्रशस्तकिया। उनके सेवा निवृत्त होने के बाद बरसों से सिंह साहब से मिलना नहीं हो पाया, पर उनके बारे में लिखना एक सुखद अनुभूति है। मेरे पास अशेष स्मृतियां हैं पर शब्द सीमा है इसलिए मुझे विराम देना होगा। मैं तेजपाल सिंह जी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करती हूं।
सुनीता खोखा
प्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक
99100957138
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संपादकीय
वरिष्ठ ग़ज़लकार तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने समाज के दलित, वंचित और उपेक्षित वर्ग के सुख-दुख, उनकी संवेदना और आत्मसंघर्ष को अपनी ग़ज़ल से न केवल अभिव्यक्ति दी है, बल्कि ग़ज़ल के माध्यम से जन सामान्य को जाग्रत करने का भी बीड़ा उठाया है। आज देश के अम्बेडकरवादी आंदोलन के विचारकों और साहित्यकारों में तेजपाल सिंह ‘तेज’ का प्रमुख नाम है।
अपनी लेखन-यात्रा में उनके दो कविता संग्रह, एक शब्द चित्र, पांच बाल गीत संग्रह, एक गीत संग्रह सात वैचारिक/ प्रतिक्रियात्मक़ निबंध संग्रह और पांच ग़ज़ल संग्रह-दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है , गुजरा हूँ जिधर से, हादसों के दौर में तथा ‘तूफां की ज़द में’ प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त अनेक काव्य संकलनों का उन्होंने सम्पादन किया है। उन्होंने अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे- ‘अपेक्षा’ तथा ‘अधिकार दर्पण’ आदि का नियमित सम्पादन व प्रकाशन किया है। उन्होंने एक टी वी सीरियल का पटकथा लेखन और निर्देशन भी किया है। उन्हें ‘बालगीत’ सहित अनेक पुस्तकों पर दिल्ली साहित्य अकादमी का ‘बाल साहित्य पुरस्कार’ तथा ‘साहित्यकार सम्मान’ प्रदान किया गया है। इनकी एक बालगीत की पुस्तक स्कूली शिक्षा हेतु प्रमाणित है-‘तन्हा जिन्दगी’ नाम से उनकी ग़ज़लों की एक कैसेट भी जारी हुई है।
दुष्यंत कुमार से प्रारम्भ हिन्दी गजल की जनधर्मी परम्परा के वे वरिष्ठ गजलकार हैं. हिन्दी ग़ज़ल में दलित चेतना की अभिव्यक्ति उनकी गजलों में पूरी शिद्दत से हुई है. उनकी बेबाक और बेखौफ ग़ज़लेंजहाँ व्यवस्था की पोल खोलती हैं वहीं सामाजिक अन्याय और अमानवीयता के विरुद्ध जनचेतना की पैरवी करती हैं। ये गजलें जीवन की विसंगतियों और उसके लिए हो रहे संघर्ष दोनों का बखूबी चित्रण करती हैं।
तेजपाल ‘तेज’ की ग़ज़लों का मुख्य विषय समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ा आम आदमी का जीवन है, सर्वहारा का आत्मसंघर्ष है। वे इस आम आदमी के दुःख-दर्द को बहुत शिद्दत से महसूस करते हैं और उसे अपनी गजल की आवाज़ बनाते हैं। उनकी गजलें, व्यवस्थागत विसंगतियों और विद्रूपताओं के प्रति उनके प्रखर प्रतिरोधी तेवर को और मुखर करती नजर आती हैं. यद्धपि गजल के शिल्प पर उनका कथ्य हावी रहता है और कहीं-कहीं शेर बहर से बाहर हो जाता है परन्तु उनके यहाँ ऐसे भी अनेक शेर हैं, जो अपने कथ्य और भाषा-शैली के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मिसाल के तौर पर ये शेर गौरतलब हैं-
आंसू पी कर जीने का यूं काम किया,
हमने जैसे अपना काम तमाम किया।
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खोल दो मुठ्ठी उठालोतीर, तरकश हाथ में,
‘तेज’ ये हिंसा नहीं, एक क्रांतिमय अभियान है।
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कौन दिशा में उड़े चिरैया,
अंबर-अंबर आग पली है।
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झीने आँचल की छाया में,
पीना भी अब क्या पीना है।
अतः कहा जा सकता है कि समकालीन हिन्दी गजल के विकास में तेजपाल सिंह ‘तेज’ की गजलों का महत्वपूर्ण योगदान है. चूंकि अभी वे सतत रचनारत हैं, इसलिए उनसे और बेहतर गजलों की उम्मीद की जा सकती है।
-हरेराम नेमा समीप
मोबा. 9871691313
मेरा मानना है कि
कोई भी रचनाकार समय, समाज और परिवेश/ परिस्थिति के परे होकर कोई रचना नहीं कर सकता। यह संभव ही नहीं लगता, क्योंकि वह जैसा देखता, भोगता है, उसके भीतर और बाहर के घात-प्रतिघात और उनसे उबरने के लिए संघर्ष आदि की छाया रचनाकार के मन-मस्तिष्क पर सदैव पड़ती है। कहना न होगा कि किसी भी रचनाकार को संघर्षशीलता, जुझारुपन, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों के प्रति चेतना और दिशाबोध समय, समाज और परिवेश/ परिस्थिति के भीतर-बाहर के घात-प्रतिघातों से ही मिलते हैं।
