
तेजपाल सिंह 'तेज' : आखिर संघी बी. एन. राव को डॉ अंबेडकर के समानान्तर क्यों खड़ा करना चाहते हैं?
आखिर संघी बी. एन. राव को डॉ अंबेडकर के समानान्तर क्यों खड़ा करना चाहते हैं?
हाल ही में ग्वालियर हाई कोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के प्रयास ने एक अप्रत्याशित और बहुस्तरीय विवाद को जन्म दिया। वकीलों के एक वर्ग द्वारा इस पहल का स्वागत किया गया, जबकि दूसरे समूह ने यह कहते हुए आपत्ति उठाई कि न्यायालय परिसर में किसी भी प्रकार की स्थायी संरचना या मूर्ति स्थापना के लिए भवन समिति की पूर्व अनुमति आवश्यक है, जो इस मामले में प्राप्त नहीं की गई थी। किंतु यह तकनीकी आपत्ति शीघ्र ही वैचारिक और सांप्रदायिक रंग लेने लगी, जिसमें अंबेडकर की भूमिका, विचारधारा और प्रतीकात्मकता को निशाना बनाया गया।
संवैधानिक भूमिका पर प्रश्न या दलित प्रतीकों से असहजता?
इस विवाद का सबसे चिंताजनक पहलू यह था कि प्रतिमा-स्थापन के विरोध के बहाने कुछ वक्ताओं ने अंबेडकर की वैचारिक विरासत और संवैधानिक योगदान को प्रश्नांकित करना शुरू कर दिया। एक पक्ष का तर्क था कि वे अंबेडकर की मूर्ति के नहीं, बल्कि उसके ‘दुरुपयोग’ के विरोधी हैं। जब यह ‘दुरुपयोग’ स्पष्ट किया गया, तो उसमें अंबेडकर को संत मानने, उनके अनुयायियों के व्यवहार और न्यायिक परिसर की 'पवित्रता' जैसे भावनात्मक और अस्पष्ट तर्क सामने आए। यह प्रत्यक्षतः दलित प्रतीकों की सार्वजनिक उपस्थिति के प्रति एक गहरी वैचारिक असहजता को उजागर करता है। यह कहना कि “जब अंबेडकर को संत की तरह पूजा जाता है, तो न्यायालय परिसर में उनकी मूर्ति लगाना संस्थान की गरिमा के विरुद्ध है,” दरअसल उस पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति है, जिसमें संवैधानिक मूल्यों और संस्थानों में दलित नेतृत्व की भागीदारी अभी भी अधूरी और अस्वीकार्य मानी जाती है।
बी. एन. राव बनाम अंबेडकर: एक भ्रामक बहस
प्रतिमा-विरोध की आड़ में यह प्रश्न भी उठाया गया कि संविधान का 'असली निर्माता' कौन है — डॉ. अंबेडकर या बी. एन. राव? यह बहस नई नहीं है, लेकिन इसका पुनरुत्थान अक्सर राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित होता है। यह निर्विवाद सत्य है कि बी. एन. राव ने संविधान के प्रारूप लेखन में तकनीकी सलाहकार की भूमिका निभाई। उन्होंने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संविधानों का अध्ययन कर एक प्रारंभिक मसौदा तैयार किया। किंतु संविधान सभा द्वारा उस मसौदे में व्यापक संशोधन कर उसे भारत के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के अनुरूप ढालने का कार्य डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में बनी प्रारूप समिति ने ही किया। स्वयं बी. एन. राव ने 30 नवंबर 1948 को अपने पत्र में अंबेडकर के योगदान को “पुनर्जन्म देने वाला” बताते हुए उन्हें संविधान का “सच्चा निर्माता” कहा था।
इस ऐतिहासिक स्वीकारोक्ति को दरकिनार कर अंबेडकर के योगदान को छोटा साबित करना एक वैचारिक पूर्वग्रह का हिस्सा लगता है, जिसका उद्देश्य दलित नेतृत्व की ऐतिहासिक भूमिका को निष्क्रिय करना है।
प्रतिक्रिया से प्रतिशोध तक: भीम आर्मी और 'संवैधानिक आतंकवाद'
ग्वालियर की घटना के बाद सोशल मीडिया पर अंबेडकर समर्थकों, विशेषकर भीम आर्मी जैसे संगठनों को 'पाकिस्तानी आतंकवादी' कहकर संबोधित करना न केवल निंदनीय है, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक चरित्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा प्रहार है। यह चिन्हित करता है कि किस प्रकार प्रतीकात्मक प्रतिमा स्थापना को 'संवैधानिक आतंकवाद', 'सनातन विरोध' जैसे जुमलों से जोड़कर एक सुनियोजित वैमनस्य फैलाने का प्रयास किया गया। यह भाषा लोकतंत्र की नहीं, बल्कि दमन की है — जो न केवल असहमति की हत्या करती है, बल्कि सामाजिक समरसता और संस्थागत समावेशिता को भी धूमिल करती है।
आलोचना या दमन का छद्म?
