तेजपाल सिंह ‘तेज’  :: गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है (संस्स्मरण - गाँव से शहर तक)'s image
66K

तेजपाल सिंह ‘तेज’ :: गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है (संस्स्मरण - गाँव से शहर तक)

संस्स्मरण - गाँव से शहर तक

तेजपाल सिंह तेज

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है

वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे आगे चलकर एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध हुये। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस कियाऔर उसे अपने साहित्य में उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी कर्मचरियों की भर्ती के लिए बने बैंक प्राधिकरण के इंटरव्यू बोर्ड में सम्मिलित होने पर अनुसूचित जाति का कोटा पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उल्लेखनीय है कि तेजपाल जी बारह बार इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य रहे।


बचपन में बगीचे के फल

स्कूल के रास्ते में आम और अमरूद के बाग पड़ा करते थे। आम के मौसम में तेज हवा और आंधी चलने पर कच्चे-पक्के आम अक्सर पेड़ से टूटकर जमीन गिर जाते हैं। चोरी-छुपे हम बाग में घुस जाते और जमीन पर पड़े कच्चे-पक्के आम उठाकर भाग जाते थे। अमरूदों के मौसम में अमरूदों के बाग में सबका एक साथ घुसना और इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से इस पेड़ की डालियों को झुकाकर कच्चे-पक्के अमरूद तोड़कर झट से बाहर सड़क पर आ जाना, हमारा दैनिक उपक्रम हुआ करता था। कुछ अमरूद खाना, कुछ को चखकर फेंक देना, हमारे लिए खेल जैसा हुआ करता था। कई बार पकड़े भी जाते थे। पिटाई तो होती नहीं थी क्योंकि सभी बागवाले जान-पहचान वाले होते थे। ज्यादा से ज्यादा वे हमारे घर पर हमारी शिकायत कर देते थे। सो घर पर डांट तो जरूर पड़ती थी लेकिन डांट का असर थोड़ी-बहुत देर ही रहता था। अब मैं कुछ बड़ा हो गया था तो शरारत भी बढ़ती चली गईं।

किसी पेड़ की आड़ लेकर मैं खुद ही दूध पी जाता था

मेरे जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं किंतु सबका यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है। गाँवों भैंस या गाय जब ब्याती (बच्चा देती है) हैं तो उसका पहला या जैसे भी संभव हो दूध एक सप्ताह के अंदर लोकल देवी-देवताओं को चढ़ाते हैं। यह लोक परम्परा का एक अटूट हिस्सा है। हमारे घर चार-पाँच भैंस रहा करती थीं। सो एक-दो महीने में एक ना एक भैंस बच्चा देती ही थी। तो मां हमेशा ही मुझे ही चामुंडा माई पर दूध चढ़ाने भेजा करती थी। यह सिलसिला मेरे पांच-छ: साल का होने से बदस्तूर शुरु हो गया था। मां मुझे मिट्टी की कुल्हड़ में दूध देकर चामुंडा माई को चढ़ाने के लिए भेज दिया करती थी और मैं चामुंडा माई तक जाने वाले रास्ते पर पड़ने वाली बरसाती नदी के किनारे किसी पेड़ की आड़ लेकर दूध खुद ही पी जाता था। घर आ जाता तो मां पूछ्तीबड़ी जल्दी आ गया। मैं मां को बहका दिया करता था किभागकर गया थाभागकर ही आया हूं सो जल्दी आ गया। मामला खत्म हो जाता था। फिर खेल-कूद शुरू …. दरअसल ऐसा करने के पीछे कोई ग्यान नहीं था, बस दस-बीस ईटों का मठ बनाकर उनकी पूजा करती महिलाओं देखकर पता नहीं क्यूं मन-ही-मन घृणा होती थीमन ही मन सोचता था कि भला ऐसा करने से क्या हो जाएगा ?

आप बाज़ार जा रहे और सुमरती भाभी एक आदमी …..

