पुस्तक समीक्षा
इतिहास : जातिवाद का अखाड़ा या...
-ईश कुमार गंगानिया
प्रो. श्यामलाल और डा. कमलेश कुमार सारसर की अंग्रेजी में प्रकाशित एक साझा पुस्तक 'अनसंग अनटचेबल हीरोज ऑफ फ्रीडम स्ट्रगल' आई है। हिन्दी में इसे 'स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम अछूत नायक' कह सकते हैं। इस पुस्तक का पढ़ते हुए मुझे लगा कि जिस इतिहास को हम अनेक उपयोगी व उत्साहवर्धक संबोधनों की रोशनी पढ़ते-लिखते हैं, मि. लाल और डा. सरसार की पुस्तक इतिहास को 'जातिवाद के अखाड़े' यानी षडयंत्रों के रूप में देखने पर विवश करती है। जगजाहिर है कि भारत में जाति का जहर इतना विषैला है कि इसने जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं छोड़ा जिसने व्यक्ति की मानसिक विकलांगता का पोषण न किया हो। मैं ‘जाति’ को वर्चस्ववादी समाज और राजनीति की अवैध संतान मानता हूं। जहां में ‘लेखक’ शब्द का प्रयोग करता हूं, मेरा आग्रह कि पाठक इसे प्रो. लाल और डा. सारसर यानी एक ‘युग्म’ ही समझें। लेखक यह पुस्तक क्यों, का कारण कुछ इस प्रकार बताता हैं’—‘हिंदू अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना की कल्पना नहीं कर सकते। उन्होंने अछूतों को ‘कमजोर’, ‘अशिक्षित’ और ‘उत्पीड़ित’ के रूप में चित्रित किया, जो बकवास है। इससे दिल टूट जाता है और ‘अनसुने अछूत नायक’ पुस्तक लिखने के लिए मजबूर होना पड़ता है।1लेखक पुस्तक के फलक को स्वतंत्रता आंदोलन तक सीमित न रखकर पहली सदी से वर्तमान तक जातिवादी षडयंत्रों और इसके विरुद्ध आंदोलनों को इसका हिस्सा है।
पुस्तक के मुख्य विषय पर बात करने से पहले मुझे जातिवाद के विरुद्ध आंदोलनों को समझना जरूरी महसूस हो रहा है क्योंकि यह पुस्तक के बड़े स्पेस को कवर करता है। इसे अछूत जय चंद मोहिल से शुरु करते हैं। वह राष्ट्रीय आंदोलन में काफी सक्रिय था लेकिन उसे जातिवादियों का विरोध झेलना पड़ा। मोहिल ने जब जागीरदारों, जमींदारों और उच्च जाति के हिंदुओं के जातीय पूर्वाग्रहों का विरोध किया तो मोहिल को बेरहमी से पीटा व प्रताड़ित किया गया और उसकी दोनों आंखों में गर्म लोहे की छड़ें चुभो दी गईं।’2भूरा लाल भी जातिवाद से लड़ने के कारण एक प्रकार से स्वतंत्रता संग्राम से बाहर थे। वे लाल सिंह बलाई, जीवन सिंह धानका आदि के साथ मुख्य बाजार में जुलूस निकाल रहे थे। इसलिए गिरफ्तार हुए और जयपुर सेंट्रल भी गए।’3 इस कड़ी में रैगर मूलचंद मौर्य को 1937 से 1945 तक एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जागीरदारों, जमींदारों और उच्च जातियों के खिलाफ बैठकें, आंदोलन और विरोध प्रदर्शन करने पड़े और 1945 में उन्हें जागीरदारों, जमींदारों ने निर्दयतापूर्वक प्रताड़ित, अपमानित किया और पीटा गया।4
लेखक सामाजिक इतिहास न पढ़ाए जाने का कारण ‘जातिवाद’ मानता है। इसे प्रमाणित करने के लिए लेखक सोनल श्रीवास्तव द्वारा डायना व माइकल प्रेस्टनो के साक्षात्कार में पूछे गए एक सवाल का जिक्र करता है—‘स्कूलों और विश्वविद्यालयों में ज्यादातर राजनीतिक इतिहास क्यों पढ़ाया जाता है और सामाजिक इतिहास को बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया जाता है?5 डायना के अनुसार—'इतिहास केवल शासकों और प्रभावशाली लोगों के बारे में नहीं है, यह उन सभी लोगों के बारे में है जिन्होंने समाज का निर्माण किया और इसमें भूमिका निभाई या शायद उन्हें भूमिका निभाने का अधिक मौका नहीं मिला, उन्हें कठोर श्रम के रूप में इस्तेमाल किया गया। उनका अनुभव प्राप्त करना कठिन है, लेकिन यह समझने में उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम आज जहां हैं, वहां कैसे पहुंचे। प्रेस्टन इसमें जोड़ते हुए बताते हैं—'स्टीरियोटाइप लोग...विविधता के लिए बहुत कम जगह छोड़ते हैं... हमें गंभीरता से ऐसा करना बंद करना होगा और चीजों को अलग तरह से देखना शुरू करना होगा।’6