यह भी कि कविता, कविता की शर्तों पर नहीं, अपितु जीवन की शर्तों पर ही रची जाती है। ठीक यही तर्क ग़ज़ल पर भी लागू होता है। कारण कि ग़जल भी कविता का ही अलग शिल्प है। वैसे भी अब ग़ज़ल भी शब्दों और परंपरागत शर्तों की दासी नहीं रह गई है। यह भी नए-नए रूप बदलने लगी है। आम-आदमी के इतनी करीब आ गई है कि जिन्दगी और मौत का अंतर भी अब इसे समझ में आने लगा है। यदि ये कहूँ कि शायरी भी बड़ी अजीब चीज है, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि शायरी में कभी-कभी जिन्दगी और मौत, या यूँ कहें कि शब्द और खामोशी एक दूसरे में ऐसे उलझकर रह जाते हैं | यह लगने लगता है कि कभी शब्दों को खामोशी तो कभी खामोशी को शब्द मिल जाते हैं।
प्रस्तुत ग़ज़ल-संग्रह में संकलित अधिकांश ग़ज़लों में बनी सोच जीवन और मौत के संबंधों की गहराई की एक बानगी भर हैं। सच तो ये है कि मैंनें जीवन में जो भी व जितने भी कड़वे, तीखे या फिर मीठे घूँट पिए हैं, कितने ही आँसू , कितनी ही मुस्कराहटें मेरी आँखों में और मेरे अधरों पर उठी बैठी हैं, एक ग़ज़ल ही है जिसने हर पल कभी लय बनकर, कभी स्वर बनकर तो कभी केवल शब्द बनकर मेरी हर पीड़ा को प्राणवान किया है। इतना ही नहीं, मैं जितने भी भौतिक जीवन और यदा-कदा आध्यात्मिक अनुभवों से गुजरता रहा, मैं जो भी सुख एवं सुख की पीड़ा के नए-नए अनुभव करता रहा वो मेरी ग़जलों में उभर कर आए हैं। ऐसे भी बहुत से रंग रहे, जिनके दर्शन तक भी नहीं हुए। किंतु मैं उसे भी अपनी भाव-प्रवणता अथवा कल्पना के जरिए अपनी अभिव्यक्ति में उतारता रहा। कभी कहकर, कभी गुनगुनाकर, या फिर बोलकर तो कभी कागज पर उतार कर। इस सबके चलते मैंने जाना कि जब तक सृष्टि है, तब तक अनुभूति है और जब तक अनुभूति है, तब तक अभिव्यक्ति है। लगता है कि पीड़ा की अभिव्यक्ति में भी सुख है। सुख की अभिव्यक्ति में तो सुख है ही – इसे दोहराने से सुख फैलता है, सुख का कद और बड़ा होता जाता है।
यह भी कि शायरी करना अपने आप में एक कमाल है, किन्तु मैं उस कमाल से परिचित नहीं। वैसे भी किसी विषय की परिभाषा व गुण-धर्म देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप प्रायः बदलते रहते हैं। इस मायने में, मैं एक अनगढ़ हूँ। सो मेरी ग़ज़लों में भी, आम जीवन से उत्पन्न मेरी अनुभूतियों की फकीराना अंदाज़ में सहज अभिव्यक्ति है,और कुछ भी नहीं। और यह भी कि मेरी गजलें शब्दपुंजों का नहीं वरन मेरे भीतर की बात का प्रतिनिधित्व करती हैं । यथार्थ की दुनिया के आसपास के हवा में सांस लेती हैं। काल्पनिक एवं हवाबाज दुनिया से परे की ग़ज़लें हैं। अमानवीय व्यवहार को बिना रोक-टोक/झिझक के न केवल उजागर करती हैं अपितु उसमें परिवर्तन हेतु साहस जुटाने का आह्वान भी करती हैं। उस भाषा में लिखी गई हैं जिसमें मैं स्वयं बोलता हूँ। बाज मौकों पर उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग स्वभाविक रूप में उभर कर आया है या फिर जिस रूप में वे मेरी भाषा में मिलजुल गए हैं। हर मायने में एक आजाद शायरी है। हाँ! कहीं-कहीं पर, मानव—संबंधों के मूल आधार की तलाश में निष्पक्ष कटाक्ष अवश्य करती दिखती है। शब्दार्थ की अपेक्षा भावार्थ पर आधारित अव्लोकन का आग्रह करती हैं, क्योंकि मेरी ग़ज़लें किसी मठ में प्राप्त शिक्षा-दीक्षा की देन नहीं हैं, वरन एक भोगा गया, देखा गया अथवा महसूस किया गया तथार्थ है। एक बात और कि मैंने इन ग़जलों को बार-बार देखने और निखारने का प्रयत्न किया है। किंतु फिर भी ठेठ ग़जल प्रेमियों को कोई तकलीफ पहुँचे तो कृपया क्षमा करें। मेरी jज्यादातर ग़जलों में गेयता भी है और एक ही विषय या संवेदना की समरूपता भी।
इसी क्रम में, पाठको से मेरी अपेक्षा है कि वे शब्दों और उनके प्रस्तुतिकरण के उलट-फेर में न पड़कर मेरे मनोभावों और उनकी जीवंतता की गहराईयों में उतरने का प्रयास करेंगे ताकि वो मेरे करीब, और करीब आ पाएं। उनकी सार्थक प्रतिक्रियाएं निसंदेह मेरा उत्साहवर्धन करेंगी।
मेरी इस यात्रा में माननीय के. एल. बालू, ईश कुमार गंगानिया और शीलबोधि सदैव भागीदार बने रहे, इस हेतु मैं उनका आभार-भर व्यक्त करके मुक्त नहीं होना चाहता, बल्कि मैं उनकी इस उदारता की निरंतरता का अभिलाषी बना रहना चाहता हूँ। हां ! अपने सभी सहयोगियों का सहृय आभार जरूर प्रकट करता हूँ।
मेरी गजलों के उत्कृष्ट चयन और सम्पादन के लिए वरिष्ठ गजलकार और समीक्षक साथी हरेराम नेमा समीप जी का विशेष आभारी हूँ। प्रकाशक श्री वरुण मिश्रा जी, बूक्स रिवर्स, लखनऊ को इस पुस्तक के सुन्दर प्रकाशन पर हार्दिक धन्यवाद….