बीरवार के दिन पास के कस्बे सठले में बीर बाजार (पैंठ) लगा करती थी। मैं भी बाजार जा रहा था कि रास्ते में बाजार जाते हुए भाई मनीराम मिल गए। उनसे राम-राम की और पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं, भाभी सुमरती तो एक आदमी के साथ खेतों की ओर जा रही थी।….. मनीराम जी का इतना सुनना था कि उलटे पाँव खेतों की ओर दौड़ लिएदेखा कि वहाँ तो कोई भी नहीं था। अब वह समझ गए कि ये शरारत तेजपाल की ही है। अब वे दोनों पति पत्नी मेरी तलाश में गाँव-भर को नाप गए। जब मैं उन्हें नहीं मिला तो वे हमारे घर आ गए। वहाँ तो मुझे मिलना ही था।…..हंसते हुए दोनों मेरे पास आए और गुस्से और प्यार से मेरे कंधों पर हलके के धौल जमाई और बोले बदमाश! आगे से कोई ऐसी शरारत किसी के साथ भी की तो पिटेगा बहुत। इतना कहकर दोनों हंसते हुए अपने घर चले गए। और मैंने भी अंदर-अंदर ही शर्म महसूस की और कभी ऐसी शरारत न करने की ठान ली।

ऐसे मिटीं आपस की दूरियां

शायद आठवीं क्लास की बात होगी, मेरे एक स्कूली मित्र और मैं दोनों अक्सर ही साथ-साथ स्कूल जाते थे और साथ-साथ स्कूल से घर आ आते थे। एक बार मुझमें और उसमें किसी बात को लेकर तू-तू मैं-मैं हो गई। बात तू-तू मैं-मैं तक ही रहती तो ठीक होता किंतु बात मार-पीट में बदल गई। गर्मियों के दिन थे सो दोनों पसीना-पसीना हो गए। मेरा मित्र मुझसे एक क्लास पीछे था यानी मुझसे छोटा था। खैर! मार-पीट समाप्त होने पर दोनों अपने-अपने घर चले गए। घर जाने पर मुझे महसूस हुआ कि आज जो कुछ भी हुआ ठीक नहीं हुआ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैंने बस्ता रखा और मनमुटाव मिटाने के भाव से अपने मित्र के घर जा पहुंचा। उसके घर का दरवाजा अंदर से बंद था। मैंने दरवाजा बजाया किंतु उसने दरवाजा नहीं खोला। मैंने फिर उसे आवाज लगाई और दरवाजा खोलने के लिए कहा लेकिन फिर भी उसने दरवाजा दरवाजा नहीं खोला।

उसका मुझसे नाराज होना स्वाभाविक ही था। आखिर मैंने रोते हुए उससे कहा कि जब तक तू दरवाजा नहीं खोलेगा मैं भी घर नहीं जाऊंगा। आखिरकार उसने दरवाजा खोल दिया और हम दोनों एक दूसरे से मिले तो सही, किंतु दोनों जड़वत। आखिर मेरी आँख भर आईं। फिर क्या था संतराम और मैं रोते-रोते एक हो गए। बाद में मैं अपने घर वापिस आ गया। इस तरह हमारे बीच की दूरी मिट गई और फिर वही पुराना सिलसिला चालू हो गया। यहाँ तक कि हमारी दोस्ती और गहरी हो गई। उल्लेखनीय है कि मेरा मित्र पढ़ने में इतना होशयार था कि उसने आर्ट साइड में होते हुए दसवीं और बारहवीं में प्रथम श्रेणी प्राप्त की। फलत: योग्यता के आधार पर उसकी नौकरी भारतीय डाक सेवा में लगने पर सीधा मेरे पास ही दिल्ली आया। तब मैं दिल्ली परिवहन अंडरटेकिंग में अस्थायी संवाहक की नौकरी कर रहा था किंतु मेरे मित्र की नौकरी लगने की बात सुनकर मैं इतना खुश हुआ कि जीजा जी से चिल्लाकर कह उठा कि जीजा जी इसकी नौकरी लग गईं। इतना सुन जीजा ने मुझसे कहा कि मुझे पता हैपहले तू घर आया कि तू …..। हम दिल्ली में भी कुछ महीनों साथ-साथ भी रहे।

अब तो रिजल्ट देखना ही बाकी है

इसी क्रम में एक बात और याद आई कि मैं जब बारहवीं कक्षा में था तो गांव का एक और लड़का 12वीं कक्षा में ही था। उससे काफी नजदीकियां भी थीं। उसने मुझसे कहा के कुछ किताबें आप खरीद लो और कुछ किताबें मैं खरीद लूंगा, इस प्रकार हम एक सेट से ही पढ़ाई कर लेंगे। मैंने तो निर्धारित किताबें खरीद लीं और पढ़ने के लिए दूसरे लड़के को दे दीं। जब उसने मेरे सेट को पढ़कर वापिस किया तो मैंने उससे उसके द्वारा खरीदी गईं किताबें पढ़ने के लिए मांगी। उसने कहा कि मैं तो पैसे न होने के कारण किताबें खरीद ही नहीं सका। इस प्रकार मैं कुछ किताबें जो नोटबुक के रूप में थी, नहीं पढ़ सका। हां! पाठ्य पुस्तक मैंने जरूर पढ़ीं थी। अब बारहवीं की फाइनल परीक्षा पास आ गई लेकिन उस लडके ने मेरी किताबें तो पढ़ ली और मुझे उसने अपनी किताबें पढ़ने के लिए नहीं दी।