ब्रिटिश राज के दौरान, एससी/एसटी समुदायों ने इस रवैये के खिलाफ विद्रोह किया। लेकिन पूर्वाग्रही इतिहासकारों का तर्क था—'मुख्य मुद्दा बलिदानों को शामिल करना है। सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में समाज के कमजोर वर्गों की वीरता, साहस, कला, शिल्प आदि का जाति के आधार पर नहीं, जैसा कि सवर्ण हिंदू इतिहासकारों ने ऊंची जातियों के लिए किया था।’ यह तर्क डायना और माइकल प्रेस्टनसे मिलता है जिन्होंने "सबाल्टर्न स्टडीज" पर अधिक जोर दिया। लेकिन इतिहास ज्यादातर उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा लिखे गए थे। अछूतों की क्षमता का वर्णन करना किसी लिखित या मौखिक परंपरा का हिस्सा नहीं था।’7 लेखक की पीड़ा अछूतों के योगदान को इतिहास में दर्ज करना और कराना है। इसलिए वह 1914 में भोजपुरी कवि हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’, को पुस्तक में शामिल करता है। वह बताता है कि जाति व्यवस्था कितनी कठोर और अमानवीय हो गई और इससे भंगियों में निराशा बढ़ती गई, फिर भी उन्होंने अपने संघर्ष को दूर करने के लिए दूसरे धर्म में धर्मांतरण के विकल्प के बारे में सोचा।8
लेखक अछूत की शिकायत तक नहीं रुकता, वह जातिवादियों की श्रेष्ठता के मुखौटे को हटाते हुए टिप्पणी करता है—जैसे ब्राह्मण भीख मांगते हैं, हम भीख नहीं मांगते, जैसे ठाकुर दूसरों पर अत्याचार करते हैं, हम ऐसा नहीं करते, उसी प्रकार बनिया दूसरों को ठगते हैं, हम ऐसा नहीं करते।...हम अपनी आजीविका कड़ी मेहनत और समान रूप से साझा चीजों से कमाते हैं।’9लेखक दलितों के उत्तम चरित्र के वर्णन तक नहीं रुकता, वह जातिवादियों के डर और कायरता के विषय में बताता है—‘मातादीन भंगी, भाई जैता, बैरवा, रैगर, मेघवाल, चमार आदि...निस्वार्थ भाव से सच्चे अर्थों में देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे। न उनका कोई गॉड फादर था और न ही उन्हें पता था कि उनके भविष्य के साथ क्या होने वाला था। मगर जातिवादीवादियों का घटियापन देखिए कि वे उनकी वीरता, शौर्य, साहस और कुर्बानियों को अनदेखा कर रहे थे और इतिहास में जगह देने को भी तैयार नहीं थे।’10
इस कड़ी में लेखक आगे जातिवादियों की इतिहास के साथ की बेईमानी के विषय में कहता है—‘जो लोग अस्पृश्य लोगों के साहस और शौर्य से ईर्ष्या करते थे, उन्हें डर था कि कहीं ये अस्पृश्य हीरो न बन जाएं। इसलिए उन्होंने अपनी बौद्धिकता का प्रयोग किया और अस्पृश्यों के अद्वितीय साहस और शौर्य को अनदेखा किया। अस्पृश्यों ने सुविधाभोगी जातिवादियों की हैसियत को चुनौती दी और पाया कि उनका डर, कमजोरी, ईगो सब तुच्छ किस्म के निकले।’11 स्पष्ट है, जातिवाद को जिंदा रखने के पीछे भी जातिवादियों का डर, ईगो और खोखलापन ही जिम्मेदार है। क्या 2017-18 का भीमा कोरे गांव एल्गर परिषद का मसला जिसमें वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बड़े, स्टेन स्वामी, वर्नोन गोंजाल्विस अरुण फरेरा आदि प्रमुख कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी लेखक के मूल्यांकन को प्रमाणिकता नहीं करती?
