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तेजपाल सिंह ‘तेज’ :: चाय-नाश्ता और मैं (प्रतियोगिता "चाय" और "तुम" के लिए - कहानी )

प्रतियोगिता "चाय" और "तुम" के लिए

 

कहानी :: तेजपाल सिंह ‘तेज’

चाय-नाश्ता और मैं

“कई दिनों के बाद आए हो । कहाँ गए थे?”

“घर गया था ।

"घर पर सब ठीक तो है

"हाँ, सब ठीक हैं। बस, बिटिया की तबीयत थोड़ी खराब चल रही है ।"

“अब कैसी थी बिटिया?”

“कुछ ठीक थी ।”

"कितने बच्चे हैं आपके? “

“बस दो ।"

“बैठोगे नहीं? आओ यहाँ मेरे पास बैठो । आना - जाना ठीक रहा ना ?"

“हाँ, ठीक रहा ।”

तुम बता कर क्यों नहीं गए?  मैं जाने क्या-क्या सोचती रही इन दिनों ?"

”मेरे बारे में?”

“और किसके बारे में?”

“मुझसे इतना स्नेह क्यों है तुम्हें? देखो, मैं एक परदेसी हूँ। कुछ ही दिनों में चला जाऊँगा। फिर तुम्हें और भी पीड़ा होगी।"

”क्यों मुझे साथ नहीं ले चलोगे?”

“कहाँ?"

“अपने साथ, और कहाँ।"

"सूजी तुम अच्छी तरह जानती हो, मैं बाल - बच्चे वाला आदमी हूँ ।”

"....तो मैं कौन तुमसे शादी रही हूँ । देखो! मैं दुनिया में अकेली हूँ । पति था । उसने मुझे नहीं, मैंने उसे छोड़ दिया है ।"

“क्यों? ऐसी क्या बुराई थी उसमें ?"

“बेरोजगार था । कुछ करता ना धरता । रोज पीने को चाहिए थी उसे।"

"बस इतनी-सी बात। काम तो कहीं ना कहीं, कभी ना कभी मिल ही जाता।"

“काम करने की नीयत हो तब ना।"

"थोड़ा समझाती - बुझाती उसे ।"

"बहुत समझाया, नहीं माना । वह तो मुझसे घंधा करवाना चाहता था। कई बार अपने दोस्तों को ले आता था हरामी। कहता, इनकी सेवा किया कर, सब ठीक हो जाएगा। बड़े पैसे वाले हैं ये ।

"अच्छा!"

"हाँ, कई बार मेरे साथ जोर - जबरदस्ती भी की उसने । उनके सामने मेरे कपड़े तक फाड़ दिए उस कमीने ने । एक बार तो मुझे जैसे नंगा ही कर दिया ।" किंतु मैं उसका कहा न कर सकी....दूसरे कपड़े-लत्ते पहने और निकल गए घर से.......।

"ऐसा क्या?"

“हाँ, आखिर मैं क्या करती? कब तक लड़ती - झगड़ती ? रोज शाम को पीकर आता । गाली - गलौज करता । मारता - पीटता । कब तक सहती यह ?"

“तो यह अहमद भाई आपके पति नहीं है?”

“नहीं, यह इस स्कूल के मालिक हैं । पति से बच कर यहाँ आ गई थी । इनके यहाँ नौकरी करने लगी। इन्होंने दया की और नौकरी के साथ-साथ स्कूल में ही रहने को एक कमरा भी दे दिया ।

पर.."

"पर क्या?”

“कुछ दिन ठीक - से गुजरे । यह रोज़ साँझ हुए यहाँ आने लगे । घंटों मेरे साथ बैठे रहते, बात - बात में हंसी मजाक पर उतर आते ...”

"फिर?”

“फिर क्या? आखिर यह भी तो मर्द ठहरे। मैं कब तक बचती ? बच कर जाती भी कहाँ ? पर लोगों की नजर में मैं इसकी दूसरी बीवी हूँ । बस ! बदनामी से बची हूँ, वरना ..."

"वरना क्या?”

“छोड़ो, कुछ नहीं । अब तो यही सोचती हूँ, कहीं सहारा मिले तो यहाँ से चली जाऊँ । जब से तुम्हें देखा है, तुममें कोई अपना - सा नजर आता है । सच मानो, मैं तुम्हारे परिवार के आड़े नहीं आऊँगी, अपना करूँगी। अपना खाऊँगी । किराए का मकान लेकार उसमें ही ट्यूशन पढ़ा‌ना शुरु कर दूँगी ....तुम आँखों के सामने रहोगे तो मैं बहुत कुछ मूल - सा जाऊँगी”

“ऐसा क्या है मुझमें?"