उल्लेखनीय है उसकी शादी में मेज कुर्सी साइकिल व घड़ी आदि उपहार स्वरूप मिले थी। जाहिए है कि वह अपनी पढ़ाई कुर्सी-मेज पर ही करता था; संयोगवश फाइनल परीक्षा का आखरी पेपर देने के बाद हम घर वापस आ रहे थे तो मैं सीधे उसके के घर ही चला गया। उसके घर जाकर देखा कि उसने मेज पर बोरी डाल रखी थी। मैंने उसे एक हाथ से खीच कर हटा दिया तो पाया कि उस बोरी के नीचे उसने वे किताबें छिपा रखीं थीं। यानी उसको जो किताबें खरीदनी थीं, उसने खरीद ली थी लेकिन मुझसे मना कर दिया था कि मैंने किताबे खरीदी ही नहीं।

मेज पर बोरी के नीच छुपाई गई उन किताबों को देखकर मैं अवाक रह गया। जब मैंने उससे से इस बावत बात की तो वह गुस्सा दिखाने लगा लेकिन मैं मन मसोसकर रह गया। उसका सिर शर्म से कुछ देर के लिए झुक जरूर गया था किंतु उसे इस हरकत का मलाल कतई नहीं था। पेपर तो हो ही चुके ठे। मैंने अपना गुस्सा दबाते हुए उससे कहा कि अब तो पेपर हो गए हैं। अबतो रिजल्ट देखना ही बाकी है। देखते हैं क्या होता है। रिजल्ट आने तक हम दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिले। रिजल्ट आया तो वह बारहवीं कक्षा में फेल हो गया और मैं 12वीं में पास हो गया। (मैं उस छात्र का नाम जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ क्योंकि किसी को नीचा दिखाना मेरा मकसद नहीं अपितु मानवीय घात-प्रतिघात से सावधान करना ही मेरा मकसद है।)

वह दिन मेरे लिए बहुत बड़ी सीख का दिन था। मुझे शिक्षा मिली कि जहां विश्वास होता है, अविश्वास भी वहीं होता है। घात-प्रतिघात के माने मैं पूरी तरह समझ गया था और भविष्य में अक्सर सदैव सजग रहने का प्रयास किया। किन्तु यदि किसी के मन की शान्ति को कोई बलात भंग करता है तो पीड़ित इस प्रकार की दुर्दांत पीड़ा को जीवनपर्यंत याद कर-करके, यदा-कदा ही सही, दुखी हो उठता है, क्योंकि उसे मन की शांति छीने जाने का कारण मालूम होता है….कि नहीं?

मैंने थोड़े ही कहा था, ‘मेरा टिकट भी ले लेना

सरस्वती काटन मिल, अबोहर : 1969 की बात है कि बुलन्दशहर रोजगार कार्यालय के माध्यम से सरस्वती कॉटन मिल, अबोहर में बंडल चेकर की नौकरी के लिए अबोहर गया। मेरे साथ एक लड़का और था। हम दोनों दिल्ली से साथ-साथ अबोहर गए थे। कंपनी की तरफ से हमें वहां रहने के लिए अलग-अलग कमरेदिए गए लेकिन कंपनी में हमें बंडल चेक करने की नौकरी न देकर साधारण बुनकर की नौकरी दी गई, जबकि रोजगार कार्यालय बुलंदशहर से हमें बंडल चेकर की नौकरी के लिए भेजा गया था। मेरे हाथों में छाले पड़ गए। बाद में हमने दिल्ली वापस आने का फैसला लिया। हमने दिल्ली से अबोहर जाने के लिए रेलगाड़ी पकड़ी। मैंने अपने साथी शेरा से मेरा टिकट लेने के लिए भी कहा लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने उससे कहा कि मैंने भी कि दिल्ली से अबोहर का तेरा भी किराया तो दिया था।कम से कम से कम वही पैसे मुझे लौटा दो लेकिन वह नहीं माना। कहा कि मैंने तेरे से थोड़े कहा था कि मेरा टिकट भी ले लेना, तूने अपने आप ही तो लिया था।