इतिहास गवाह है कि कबीर और रैदास जैसे संत इतिहास की ऐसी ही साजिशों के शिकार बने। ये लोग आज भी इन्हें पूर्व जन्म के ब्राह्मण या ब्राह्मणी की संतान सिंद्ध करने पर लगे हैं। लेखक ‘अहिंसा’ शब्द का श्रेय गांधी जी को देने को तैयार नहीं है। उसका तर्क है—‘ब्रिटिश भारत में चांडालों द्वारा 1873 में की गई पहली अहिंसक हड़ताल को इतिहास लेखन में बमुश्किल ही मान्यता दी गई है। जब टॉलस्टॉय ने अहिंसा पर लिखा था, तब गांधी एक शिशु थे। गांधी उनके लेखन से इतने प्रभावित थे कि अहिंसा शब्द का पहली बार इस्तेमाल 1873 में चांडालों (भंगियों) द्वारा की गई हड़ताल के दौरान किया गया था। लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया।’12 मगर जहां तक ‘अहिंसा’ शब्द के प्रयोग का मसला है, इसकी जड़ें महावीर और बुद्ध काल में पहले से मौजूद रहीं है, खैर...। लेकिन दीगर हकीकत यह है कि अभिजात वर्ग की दूसरों की विरासत पर करने की प्रथा सदा से रही है, आज भी है।
लेखक अपने इतिहास सृजन दलित समाज की जिम्मेदारी मानता है और इस दिशा में कार्य हो रहा है। इस कड़ी में लेखक अपनी पुस्तक के एक नायक नासिर-उद-दीन खुसरव शाह, यानी खुसरव को अछूत नायक बताते हुए कहता है—‘खुसरव ने बड़ी संख्या में अपने दल के सैनिकों का नेतृत्व किया...उसे पहले ‘खुसरव शाह’ व बाद में ‘सुल्तान’ की उपाधि मिली...अंतत: खुसरव एकमात्र धर्मांतरित अछूत था, जो पहला अछूत सम्राट बना। यह विद्रोह भारत में खिलजी इतिहास का एक अनूठा हिस्सा था, लेकिन दुर्भाग्य से इसे उच्च जाति के इतिहासकारों, विद्वानों, लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा नजरअंदाज कर दिया।’13 लेखक अपने तर्क के पक्ष में अनेक उदाहरण पेश करता है जैसे—‘…खुसरव, जिनका परिवार और जाति/गुजरात से संबंधित था, खुसरव जिसका असली नाम अज्ञात है, को अन्य लोगों के साथ पकड़ लिया गया था।’ ...‘खुसरो जाति से परवरी अछूत था, जो सभी प्रकार के मांस खाता है और इतना गंदा रहता है कि गंदगी के कारण इसे नगर में मकान बनाकर नहीं रहने दिया जाता।’…यूरोपियन इतिहासकार ‘बुल्जालेय हैग’ के अनुसार-‘नीच खुसरव उन नीच जातियों, जिसका मुख्य पेशा मेहतर का होता है और जो उन मृत पशुओं का मांस खाता है जिन्हें घूरे या खेत से बाहर फेंकना उनका काम है।’…कुछ इतिहासकारों ने खुसरव को भारवाद या भारवार कहा है, गुजराती डिक्शनरी के अनुसार इसका अर्थ ‘गडरिया’ है।‘ 14
कुछ इतिहासकार उपरोक्त सभी तथ्यों को नकार कर खुसरव को ‘परमार राजपूत’ बताते हैं। अंत में लेखक वीडी सावरकर को उद्धृत करता है-‘यह लड़का मूलतः हिन्दू जाति का हिंदुओं में भी गुजरात के अस्पृश्य वर्ग की परिया अथवा परवार (भंगी) नाम जाति का था।...वह सुंदर हिन्दू युवक को ‘हसन’ नाम से मुसलमान बनाकर सुल्तान की सेवा में रखा गया।15 सावरकर के इस स्टेटमेंट के बाद लेखक और अर्शिवादी लाल जाति के मतभेद को समाप्त मानते हैं।