“सच बताऊँ? तुम्हारी शक्ल मेरे पति से मिलती है। मैं बहुत प्यार करती थी उसे ... अब भी मुझे याद आता है । पर मैं धंधा नहीं कर सकती थी ।"

"चलो ठीक है । पर मैं भी तो ....उन सा हो सकता हूँ । आखिर मैं भी तो एक मर्द हूँ ।”

"नहीं, तुम मर्द नहीं हो निरे आदमी हो । उन जैसे हो नहीं सकते ।”

“यह तुम कैसे कह सकती हो?”

"पिछले 15 दिनों में खूब सोचा-परखा है मैंने तुम्हें । तुम्हारे साथ पिक्चर भी देखी है, अंधेरे - उजाले में साथ बैठे - उठे भी हैं हम, वह भी एक चारपाई पर । कोई ओर होता तो अब तक.."

"हो सकता है, मैं ठंडा करके खाने में यकीन रखता हूँ ।"

“कतई नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता"

"क्यों?”

“भूल गए पिक्चर हॉल की बात? मैंने कई बार आपके हाथ पर हाथ रखा था, कई बार टाँगों से टाँग अड़ाई थी । पर तुम थे कि लड़कियों की तरह बचते रहे । 

मुझे समझाने पर उतर आए। और जानते हो, आग लगने में केवल क्षण भर का समय लगता है, दिनों-महीनों का नहीं। क्या कुछ नहीं किया, मैंने तुम्हारे साथ पिछले पन्द्रह दिनों में ।"

"हाँ, मेरे खुले पत्र के जवाब में, जो मैंने तुम्हारे कमरे की खिड़की से छुप कर अंदर डाल दिया था, तुम्हारी वह कविता ही काफी थी तुम्हें समझने के लिए ।”

”कौन - सी कविता ...?"

“इतने अनजान मत बनो।

“सच! मुझे मालूम नहीं है ।

“अच्छा? नहीं है तो ..... सुनो! मैं एक परदेसी हूँ/ मेरे नज़दीक मत आओ... / कल चला जाऊँगा/ फिर तुम्हें एक की नहीं/ दो की याद सताएगी/ अब एक की आग में जलती हो/ कल से दो की आग में जलोगी/ सुनो! मैं एक परदेसी हूँ कल चला जाऊँगा मेरे नजदीक मत आओ जल जाओगी।"

"यह मेरी कविता है?”

“फिर किसकी है? कितने बहाने ढूँढ़ोगे मुझसे बचने के ? "

“सुनो! रात के बारह बज चुके हैं। सो जाओ अब। "

"नींद आए तो सोऊँ ना?"

"आ जाएगी, कोशिश करो ।”

“खड़े क्यों हो गए? यहीं लेट जाओ ना" नहीं, अब चलता हूँ , शुभ रात्रि ।"

इतना कह मैं अपने कमरे पर आ तो गया पर सो नहीं पाया । सोचते सोचते पिछले 15 दिनों के घटना चक्र में डूब गया । मेरे यहाँ आने के दूसरे दिन की ही बात है

“साब..... मैं मातादीन, चाय-चाय-नाश्ता  लाया हूँ"

"ठीक है, मेज़ पर रख दो ।

“ठीक है साब! दाल के परांठे हैं...साब, जल्दी खा लेना, नहीं तो ठंडे हो जाएँगे"

रोज़ इसी तरह चाय-चाय-नास्ता आता । में खा लेता । एक दिन क्या हुआ कि चाय-नाश्ता  करते समय मेरे बॉस आ गए जो इसी स्कूल के दूसरे कमरे में रह रहे थे ... बोले. “अरे! अकेले - अकेले कर रहे हो चाय-नास्ता" ....

क्यों सर !  आपने नहीं किया"

नहीं तो, कहाँ से आता है"

सर ! में तो समझता था कि आप ही मुझे चाय-नाश्ता  भेजते हैं।“

"तो क्या चाय-नाश्ता  रोज आता है?"

“जी, सर “कौन लाता है ।”

“मातादीन, सर ।"

"कौन है यह मातादीन?”

“पता नहीं सर ।”

“मैंने कभी पूछा ही नहीं, समझता रहा कि आपने ही कोई व्यवस्था की होगी” “अच्छा! ... ठीक है ... कल पूछना उससे, कहाँ से कौन भेजता है?”