एक वकील ने कहा, “मेरे आलोचकों ने ही मुझे मंच पर बोलने लायक बनाया।” यह कथन सुनने में विनम्र लगता है, परंतु उसमें छिपा कटाक्ष यह बताता है कि आलोचना को लोकतंत्र का औजार कहने वाले, जब अंबेडकर के विचारों की आलोचना करते हैं, तो वह रचनात्मक नहीं, बल्कि दलित चेतना पर हमला होता है। यह समझना आवश्यक है कि आलोचना और असहमति के बीच एक महीन रेखा होती है — जिसे पार कर लेने पर वह दमन और अस्वीकार्यता का रूप ले लेती है।
यह तर्क कि “न्यायालय परिसर पवित्र है, इसलिए वहाँ अंबेडकर की मूर्ति नहीं लगनी चाहिए,” एक मूलभूत प्रश्न खड़ा करता है — क्या अंबेडकर और उनके विचार न्यायिक संस्थाओं की 'पवित्रता' के बाहर हैं? यह विरोध दरअसल मूर्ति के स्थान का नहीं, बल्कि अंबेडकर की 'स्थानिकता' (Situatedness) का विरोध है अर्थात उस ऐतिहासिक भूमिका को उस स्थान पर अस्वीकार करना, जहाँ वह सबसे अधिक प्रासंगिक है। यह सांस्कृतिक विस्मरण की राजनीति है, जिसमें अंबेडकर को केवल किताबों में सीमित रखने की चेष्टा की जा रही है, न कि सार्वजनिक स्मृति और संस्थानों में जीवित रखने की।
बी. एन. राव को भारत रत्न: पुनर्स्थापन या प्रतिस्थापन?
कुछ वकील वक्ताओं ने यह प्रस्ताव भी रखा कि बी. एन. राव को भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए, क्योंकि अंबेडकर को यह सम्मान 1990 में मिला था। यह मांग केवल एक सम्मान की बात नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक नायक गढ़ने की राजनीति प्रतीत होती है — जिससे अंबेडकर की ऐतिहासिक और वैचारिक भूमिका को प्रतिस्थापित किया जा सके। बी. एन. राव का योगदान महत्त्वपूर्ण था, लेकिन उन्हें अंबेडकर के समकक्ष या उनके स्थान पर प्रस्तुत करना न केवल ऐतिहासिक तथ्य के साथ छल है, बल्कि यह दलित चेतना के प्रतिरोध का एक सुस्पष्ट संकेत भी है।
मूर्ति एक प्रतीक नहीं, प्रेरणा है। यदि कोई यह कहता है कि “अंबेडकर संविधान के पिता ही नहीं, माता भी हैं,” तो यह मात्र एक विशेषण नहीं, बल्कि एक गहन वैचारिक सत्य है। संविधान को जीवन, संवेदना और न्याय का स्वरूप देने में अंबेडकर की भूमिका केवल तकनीकी नहीं थी — वह उसकी आत्मा के शिल्पकार थे। बी. एन. राव को हम कंसल्टिंग इंजीनियर कह सकते हैं, लेकिन आर्किटेक्ट वही होता है जो खाके को जीवंत इमारत में बदल दे।
ग्वालियर की यह घटना सिर्फ एक प्रतिमा विवाद नहीं है, अपितु यह भारत की न्याय प्रणाली, उसकी स्मृतियों, और लोकतांत्रिक मूल्यों की अग्नि-परीक्षा है। अंबेडकर की मूर्ति यहाँ एक पत्थर नहीं, एक विचार है — जो हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल बहुमत नहीं, बल्कि समावेश का नाम है।
नई दुनिया प्रतिनिधि, ग्वालियर — ग्वालियर हाई कोर्ट खंडपीठ परिसर में डॉ. भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा लगाने को लेकर शुरू हुआ विवाद अब एक गहरे वैचारिक टकराव का रूप ले चुका है। यह बहस अब डॉ. आंबेडकर और संविधान सलाहकार/विशेषज्ञ बेनेगल नरसिंह राव (बी.एन. राव) की भूमिका तक पहुँच गई है। जहां एक ओर कांग्रेस और दलित संगठनों का आरोप है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की विचारधारा से जुड़े कुछ वकील आंबेडकर विरोधी मानसिकता के कारण प्रतिमा का विरोध कर रहे हैं,