हमारे पास में गाड़ी में बैठे दो-तीन सरदार हमारी बातें सुन रहे थे। उनमें से एक सरदार ने मेरे साथी को पकड़कर उसे मेरे पैसे लौटाने के लिए कहा। वह फिर भी पैसे देने के लिए तैयार नहीं हुआ तो फिर उन तीनों सरदारों ने उस पर दबाव बनाया और तब उसने मेरे पैसे मुझे लौटाए। अबसरदारों ने मुझे ट्रेन से उतारा और कहा कि अब आप जाओ। मेरे साथी को उन्होंने वहां पकड़ कर रखा। इस प्रकार मैं दिल्ली से बुलंदशहर तक आया। बुलंदशहर आते-आते मेरी जेब में कुछ नहीं था। फिर मैं पैदल ही अपने बहन की ससुराल गया।

जीवन की राहों पर पहली साइकिल

दिल्ली आने के तुरंत बाद ओनिल्को कैमिस्ट के यहाँ काम करने के लिए एक साइकिल की जरूरत थी। मेरे पास न तो साइकिल थी और न ही साइकिल खरीदने के लिए पैसे। संयोगवश थोड़ी देर बाद ही रामभज जी के एक मित्र हकीकत राय आ गए। चाय पानी हुईफिर वो दोनों अपनी बातों में लग गए। मैं बैठा-बैठा उनकी बातें सुनता रहा। अचानक हकीकत राय रामभज जी से मेरे बारे में जानकारी लेने लगे। जब सारी जानकारी हकीकत राय जी को दे दी गई तो रामभज जी के मुंह से अचानक निकल पड़ा कि अब इसे एक साइकिल की जरूरत है। हकीकत राय जी बिना किसी सोच-विचार के बोले ये भी कोई बड़ी बात है। मैं आज साइकिल पर ही आया हूँकल ही खरीदी है। अब इसकी हो गई। हकीकत राय जी बोलेले साइकिल की जरूरत तो पूरी हो गईऔर बता। मैं साइकिल के कीमत पूछने लगा। तो हकीकत राय जी ने पैसे न लेने की बात आगे कर दी। किंतु मैंने कहा कि सर मुफ्त में तो मैं साइकिल नहीं लूंगाकीमत बतादें मैं दस रुपये महीने की किस्तों में अदा कर दूंगा।हकीकत जी और रामभज जी एक दूसरे की ओर देखने लगे। आँखों-आँखों में ही कुछ बात हुई और हकीकत राय जी बोलेठीक है पैसे देने ही हैं तो एक हजार रुपये 10 रुपये महीने की किस्तों में देते रहना। इतना सुनकर मैं सकते में आ गया कि नई रॉबिनहुड साइकिल की कीमत केवल 1000/- रुपये.. हकीकत राय जी बोल उठे मैं समझ रहा हूँ कि अब तू क्या सोच रहा है। अब कुछ भी सोचना बंद कर और ये ले साइकिल की चाबी


पहला अच्छा काम

मैं जब 16/17 साल का ही रहा हूंगा। मेरे भाई की लड़की की शादी होना तय हो गई थी। 60-70 के दशक में बारात दो रात और तीन दिन दुलहन के गाँव में रुका करती थी। गरीब/मजदूर लोग इस परंपरा को तोड़ने की बात तो करते थे किंतु आगे कौन आए यह साहस कोई नहीं कर पाता था। खैर! मैंने अपने भाई से बारात को केवल एक रात रोकने की बात की तो उत्तर में मुझे एक जोर का चाँटा मिला। साथ में यह ताना भी कि दो अक्षर क्या पढ़ गया, चला है हमें पढ़ानेपता है गाँव वाले क्या कहेंगे। यही न कि खाना खिलाने से मुंह चुरा लिया।

भाई के सामने बोलने का मुझमें साहस नही था। लेकिन भाई के चांटे ने मुझे और ताकत दे दी। अब चुपके-चोरी शादी में बिचौली कर रहे व्यक्ति से मिला। वह हमारे घर आतेजाते रहते थे इसलिए मुझे अच्छे से जानते थे। एक दिन मौका पाकर मैं उनके घर पहुंच गया। दुआ-सलाम हुईवह कहने लगे आज कैसे आया भई? अच्छीबात यह थी कि वह भी एक अग्रणी समाजसे

Read More! Earn More! Learn More!