“कि जैसे भी कटी काट दी, हौं जिंदगी, हमने,
अब धुँए पर शोर कैसा, राख पर है बहस कैसी।“
-तेजपाल सिंह ‘तेज’
अनुक्रम
क्र.सं. | ग़ज़ल | पृष्ठ सं. |
झीने आँचलकी छाया में | 1 |
धरती-धरती अम्बर देख | 2 |
धूप सा खिलना तिरा अच्छा लगा | 3 |
खुद अपने से हार गया मैं | 4 |
ग़म मिरे बेशक किसी से कम नहीं हैं | 5 |
मज़हबी टेहनी पे गुल फूटेंगे अभी और | 6 |
बात दिल की कही नहीं जाती | 7 |
ये ज़िन्दगी, सवाब है, क्या है | 8 |
मौत हकीकत है, इसमें शुबा कुछ भी नहीं | 9 |
लगता है कि वो, कहीं अम्बर में रहता है | 10 |
उजड़ा चेहरा देख रहा हूँ | 11 |
दुनिया की हर बिसात पर जो निगाह रखता है | 12 |
आज फिर आँख से निकला पानी | 13 |
वक्त से होकर ख़फा खुद को अनाम करलूँक्या | 14 |
होना भी अब क्या होना है | 15 |
मैं सफ़र से ऐसे गुजर गया | 16 |
बाकी कोई आस नहीं अब | 17 |
जीवन से अब डरता कब हूँ | 18 |
परियों का फ़न जाने अब | 19 |
पल-पल यूंही संवारा जीवन | 20 |
जब वो मेरी खामोशी ने खूब सताए होंगे | 21 |
दुनिया से जो जुड़ा-जुड़ा है | 22 |
चेहरे चेहरे पे उदासी क्यूँ है | 23 |
दिल से दिल की जो राह कर बैठे | 24 |
खुद में खुद उलझा बैठा हूँ | 25 |
मैं भी शातिर, तू भी शातिर | 26 |
बेसुध-बेसुध, बेसुध-बेसुध | 27 |
गली-गली नेताधने, गली-गली हड़ताल | 28 |
घर की कुन्दी खोलकर सो गए लम्बी तान | 29 |
जनता बौनी हो गई नेता हुए खजूर | 30 |
यूँ ही मत बवाल कर | 31 |
आदमी उड़ान में रहे तो खूब है | 32 |
उठ! अँधेरा शहर है कुछ बत्तियाँ रख दे | 33 |
अपना - अपना मिज़ाज है साहिब | 34 |
नन्ही बिटिया सोच रही है खड़ी ठूंठ के नीचे | 35 |
बंद आँखें खुल गई तेरी ज़फा के बाद | 36 |
मुद्दत बाद मिली हैं आँखें | 37 |
आँखों-आँखों में जो उनसे, गुफ्तगू होने लगी | 38 |
बात में बात मिलाना कैसा | 39 |
बहते हुए पानी को न अश्कों से तोलिए | 40 |
सपने कब हुए अपने | 41 |
सामने दुनिया के हँसाए गए हैं हम | 42 |
जीना भी नहीं आसां | 43 |
पीने का ये असर हुआ है | 44 |
फूल थे जो, खार हो गए | 45 |
तन्हा-तन्हा चलते-चलते पाँव थके | 46 |
पत्थर उठाए हाथ जो तिनके-से तने हैं | 47 |
लिखने लगी कहानी बिटिया रानी रे | 48 |
हर पल नया सवाल हुआ है | 49 |
दिलों की बात क्या कीजे दिवाने-खास में | 50 |
हँसने का गुमाँ और है रोने का गुमाँ और | 51 |
जब जब मौसम तनिक सुहाना लगता है | 52 |
मन है मिरा कि मेरा सब तक सलाम पहुँचे | 53 |
तू भी एक कहानी लिखना | 54 |
कोहरा-कोहरा सारा जंगल | 55 |
लड़ते - लड़ते पायल हारी | 56 |
चाँद जब-जब भी भला लगता है | 57 |
बिटिया जब ससुराल चली | 58 |
कोई अपना पास तो हो | 59 |
सहरा में जब बादल बरसे | 60 |
सागर सागर, पानी-पानी | 61 |
सावन में बदली ना बरसी | 62 |
गाँव बड़े भोले-भाले हैं | 63 |
धरके कूल्हे पे गगरिया साहिब | 64 |
मैं तो पागल ठहरा जी | 65 |
सिर पर बेशक नील गगन है | 66 |
आँख चुराओगे तुम कब तक | 67 |
खट्टे - मीठे, कड़वे देश | 68 |
वो लौटकर घर आए तो अच्छा हुआ | 69 |
सहर हुए विश्वास समूचा डोल गया | 70 |
दिल तो पागल बंजारा है रोवे है कभी गावे है | 71 |
तुम क्या जानो मुर्दा-दिल हो बहुत मजा है जीने में | 72 |
थोड़ा-सा जो असर हुआ है | 73 |
हरिक वर्ष कुछ ऐसे आए | 74 |
आह अपनी जो सदा हो निकली | 75 |
कुछ ही दिनों की बात है चुपचाप रह | 76 |
आँखों का उतरा पानी है | 77 |
फागुन-फागुन रंग है, आँखन-आँखन नेह | 78 |
तू चंदा-सी उज्ज्वल घनी धवल है | 79 |
मैंने भी इक गाँव खरीदा | 80 |
काहे इतना सँवर रही हो | 81 |
नजरों को पहचाना कर | 82 |
मैं हूँ कि बरबाद न पूछो | 83 |
आँख में आकाश लेकर | 84 |
बेफिक्री है चैन-अमन है | 85 |
गाँव जब-जब भी शहर आवे है | 86 |
मौसम में कुछ बदलाव है पैगाम लिख भेजो | 87 |
बोल सके तो खुलकर बोल | 88 |
कंगला माला-माल बरस | 89 |
धूप सावन की करवट बदलती रही, | 90 |
कफस टूटे गगन विचरूँ तो कुछ-कुछ हो, | 91 |
वो आई भी, सकुचाई भी, | 92 |
इतना-भर अपराध किया कर, | 93 |
जाने कब-कब क्या-क्या खोया, | 94 |
अपनी इक मजबूरी है | 95 |
बेजा न सिर अपने, तू सबके गुनाह ले | 96 |
सरे-राह मैं गुजरा तो पर कुछ-कुछ यूँ | 97 |
मैं हूँ कि बरबाद न पूछो | 98 |
आँखों-आँखों प्रीत लिखा कर | 99 |
फाकाकशी में ही दम लिया है आज तक मैंने | 100 |
बाद मुद्दत के अबकी सावन में | 101 |