“ठीक है, सर ।"

अगले दिन...... "मातादीन! जरा यहाँ आओ।"

"जी साब”

"अरे! साहब को चाय-नाश्ता  नहीं पहुँचाते क्या ।"

"जी नहीं साब! मैडम केवल आपके लिए चाय-नाश्ता  भेजती हैं।"

“मैडम ... कौन-सी मैडम"

"साब! सूजी मैडम, इस स्कूल में टीचर हैं ।"

”टीचर और चाय-नाश्ता ? और वह भी मुझ अकेले को ... कुछ समझ नहीं आया ..

“क्या साब”

“कुछ नहीं । अच्छा सुन, कल से चाय-नाश्ता  मत लाना ।"

“क्यों साब?”

“अरे तू नहीं समझेगा। साहब को चाय-नाश्ता  नहीं मिलता ना, नाराज हो जाएंगे।”

“ठीक है साब ... मैं मैडम को बोल दूंगा ।" (चला जाता है ।)

... फिर अगले दिन मेरे बास आए और आश्चर्य से पूछा" अरे! तूने अभी चाय-नाश्ता  नहीं किया ? बहुत स्वादिष्ट पराँठे हैं, दाल के। खा ले वरना ठंडे हो जाएंगे ।"

“आपको कैसे पता, सर?”

“अरे! आज मातादीन मेरे लिए भी चाय-नाश्ता  लाया था... “अच्छा!”

”हाँ, अब कर ले चाय-नाश्ता  । फिर ऑफिस चलते हैं ।”

रोज ऐसा ही सिलसिला चलता रहा । अब सूजी मुझे और मेरे बॉस को भी चाय-नाश्ता  भेजने लगी थी । साँझ को स्कूल के प्रांगण में सब साथ-साथ होते, बातें करते । लगता, जैसे सब एक ही परिवार के हैं । एक दिन की बात है, छुट्टी का दिन था । मातादीन चाय-नाश्ता  लेकर आ गया उसने दरवाजा बजाया । अरे! चाय-नाश्ता  ले आये मातादीन...

“अच्छा, आज एक काम और कर दो।

“क्या साव?”

“जरा बाजार से सूई धागा तो खरीद ला ।”

”क्यों साब?”

“कमीज़ में बटन लगाने हैं।"

"अच्छा साब।"

"मैडम, मैं ज़रा बाज़ार जा रहा हूँ ।”

"क्यो ?"

“साब ने सूई घागा मंगवाया है”

"क्यों"

“कमीज़ में बटन लगाने हैं ।”

“अच्छा तो ऐसा कर, साहब से कमीज़ ले आ । मैं लगा दूंगी।”

“जी! मैडम, जाता हूँ ...

“साब”

“हां, ले आया सूई धागा।"

“नहीं साब! मैडम ने कमीज़ मंगाई है। कहती हैं, मैं लगा दूंगी।"

"तूने मैडम को क्यों बताया?”

“बताया नहीं साब । मैंने बाज़ार जाने को कहा था उनसे । वह पूछ बैठीं, क्यों? फिर मैंने सब कुछ बता दिया ।"

“पागल है तू । जा, में खुद ले आऊँगा”

"नहीं साब। मैडम ने कमीज़ मंगाई है। नहीं ले गया तो मुझे झाड़ पड जाएगी"

"अच्छा! अब...बस कर... ओर जा ।" 

मातादीन तो चला गया किंतु मेरी नजर में आया कि मैडम कुछ तेवर में मेरी तरफ आ रही थी। मेरे पास आते ही उनकी पहला ही सवाल था ....

“तुमने मातादीन को कमीज़ क्यों नहीं दी? मुझे अच्छा नहीं लगा।"

”क्यों ?

“क्या हो जाएगा इसमें ? मैं घिस जाऊँगी क्या ?"

“नहीं यह बात नहीं है।"

"लाओ, इधर लाओ कमीज़ छोड़ो,  क्या मेरा सुकून तुम्हें पसंद नहीं?....... इस प्रकार हम दोनों के बीच की दूरी घटती गई । इस दिन के बाद एक और एक संदर्भ जुड़ता चला गया। घर और परदेस का अंतर भी जैसे मिट सा गया । एक तरफ मुझे परदेस का डर सताता, दूसरी और उसकी पीड़ा और अपनत्व मुझे अपनी ओर खींचता। बड़ी असमंजस्य भरी स्थिति थी मेरी। अपनों की तरह इन्तज़ार करती थी वह मेरा। लेकिन मैं मन ही मह परेशान रहता था। यह चर्चा बंद ही हुई थी ....कि इस बीच मेरे बॉस की पत्नी और बच्चे भी आ गए । बास की पत्नी उम्र दराज थीं। मातादीन के जरिए मेरे और सूजी के बीच की बात उन तक भी पहुंच गई। मैं अपने बॉस की पली को 'अम्मा' कहता था ।