इस संदर्भ में मेरा तर्क है—‘जिस बालक के राज्य, परिवार, जाति और नाम तक को लेकर इतने विवाद हैं, कैसे मान लें वह अछूत था। अगर वह अछूत था तो प्रश्न उठता है कि उसने अछूत पहचान के चलते कौन से कीर्तिमान स्थापित किए हैं? उसकी जीवनशैली में मूल रूप से राजनैतिक खुराफात से भरी है, जिसमें नैतिकता व इंसानी मूल्य सिरे से नदारद हैं। खुसरव हर जगह मुस्लिम है, उसमें हिंदू अछूत कहीं नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी भी मुस्लिम या अन्य धर्म के व्यक्ति के कार्य का अनुकरणीय नहीं हो सकते, बिल्कुल हो सकते हैं। लेकिन मुझे खुसरो में अछूत नायक से कहीं साक्षात्कार नहीं होता, जो अनुकरणीय हो। किसी व्यक्ति का अपनी जाति या धर्म मात्र से संबंध होना उसे उस जाति व धर्म का नायक नहीं बनाता, उसके लिए और बहुत कुछ होना चाहिए।
लेखक टैगोर को अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं और एके बिस्वास के 2010 के लेख ‘टैगोर के जीवन की दो घटनाएँ’ के माध्यम से दो पक्ष बताते हैं—एक, कवि (टैगोर) की नामशूद्र जाति सम्मेलन में भागीदारी पर बात की। दो, उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर में टैगोर के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने की चर्चा।16 लेखक बताता है कि नामशूद्र यानी अछूतों से संबंध रखने वाली इस घटना को छिपाया गया लेकिन बिस्वास बताते हैं—‘उन्होंने 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने के बारह साल बाद टैगोर ने इस सम्मेलन में भाग लिया।17’…‘कवि (टैगोर) की नामशूद्रों के बीच सार्वजनिक सम्मेलन में उपस्थिति ने इसे एक शानदार घटना बना दिया (मगर छिपाया गया)।’18 बिस्वास इस कड़ी में प्रोफेसर शेखर बंदोपाध्याय के हार्वर्ड एशिया क्वार्टरली में लिखे लेख "रवींद्रनाथ टैगोर, भारतीय राष्ट्र और उसके बहिष्कृत" के हवाले से बंदोपाध्याय की टिप्पणी का जिक्र करते हैं—'हमें इस बैठक के बारे में और कुछ नहीं पता, उन्हें किसने आमंत्रित किया, उन्होंने निमंत्रण क्यों स्वीकार किया, उन्हें क्या बताया गया और क्या नहीं।’19
इससे कुछ सिद्ध नहीं हो पाता। लेकिन बिस्वास के लेख का दूसरा भाग सत्य सिद्ध हो जाता है—'नामशूद्रों के सम्मेलन में भाग लेने के प्रतिरोध में उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर में टैगोर के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून पर चर्चा हुई थी। ’दूसरे, टैगोर द्वारा पूना पैक्ट के दौरान गांधी के समर्थन और सांप्रदायिक पुरस्कार में अनुसूचित जातियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र के विरोध ने 1932 के पूना समझौते को पलट दिया।’20 स्पष्ट है टैगोर ने 1925 में नामशूद्रों के पक्ष में कैसा स्टेंड लिया होगा। ऐसे माहौल में बिस्वास की टिप्पणी काबिल-ए-गौर है—‘किसी भी प्राचीन शास्त्र, जिस पर हिंदुओं को गर्व है, ने कभी भी जाति के खिलाफ गाली, घृणा, अवमानना या गाली से मुक्त एक शब्द या अध्यादेश नहीं कहा, को गलत कैसे ठहराया जा सकता है?’21 आप खुद तय करे-क्या टैगोर को इस अवधारणा के बाहर माना जाना चाहिए?