मेरी बातों में असर है कम-कम | 102 |
यूं ख़ुद से वैर बढ़ाओगे | 103 |
जीने को कोई बात हो, तो जीने का मन बने | 104 |
पल-पल कोई बदला होगा | 105 |
हो-हो के इश्कबार मैं हर रोज़ मरूँ हूँ | 106 |
इश्क मरने का तसव्वुर तो नहीं | 107 |
उँगलियाँ इज्ज़त पे उठें तो कहना | 108 |
साख बतन की बढ़ा रहा मैं | 109 |
पग-पग प्रेम लुटाना सीख | 110 |
कोई अपना है भरम है प्यारे | 111 |
जनता की सुध लेगा कौन | 112 |
वसंत की मस्ती है नगाड़ों की धनक तू | 113 |
वासंती ॠतु हुई शराबी होली में | 114 |
यूँ जीवन का मेरे अनोखा सफर है | 115 |
ख़त में आना-जाना लिख | 116 |
वासंती ऋतु आने को है | 117 |
अश्क पीकर बचपना हमने जिया फुटपाथ पर | 118 |
संघर्षो के चिकने पथ पर थोड़ा पाँव जमा रखना | 119 |
बहुत ग़मगीन ग़ज़ल कहता है | 120 |
किसने मेरे होठो पे उँगलियाँ रख दी | 121 |
सियासतें बदलीं मगर दफ्तर नहीं बदले | 122 |
मेरी खुद ही से अनबन है | 123 |
शुष्क होठ हैं, आंखें नम | 124 |
नज़ाकत देखकर तेरी, ये जाना कि ये तू है | 125 |
आशिक की दिलफैंक नज़र कुछ ठीक नहीं | 126 |
घर–घर में है धुआँ आजकल | 127 |
जल रही है ये जमीं और गगन है जल रहा | 128 |
मैं तो काँटों का आदी हूँ, फूलों का हार उन्हें दे दो | 129 |
आबो-हवा में आजकी ढलने लगे हैं लोग | 130 |
कौन कहता है कि ग़म-गुस्तर नहीं | 131 |
उनके चेहरे पे उदासी क्यूँ है | 132 |
आँखों आँखों आस तो है | 133 |
दिल से दिल की जो राह कर बैठे | 134 |
क्या कहें कि कैसे पलते हैं | 135 |
लौटकर फिर आ गया शैतान कोई | 136 |
राजनीति चूल्हे पर चढ़के नाच रही है | 137 |
थाम आँधियाँ भीड़ खड़ी है सड़कों पर | 138 |
कुछ मुद्दआ होता तो मैं कहता जरूर | 139 |
घर नहीं, आँगन नहीं, साथी नहीं | 140 |
दोपहर इतनी मदभरी पहले कभी देखी न थी | 141 |
घायल मन का घायल पंछी, कित आए कित जाए | 142 |
मद्धिम कसैली धूप है हिमपात का डर है | 143 |
ज़मीन से उठूँ तो मैं अम्बर देखूँ | 144 |
आँखों-आखों तल्ख़ समन्दर ठहरे है | 145 |
अम्बर ऊंचा हुआ ज़मी हुई पोली | 146 |
ऐ पथिक! वीरान तेरा क्या करेगा | 147 |
जाते-जाते तुम ये कैसी आभा छोड़ गए | 148 |
चलो करें कुछ ऐसा यारो एक साथ सब कदम उठें | 149 |
टूट गया भ्रम सम्बन्धों का | 150 |
इसकी उसकी अपनी पीड़ा, जाने कैसे सहता हूँ | 151 | |
कुछ दोहे |
अन्दर-अन्दर द्वेष है, बाहर-बाहर नेह | 152 |
गली-गली नेता घने, गली-गली हड़ताल | 154 |
लील गई चढ़ती नदी पका-पकाया धान | 155 |
जिनके घर के दरवाजे पर राम लिखा है, | 156 |
झीने आँचल की छाया में,
पीना भी अब क्या पीना है।
धरती-धरती अम्बर देख,
पलकों बीच समंदर देख।
तू भी कभी गली से उनकी,
एक-दो बार गुजरकर देख।
कब तक बिखर-बिखर गुजरेगा,
थोड़ा-बहुत सिमटकर देख।
चाँद से बातें करनी हैं तो,
तू भी कभी संवरकर देख।
हर लम्हा न बना दूरियाँ,
खुद से जरा लिपटकर देख।
तेरे पीछे भी कोई है,
पीछे जरा पलटकर देख।
***
धूप सा खिलना तिरा अच्छा लगा,
ख्वाब में मिलना तिरा अच्छा लगा।
यहां हर-पहर आवारगी का दौर है,
चाँद पर रुकना तिरा अच्छा लगा।
जानता हूँ ज़िंदगी अज़ाब है मगर,
जीस्त से लड़ना तिरा अच्छा लगा।
किसने कब उंगली उठाई स्वयं पर,
स्वयं पर हँसना तिरा अच्छा लगा।
राह दिल की ‘तेज’ गो अति तंग है,
पर बारहा चलना तिरा अच्छा लगा।
***
खुद अपने से हार गया मैं,
हर लमहा लाचार गया मैं।
लेकर खाली जेब न जाने,
क्या करने बाजार गया मैं।
खुद ही मैंने बाजी हारी,
वो समझे कि हार गया मैं।
आँख झुकाकर क्या बैठा कि,
वो समझे कि मान गया मैं।
‘तेज’ मैकदे की ज़द से उठ,
कब कैसे किस हाल गया मैं।
***
ग़म मिरे बेशक किसी से कम नहीं हैं,
हाँ! मगर आँखे मिरी पुरनम नहीं हैं।
लोकशाही का किया सत्ता ने सर कलम,
पर कहीं भी शहर में मातम नहीं है।
महफिल में अपनी आज तू खुद सरनिगूं है,
है शुक्र कि महफिल में तेरी हम नहीं हैं।
कि दीपक जलाकर आँधियों को सौंप दें,
नाअक्ल इतने सिरफिरे भी हम नहीं हैं।
छोड़ भी दे ‘तेज’ तू नाहक दिलों से खेलना,
कि खेलने को यां खिलौने कम नहीं हैं।
***
(सरनिगूं = शर्मिन्दा)
मज़हबी टेहनी पे गुल फूटेंगे अभी और,
देखते रहिए कि रंग बदलेंगे अभी और।
भँवरों की मानो बारहा नीयत बदल गई,
इज्जत गुलो-गुलजार की लूटेंगे अभी और।
इस कदर अब आँधियाँ उभरी हैं फलक पर,
कि घौंसले अरमान के टूटेंगे अभी और।