एक दिन ऑफिस से लौटा ही था कि "आ गए बेटा ।"

“हाँ! अम्मा ।"

“आओ! इघर बैठो मेरे पास ।"

“जी अच्छा।"

“एक बात कहूँ।"

“जी कहो।"

"सूजी तुम्हें बहुत प्यार करती है। सारे दिन तुम्हारी बातें करती रहती है। छोटे साहब ऐसे हैं ... छोटे साहब वैसे हैं। पता नहीं क्या - क्या बात करती है। बेटा! सूजी बड़ी अच्छी लड़की है।"

“अम्मा! तुम नहीं जानती कि मैं.......

“मैं सब जानती हूँ, तू शादीशुदा है, बाल-बच्चेदार है और.....”

"अम्मा फिर भी तुम उसकी बातों में आ गई? आखिर वह मुझसे चाहती क्या है ?"

“बस! इतना कि जब तक हम यहाँ हैं, तू उससे दूरी मत रख .... उसके साथ बैठा कर.... उसके साथ घूमा कर और देख! तेरे साथ होने से उसे बहुत सुकून मिलेगा।"

“मगर कब तक? कल कुछ और हो गया तो ?"

“कुछ नहीं होगा । वह बहुत समझदार लड़की है और तू भी। सब कुछ समझती है । देख! कुछ ही दिनों की बात तो है। काम पूरा हो जाएगा। हम सब यहाँ से चले जाएंगे। फिर सब कुछ अपने आप खत्म हो जाएगा"

“मैं ऐसा नहीं समझता..."

“तू कैसा आदमी है रे!  कुछ दिन के लिए तू किसी का दुख नहीं बाँट सकता ? भूल गया मेरे आने से पहले के वे दिन, जब रोज सवेरे तुझे वह चाय-नाश्ता  भेजती थी। तेरी कमीज में बटन टाँकती थी? क्या लगता है तू उसका? जो तेरी इतनी चिन्ता रखती है ... देख बेटा!  दुनिया में सब एक से नहीं होते। वह ऐसी लड़की नहीं है। तेरी कविता पढ़ाई थी उसने हमें । उसे बड़ी अच्छी लगती है । कई - कई बार पढ़ती है उसे दिन भर में ।"

"ठीक है पर कविता का भाव क्यों नहीं समझती ?"

“समझती है ...अच्छी तरह समझती है। तभी तो पढ़ती है उसे बार-बार । कल तेरी एक किताब भी आई थी, जिसमें तेरी जीवनी छपी (1981) है । उसको भी उठा ले गई । कहती है, इसे में अपने पास ही रखूंगी। लौटाऊँगी नहीं।"

"अच्छा ठीक है... और कुछ”

"और कुछ नहीं। चल! अब हाथ-पैर घोकर चाय पी ले ओर सुन, हम तेरे सगे नहीं हैं पर तू हमारा सगा सा है। तेरा बुरा नहीं चाहेंगे। ले! वह तेरा इंतजार करते करते वो भी गई है । जरा मिल आना उससे"

"......ठीक है?”

इसके बाद की अवस्था कुछ सहज तो अवश्य हुई थी । फिर भी मैं प्रायः विचारों के झंझावात में फंसा रहता। सोचता रहता सूजी बड़ी पागल है। कुछ सोचती ही नहीं। खैर दिन गुजर गए। संवेदनशीलता बढ़ती गई। रोज का मिलना-जुलना बेशक जारी रहा। पर मैं परिस्थिति से समझौता नहीं कर पाया । मन ही मन आशाओं और शंकाओं के बादल उमड़ते और छंट जाते । पता नहीं, क्या - क्या सोचता रहता रात भर कि सुबह के चार बज गए। नींद जाने कहाँ चली गई । पाँच बजे मातादीन चाय लेकर आ गया।"

"साब! पाँच बज चुके हैं । आज सोते ही रहेंगे क्या? चाय पी लीजिए।"

“नहीं, आज मैं चाय नहीं पीऊँगा। वापस ले जा।”

“साब! पी लो ना । मैडम मुझ पर नाराज़ होंगी ।"

“होने दे! मैं आज चाय नहीं पीऊँगा ।"

“साब! एक बात कहूँ, चाय पी लो साब। मैडम ने खुद बनाई है। वैसे भी आज मैडम सारी रात नहीं सोई।"

“अच्छा रख दे यहाँ मेज़ पर...."