कब तलक चिल्लाएगा चीखेगा आदमी,
कि इंसानियत के हौसले टूटेंगे अभी और
रुख हवा का देखकर लगता है 'तेज' कि
सपने अमन के और भी टूटेंगे अभी और।
***
बात मन की कही नहीं जाती,
गोया फुरकत सही नहीं जाती।
उनको बिछड़े हुए यूँ गुजरे बरसों,
याद उनकी मगर नहीं जाती।
वादा करते हैं मुकर जाते हैं,
शर्म उनकों मगर नहीं आती।
जीने मरने के सवालात न कर,
ज़िन्दगी यूँ ही गुजर नहीं जाती।
ऐसी उलफ़त का ‘तेज’ क्या होना,
कि जिसमें हरकत नजर नहीं आती।
***
ये ज़िन्दगी, सवाब है, क्या है,
मोहब्बत है, रुआब है, क्या है।
मैं खुद ही को पढ़ता रहता हूँ,
मेरे भीतर कोई किताब है, क्या है।
भंवरे उससे ही मुख़ातिब क्यूँ हैं,
उसका चेहरा गुलाब है, क्या है।
वो क्यूं, आँखों में नहीं उतरे है,
रुख पे उसके, नकाब है, क्या है।
मैं सोकर भी क्यूं सो नहीं पाता,
मेरी आँखों में ख्वाब है, क्या है।
***
मौत हकीकत है, इसमें शुबा कुछ भी नहीं,
जिन्दगी का पुरअसर है मर्तबा कुछ भी नहीं।
ताउम्र मैं चलता रहा, खटता रहा, लेकिन,
तल्ख ख्वाबों के सिवा मुझको मिला कुछ भी नहीं।
रोका किया मैं उम्रभर, सांस जीने के लिए,
सांसे तो जिन्दा हैं मगर, मैं जिया कुछ भी नहीं।
करकेकोई अहसान कुछ, गरजता तो ठीक था,
हरसू अबस चर्चा हुआ, पर किया कुछ भी नहीं।
लो करने लगे अपने ही अब बेआबरू ए! तेज,
उम्र के इस मोड़ पर शिकवा-गिला कुछ भी नहीं।
***
शुबा = शुबाह = शक
लगता है कि वो, कहीं अम्बर में रहता है,
वो जुगनू है कि सबकी नज़र में रहता है।
मंजिल की सू है आज भी उसकी नज़र,
इसी वजह से वो हरदम सफर में रहता है।
जहाँ इंसानियत ढूँढा करे है घर अपना,
वो है कि वो एक उजड़े शहर में रहता है।
मैं जिन्दा तो हूँ पर मुर्दों से कम नहीं,
सो मेरा वजूद, फिर-फिर खबर में रहता है।
इश्क की राह में तिश्नगी भी कम नहीं,
इसलिए ही इश्क के अश्कों में असर रहता है।
***
उजड़ा चेहरा देख रहा हूँ,
या उल्टा शीशा देख रहा हूँ।
आने वाले कल के कल का,
कच्चा चिट्ठा देख रहा हूँ।
अपने ही जैसा बेटा है,
जानो सपना देख रहा हूँ।
धुंधलाई आँखों पर यारा,
अन्धा चश्मा देख रहा हूँ।
मौत के आँगन में जीवन का,
बुझता चूल्हा देख रहा हूँ।
***
दुनिया की हर बिसात पर जो निगाह रखता है,
मेरे दिमाग में भी इक ऐसा सिपाह रहता है।
न दुख में दुखी होता कभी और न सुख में सुखी,
बड़ा अजीब शख्स है आँखों में ख्वाब रखता है।
गो दोस्ती उसकी है नदियों से बहुत, फिर भी,
वो आँखों में जलन, होठों पे प्यास रखता है।
न जाने उसकी आँख में कितने समंदर हैं निहां,
पर शांत परबत की तरह अपना मिजाज रखता है।
उसकासफ़र में भी कोई रहबर नहीं होता,
‘तेज’ दुनिया में वो कुछ ऐसा मुकाम रखता है।
***
आज फिर आँख से निकला पानी,
बाद बरसों के है पिघला पानी।
कैसे लिक्खूँ मैं प्यार के नगमें,
मुट्ठी से मिरी रेत-सा फिसला पानी।
हँसने-रोने का हुनर तक भूला,
भला किस सोच में उलझा पानी।
न हवा चली, न बिजली तड़की,
जाने किस तौर है बरसा पानी।
न तो रोता, न कभी हँसता है,
यूँ वक्त की मार से बदला पानी।
इस कदर हैं ‘तेज’ हवाएं निकलीं,
छोड़कर अपनी जमीं उछ्ला पानी।
***
वक्त से होकर ख़फा खुद को अनाम करलूँक्या,
उनके कहने भर से ही खुद को तमाम करलूँ क्या।
कब तक बचूँगा मौत से, एक दिन जाना ही है,
डरके अपनी जान को उजड़ी दुकान करलूँ क्या।
पाँवों में गो थकान है, होठों पे तिश्नगी,
ताज़गी सोचों की मैं यूँ ही तमाम करलूँ क्या।
क्या किया, क्या न किया, ये बीते कल की बात है,
कल के किए पर आज को बेज़ा निसार करदूँ क्या।
न आग का, न ‘तेज’ अब सूरज का खौफ़ है,
गैरों को अपने इसलिए अपना ईमान करलूँ क्या ।
***
ना भी अब क्या होना है,
जीना भी अब क्या जीना है।
जख़्म हुए नासूर जो उनको,
सीना भी अब क्या सीना है।
झीने आँचल की छाया में,
पीना भी अब क्या पीना है।
आज न पूछो उम्र ने मुझसे,
छीना भी तो क्या छीना है।
‘तेज’ करें क्या जब अपने ही,
सपनों का जख्मी सीना है।
***
मैं सफ़र से ऐसे गुजर गया,
ज्यूँ दरिया कोई उतर गया।
मिलने वाला मिल नहीं पाया,
मैं इधर गया वो उधर गया।
दर्पण देखा तो आँखों में,
रुख अपना ही उभर गया।
बासी फूल की पत्ती हूँ मैं,
ठसक लगी कि बिखर गया।
रात की खामोशी में तनहा,
न जाने कब संवर गया।
कल तक ‘तेज’ साथ था मेरे,
आज न जाने किधर गया।
***
बाकी कोई आस नहीं अब,
खुद की कोई तलाश नहीं अब।
गुजरे कल की बात क्या करना,
उसमें है कुछ खास नहीं अब।
खुशबूदार हवा का मौसम,
आता मुझको रास नहीं अब।
रिश्तों में वो पहले जैसी,
जानो तो कोई बात नहीं अब।
आज पड़ा यूँ कल पर भारी,
कि कल का कुछ अहसास नहीं अब।
***
जीवन से अब डरता कब हूँ,
मरने से अब डरता कब हूँ।
आँखों में कोई ख्वाब नही अब,
रातों में अब जगता कब हूँ।
शेष कहाँ सांसों में खुशबू,
अब उनको मैं जँचता कब हूँ।
खुद को ही पढ़ता रहता हूँ,
अब मैं उनको पढ़ता कब हूँ।
सरदी-गरमी में पानी पर,
चलने से अब डरता कब हूँ।
***
परियों का फ़न जाने अब,
जुल्फों के ख़म जाने अब।
सारी उम्र निभाए रिश्ते,
रिश्तों का सच जाने अब।
साँसे करने लगीं जुगाली,
उम्र का करतब जाने अब।
अपनों का अपनापन जाने,
गैरों का रुख जाने अब
उम्र ढली तो ‘तेज’ मुकम्मिल,
जीवन का सच जाने अब।
***
पल-पल यूंही संवारा जीवन,
कदम-कदम पर हारा जीवन।
उनका मीठा-मीठा लेकिन,
अपना खारा-खारा जीवन।
हमने जाना एक चुनौती,
उनने जाना नारा जीवन।
मौत को आना है आएगी,
फिर-फिर लाख पुकारा जीवन।
बोल न पाया रहा सुबकता,
हमने लाख दुलारा जीवन।
मौत की चिट्ठी हाथ लिए है,
मानो है हलकारा जीवन।
***
जब वो मेरी खामोशी ने खूब सताए होंगे,
गाँव ये खामोशी के उसने तभी बसाए होंगे।
खुद से खुद ग़र उसने अपने नैन चुराए होंगे,
जाने कैसे उसने फिर ये चित्र बनाए होंगे।
उसकी भीगी आँखों में कहीं झाँक न लूं मैं,
मेरे चित्र से हटकर उसने अश्क गिराए होंगे।
रातों को जगना-इठलाना, सहर हुए सो जाना,
जाने उसने कैसे-कैसे ख्वाब सजाए होंगे।
***
दुनिया से जो जुड़ा-जुड़ा है,
खुद से पर वो जुदा-जुदा है।
कल तक दुनिया पर हावी था,
आज वो खुद से डरा-डरा है।
खुलकर हँसने वाले का भी,
गला आजकल भरा-भरा है।
जीने की आपा-धापी में,
खुद ही यम का रूप धरा है।
‘तेज’ लूटने वाला भी तो,
खुद ही जैसे लुटा-लुटा है।
***
चेहरे - चेहरे पे उदासी क्यूँ है,
उम्र उनसे यूँ ख़फा-सी क्यूँ है।
वो जो कातिल है मिरी हस्ती का,
उसकी चौतरफ़ा हवा-सी क्यूँ है।
वो जो चाहे हैं गुज़रना आखिर,
मौत उससे यूँ ख़फा-सी क्यूँ है।
बात मेरी जो अर्श हो निकली,
उसकी नज़रों में ज़रा-सी क्यूँ है।
माना कि वो हसीन है, ज़हीन भी,
उम्र पर अपनी वो छुपाती क्यूँ है।
मेरी दुनिया का सहारा लेकर,
जुर्म अपना वो छुपाती क्यूँ है।
जिसका कहना था कि बेवफा हूँ मैं,
उसकी आँखों में वफा-सी क्यूँ है।
***
दिल से दिल की जो राह कर बैठे,
खुद ही खुद को तबाह कर बैठे।
उनके आने की बात जो उट्ठी,
हम दिन ही को रात कर बैठे ।
न बिल्ली रोई, न तारा टूटा,
फिर क्यूँ चेहरा उदास कर बैठे।
एक मक्खी भी तो मारे न मरी,
यूँ ही खुद को सिपाह कर बैठे।
ये भी सच है कि ‘तेज’ से मिलकर,
प्रीत का हम भी गुनाह कर बैठे।
***
खुद में खुद उलझा बैठा हूँ,
हारे-मन तनहा बैठाहूँ।
मन करता है आग लगा दूँ,
मैं हर हाल भरा बैठा हूँ।
दो चुटकी सूरज की खातिर,
घर में आग लगा बैठा हूँ।
गर्म हवाओं से बचकर मैं,
तूफां की ज़द में बैठा हूँ।
शायद ‘तेज’ बचाने आये,
झूठी आस लगा बैठा हूँ।
***
मैं भी शातिर, तू भी शातिर,
ये सारी दुनिया भी शातिर।
सब अपनी खातिर जीते हैं,
ना तेरी, ना मेरी खातिर।
कैसे हो फिर मेल-मिलापा,
मैं भी शातिर, तू भी शातिर।
सब कुछ आखिर है यां आखिर,
मैं भी आखिर, तू भी आखिर।
नादिरशाही खत्म हो कैसे,
मैं भी नादिर, तू भी नादिर।
***
बेसुध - बेसुध, बेसुध - बेसुध,
कौन नहीं यहाँ बेसुध-बेसुध।
हमने दुनिया को देखा है,
खाते - पीते, बेसुध - बेसुध।
मानो मत मानो पर सच है,
सब के सब हैं बेसुध - बेसुध।
छोटा मुंह और बात बड़ी है,
हम तुम सब हैं बेसुध - बेसुध।
‘तेज’ जमाना कब सँभलेगा,
सदा रहत है बेसुध - बेसुध।
***
गली-गली नेता धने, गली-गली हड़ताल,
संसद जैसे बन गई, तुगलक की घुड़साल।
नेता ही डाकूयहाँ नेता ही सरपंच,
प्रभु की करनी की कहो, कौन करे पड़ताल।
कौले-कौले बाज हैं, आँगन-आँगन काग,
कोयलिया ओझल हुई, बिगड़ गया सुरताल।
आँखन-आँखन भूख है, हाथन-हाथन खाज,
सत्ता के हाथोंहुई कैद मगर टकसाल।
राजा बहरा हो गया, जनता हो गई मौन,
’तेज’ निरर्थक भीड़ में बजा रहा खड़ताल।
***
घर की कुन्दी खोलकर सो गए लम्बी तान,
गाली देकर चोर को शेखी रहे बखान।
जीवन एक पहेली है इतना लीजे जान,
इतना भी कुछ कम नहीं बनी रहे पहचान।
धीरे-धीरे बिक गया घर का सब सामान,
रोटी-पानी के लिए गिरवी धरा मकान।
बीवी भुट्टे भूनती नित संसद के द्वार.