"साब, पी लेना इसे, फेंकना मत... साब"

“अच्छा जा... पी लूंगा ।”

”साब!"

"अब क्या है?”

“साब! मैडम बहुत परेशान रहती हैं । जब से आप आए हैं ना साब, मैडम थोड़ा हँस - बोल लेती हैं, वरना वर्षों से चुप ही देखा है मैंने उन्हें...साब ! कुछ करो ना मैडम के लिए ।

"क्या करूं?”

“मैं क्या जानूँ साब?”

इतना कहकर मातादीन तो चला गया। पर सूजी के ना सोने की बात सुन कर मैं और भी उलझ गया। मन किया कि उस कहानी को यहीं बन्द कर दूं। कहीं और जाकर रहने लगूं। अन्ततः स्कूल में न रहने का फैसला कर ही लिया। स्कूल में न रहने की बात मैं किसी से कर तो नहीं पाया, पर बात तो खुलनी ही थी, खुल गई ।

“सुना है, तुम कहीं और रहने जा रहे हो?”

“किसने कहा?”

“मातादीन ने ।”

“हाँ, उसने सच ही कहा है ।”

“कहाँ रहोगे।"

“ऑफिस का ही एक लड़का है। अकेला रहता है। बस! उसी के साथ।"

“यहाँ क्या परेशानी है।"

"मैं कुछ तुतलाते हुए बोला कि कुछ भी नहीं।”

“तो मुझसे दूर जाना चाहते हो?”

“ऐसा नहीं है सूजी। क्यों हर बात को अपने से जोड़ लेती हो? आखिर मुझे आज नहीं तो कल जाना ही है। फिर कौन सा शहर छोड़ कर जा रहा हूँ।"

“शहर ही क्यों नहीं छोड़ देते?”

“तुम सचमुच पगला गई हो। सूजी! क्या तुम नहीं जानती कि मेरे नज़दीक आकर तुम एक पीड़ा और खरीद रही हो ? "

“पीड़ा मैं खरीद रही हूँ और चिंतित तुम हो? क्यों ? "

“पूछना चाहती हो तो सुनो - मैं नहीं चाहता कि तुम्हें मेरी याद जीवन भर सताती रहे। मुझे आज की नहीं, तुम्हारे कल की चिंता है। योड़ी-सी दूरी तुम सह नहीं पातीं, जीवन भर की दूरी कैसे सहोगी? कैसे बँधाओगी ढांढस अपने आप को? मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हें कभी भुला पाऊँगा। फिर तुम कैसे भूल पाओगी मुझे?। ...सूजी ! सुनो, मेरी ओर देखो...देखो इन आँखों में। सच ! मैं तुम्हें घोखा देना नहीं चाहता। मेरा यकीन करो। आज की परिस्थिति में तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकता।"

"इतना तो कर सकते हो, जब तक इस शहर में हो , यहीं इसी स्कूल में रहो । हाँ, मैं यकीन दिलाती हूँ कि जब तक तुम यहाँ रहोगे, मैं तुम्हारे सामने कभी नहीं आऊँगी। बस ! अपने कमरे की खिड़की कभी बन्द मत करना..."

इतना कहना था कि सूजी फफक कर रोने लगी। मैं भी अपने आप को नहीं संभाल पाया। सूजी मेरे कंधों पर झूल गई। हम सहसा आलिंगनवद्ध हो गए। दोनों की आवाज सूख गई। बहुत देर तक सन्नाटे की तटस्थता बनी रही। फिर सूजी एकदम उठी और तेजी से बाहर चली गई । मन ही मन मैंने भी स्कूल छोड़ने का इरादा बदल दिया । मैं उठा और खिड़की खोल दी। मैं जितने दिन भी वहीं रहा, खिड़की खुली रही, पर सूजी फिर कभी नज़र नहीं आई। आखिर मेरा शहर छोड़ने का दिन आ ही गया। चलते-चलते मैंने कमरे की खिड़की बन्द ही की थी कि सूजी मेरे सामने चाय लिए खड़ी थी...चुपचाप एक मूरत सी। आँखों में आँसू लिए जैसे कह रही हो, अलविदा। मैं एक ही सांस में चाय पी गया किंतु मैं चाह कर भी उससे कुछ न कह सका। उससे आँख मिलाने की हिम्मत तक नहीं हो रही थी। मैंने अपना सामान उठाया और मन मार काड़ा चलता बना... आखिर जाना तो था ही। 0000


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