जाना था जिनको गए यार तिरंगा तान,
***
जनता बौनी हो गई नेता हुए खजूर,
भूखे पेटों चाकरी कब तक करें मजूर।
सरसों फूली खेत में घर में चूल्हा रोय,
संसद हुई बिचोलिया किसना है मजबूर्।
नेता जज और बानिया करत यहाँ अब सैर,
चल धनिया अब भाग चल इस बस्ती से दूर।
लोकतंत्र की आजकल बदल गई तस्वीर,
नेता चतुर सुजान हैं जनता है मजबूर।
सुन जनता की अनकही ‘तेज’ है डावाँडोल,
होना था सोहो गया अब का बाँटे बूर।
***
यूँ ही मत बवाल कर,
कुछ नये सवाल कर।
कि चाँदनी के वास्ते,
उठ जरा धमाल कर ।
थके- थके दिमाग हैं,
कि ताजगी बहाल कर ।
मिलने को मिलिए रोज पर,
दामन जरा सँभालकर ।
कि आदमी की गया का,
'तेज' कुछ ख़याल कर।
***
आदमी उड़ान में रहे तो खूब है,
बात जो मियान में रहे तो खूब है।
मारने-मरने के याँ मौके तो कम नहीं,
तीर पर कमान में रहे तो खूब है।
आज की महफिल का हर बंदा नवाब है,
जो खामुशी बयान में रहे तो खूब है।
ज़िंदगी थकान के सिवा तो कुछ नहीं,
जो ताज़गी थकान में रहे तो खूब है।
नमाज़ मंदिरों में हो, मस्जिद में कीर्तन,
राम जो कुरान में रहे तो खूब है।
***
अँधेरा शहर है कुछ बत्तियाँ रख दे,
फूल ही काफी नहीं कुछ पत्तियाँ रख दे।
कुछ हस्तियों ने याँ बियाबाँ किए शहर,
अबकी तू कब्रगाह में वो हस्तियाँ रख दे।
धार के विपरीत यूँ चलना नहीं आसाँ,
मुक्तसर-सी बात है कुछ मछलियाँ रख दे।
हैं शब्द भी, भाषा भी है तुझको नसीब,
उठ ! अनपढ़ों के सामने कुछ तख्तियाँ रख दे।
गमगीन रहना 'तेज' बेशक हर घड़ी अच्छा नहीं,
कि जूड़े में अपने यार के कुछ तितलियाँ रख दे।
***
ना - अपना मिज़ाज है साहिब,
किसको किसका लिहाज है साहिब।
वो जो कहता है नास्तिक खुद को,
रोज पढ़ता नमाज़ है साहिब।
अपने हिस्से में चंद साँसें हैं,
उम्र उनकी दराज है साहिब।
मैं तो मर-मर के भी जी लूँगा,
मुझको इसका रियाज है साहिब।
चिंता कफ़न की 'तेज' को क्यूँ हो,
कि दोस्त उसका बजाज है साहिब।
***
नन्ही बिटिया सोच रही है खड़ी ठूंठ के नीचे,
कोई तो निश्छल हाथों से बन-उपवन को सींचे।
प्रदूषण इस तौर बढ़ा है बस्ती क्या जंगल तक में,
खुली हवा की माँग करें हैं खुशबूदार बगीचे।
धुआँ-धुआँ घर-आँगन, कैसे घर जाऊँ, इठलाऊँ,
गली-गली है कीचड़ गारा, संसद बीच गलीचे।
चित्र एक भी हुआ न पूरा राजनीति के रंगों से,
नारों में यूँ खुशहाली के चित्र बहुत हैं खींचे।
गंगा-यमुना 'तेज' उदासी, सागर हुआ विनाशक,
अच्छा हो मानव से मानव मिल-जुल प्रेम उलीचे।
***
बंद आँखें खुल गई तेरी ज़फा के बाद,
कि जिंदगी रौशन हुई तेरी ज़फा के बाद।
कल तलक खुशबू मिरी उलफत में कैद थी,
अबकि हवा में घुल गई तेरी ज़फा के बाद।
बातों पे अपनी था तुझे बेहद गरूर,
पर बात मेरी सिर हुई तेरी ज़फा के बाद।
सादगी को ओढ़ लूँ कि छोड़ दूँ मैं क्या करूँ,
खुद की खुद से ठन गई तेरी ज़फा के बाद।
कल भी थी, है आज भी अपनी हवा ए! 'तेज',
उलफत मगर रुसवा हुई तेरी ज़फा के बाद।
***
मुद्दत बाद मिली हैं आँखें,
सरसे फूल खिली हैं पाँखें।
अपना कोई आसपास है,
फिर काहे को बगलें झाँकें।
बाजार गर्म है अनुबंधों का,
मत कर संबंधों की बातें।
जीवन भर रो धोके गुजरा,
दिन सँवरे ना सँवरी रातें।
कुर्सी पाने के लालच में,
'तेज' लगी हैं लंबी पाँतें।
***
आँखों-आँखों में जो उनसे, गुफ्तगू होने लगी,
रफ्ता-रफ्ता बात दिल की, सुर्खरू होने लगी।
न तो दिन ही फिरे मेरे, ना रात ही रौशन हुई,
बात लेकिन नागहानी चारसू होने लगी।
जिंदगी गो मौत की मेहमान है लेकिन,
मौत ने जो दी सदा, तो रू-ब-रू होने लगी।
वक्त ने आवारगी को, कुछ दिया ऐसा सबक,
कि आवारगी आवारगी से, दू-ब-दू होने लगी।
उनसे मिलने के बहाने क्या हुआ कि 'तेज' को,
खुद से मिलने की बराबर, जुस्तजू होने लगी।
***
बात में बात मिलाना कैसा,
आँख से आँख मिलाना कैसा।
हर पल रंग बदलते हैं जो,
उनसे हाथ मिलाना कैसा।
जब माली ही गंध चुराए,
फिर-फिर फूल उगाना कैसा।
जब मन-आँगन हो अंधियारा,
चौमुख दीप जलाना कैसा।
'तेज' हिमालय की चोटी पर,
हरियल दूब उगाना कैसा।
***
हुए पानी को न अश्कों से तोलिए,
जब-जब भी रुकें पाँव तो चलने को बोलिए।
जिंदगी जीना है तो सुन जिंदगी के वास्ते,
दोस्त कैसा ही भी हो पत्ते न खोलिए।
सोने की गो फितरत नहीं है, फिर भी हम,
चलते-चलते राह में सोचों में सो लिए।
जब-जब मिलें उलझनें, यूँ कीजिए यारब,
हो आईने से रू-ब-रू हर गाँठ खोलिए।
'तेज' अब वश में नहीं सदियों को झेलना,
है वक्त अभी वक्त की परतें निकोलिए।
***
सपने कब हुए अपने,
सपने बस हुए सपने।
इंसा भी कहाँ बाकी,
इंसा भी हुए फितने।
कि जीना है अंधेरों में,
खाई है कसम सबने।
हंसने का सफर छीना,
दी कैसी सजा रब ने।
गैरों से गिला कैसा,
अपने भी कहाँ अपने।
***
सामने दुनिया के हँसाए गए हैं हम,
घर पे लाके खूब रुलाए गए हैं हम।
न जान ही छोड़ी, न मरने का हौसला,
यूँ बारहा हर तौर सताए गए हैं हम।
अपनापन है ये कि दीवानगी उनकी,
कि गालियाँ दे-दे के बुलाए गए हैं हम।
मुद्दा रोटी का जहाँ का तहाँ रहा,
थपकियाँ दे-दे के सुलाए गए हैं हम।
उल्फत से कोसों दूर हैं वो बाकसम,
गमलों में दोस्ती के सजाए गए हैं हम।
***
जीना भी नहीं आसां,
मरना भी नहीं आसां।
हम हैं कि हुए पाहन,
गलना भी नहीं आसां।
चलने की हिदायत है,
रुकना भी नहीं आसां।
शोला है बदन अपना,
जलना भी नहीं आसां।
हो 'तेज' से मुखातिब,
लिखना भी नहीं आसां।
***
पीने का ये असर हुआ है,
जिंदा अपना हुनर हुआ है।
आँखों-आँखों चपल चाँदनी,
पाँवों-पाँवों सफर हुआ है।
बस्ती - बस्ती सन्नाटा है,
बेशक कोई कुफर हुआ है।
बंजर संबंधों के चलते,
अनुबंधों का गुजर हुआ है।
खुद अपनी हस्ती पहचानो,
‘तेज’ निरा कम-नज़र हुआ है।
***
फूल थे जो, खार हो गए,
जो शेर थे सयार हो गए।
वक्त ने ठगा तो इस कदर,
कि हौंसले फरार हो गए।
ऊँट की कमर पे मेंमने,
सहज ही सवार हो गए।
कमनज़र बढ़े तो यूँ बढ़े,
कि एक से हजार हो गए।
कितना बाअसर है 'तेज' कि,
हम भी बादाख्वार हो गए।
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तन्हा-तन्हा चलते-चलते पाँव थके,
सच्चे-झूठे जैसे भी थे ख्वाब थके।
सूरज की इतनी-सी मंशा है शायद,
झेल-झेलकर धूप कसैली छाँव थके।
नये दौर में यौवन यूँ उन्मुक्त हुआ,
एकेक करके कामसूत्र के दाँव थके।
आखिर को आँखें सूखीं दिल बैठ गया,
रिसते-रिसते अंतर्मन के घाव थके।
थकीं मल्हारें, थकी रुदाली, 'तेज' थका,
नये रूप में ढलते-ढलते गाँव थके।
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पत्थर उठाए हाथ जो तिनके-से तने हैं,
घर उन्हीं के खासकर शीशे के बने हैं।
भीड़ तो है हर कदम पर भीड़ में साहिब,
बस आदमी की जून में दो-चार जने हैं।
कल तलक था आसमाँ मेघों से बाबस्ता,
आजकल धरती पे भी घन-श्याम घने हैं।
इंसान ने इंसानियत को आप ही अगवा किया,
माँ ने तो वरना बारहा इंसान जने हैं।
हाथ में जिनके खिलौने चाहिए थे 'तेज',
पर खून से अपने ही उनके हाथ सने हैं।
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लिखने लगी कहानी बिटिया रानी रे,
लगता है अब बिटिया हुई सयानी रे।
सावन-मासे मेघों से बतियावे है,
पायल की छमछम संग बरसे पानी रे।
अलकों में नित चाँद-सितारे गूँथे हैं,
पूछे है दर्पन से तन के मानी रे।
साँसें उसकी अब मधु की मोहताज कहाँ,
कल की चिंता में बेकल है नानी रे।
‘’’तेज’ तू होता तो पल-भर बतिया लेती,
दुख अपने अब कासे करूँ बयानी रे।
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हर पल नया सवाल हुआ है,
इतना फकत कमाल हुआ है।
नए दौर की चकाचौंध में,
जीना बहुत मुहाल हुआ है।
लोकतंत्र की छाती पर चढ़,
हरसू खूब धमाल हुआ है।
इंसा के हाथों से बेशक,
इंसा आज हलाल हुआ है।
प्रशासन अब राजनीति का,
सबसे बड़ा दलाल हुआ है।
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दिलों की बात क्या कीजे दिवाने-खास में,
गुजरे है बादशाह का हर पल कयास में।
जिंदगी गो एक है, पर कीमत जुदा-जुदा,
किसी की लाख में उट्ठी, किसी की पचास में।
बहुत कोमल, धवल, अनमोल है लेकिन,
धंधे की बात है, सो हैं कीड़े कपास में।
मैं ही बदकिमार हूँ मस्जिद नहीं जाता,
वाइज मगर मिलता है नित नौ-लिबास में।
घूमता-फिरता हूँ मैं भी 'तेज' की तरियाँ,
इसकी न उसकी बस फकत अपनी तलाश में।
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हँसने का गुमाँ और है रोने का गुमाँ और,
उल्फ़त की जुबाँ और है नफरत की जुबाँ और।
जानते सब हैं मगर समझें तो बात है,
चूल्हे का धुआँ और है मरघट का धुआँ और।