इसके बाद लेखक जातीय पूर्वाग्रह के पर्दाफाश के लिए खेलों यानी क्रिकेट की दुनिया मैं लौटते हैं—‘क्रिकेट के अनमोल रत्नों की सौगात देने वाले गुमनाम अछूत बालू और उनके दो भाई’ "यह बात हमारे ध्यान में लाती है कि बाबा जतपल वणकर बालू (1876-जुलाई 1955) को समकालीन मीडिया, क्रिकेट प्रेमियों और प्रशंसकों द्वारा "भारत के रोड्स" के रूप में सराहा। वे महाराष्ट्र के धारवाड़ के पहले अछूत चमार थे जिन्होंने भारतीय क्रिकेट की दुनिया पर एक शानदार छाप छोड़ी। उन्हें भुला दिया गया क्योंकि उनके समुदाय में राजदीप सरदेसाई जैसे चीयर लीडर नहीं थे, जो मैदान पर उनके महान कार्यों को उजागर करते।’22 जातिवाद के अखाड़े को समझने के लिए लेखक आगे बढ़ता है—‘1911 में इंग्लैंड का दौरा करने के लिए अखिल भारतीय टीम में पारसी, हिंदू और मुसलमान थे, जिनका शीर्ष सिख था। यह दौरा असफल रहा। लेकिन बालू का दौरा आश्चर्यजनक रूप से सफल रहा।’23
लेखक बिस्वास के हवाले से आगे बताते हैं—‘चार क्रिकेटर-सभी भाई बालू, शिवराम, गणपत और विट्ठल सभी पलवणकर जमीली के निवासी ने भारतीय क्रिकेट को उसके प्रारंभिक काल में बहुत सम्मानित और सशक्त बनाया, लेकिन अपने शानदार प्रदर्शन के बावजूद उन्होंने गंदगी और अछूतों से बेहतर कुछ नहीं माना। हालाँकि, उनके प्रदर्शन को भारतीय क्रिकेट टीमों की कप्तानी के लिए योग्य नहीं माना गया।’24 यह मसला आगे बढ़ता है—‘बालू को सीनियर होने के बावजूद कप्तानी से वंचित कर दिया गया। वह सेवानिवृत्त हो गए और फिर मामला शांत हो गया। शिवराम ने उनके मामले में ऐसा कोई सवाल उठने से पहले ही संन्यास ले लिया। फिर विट्ठल की बारी आई। लेकिन बार-बार उन्हें पराजित किया गया। उनके कनिष्ठों को उनके सिर पर लाद दिया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदू असफल हुए-बुरी तरह असफल हुए-फिर भी कट्टर हिंदू न्याय और तर्क को नहीं सुन सके। लेकिन परिस्थितियों की ताकत बहुत अधिक थी और काफी मान-मनौव्वल के बाद आखिरकार उन्होंने खुद को इतना उदार बना लिया कि विट्ठल को कप्तानी सौंप दी।25
लेखक ‘जातिवाद के अखाड़े’ को अश्वेत और श्वेत की दुनिया में ले जाते हैं—‘टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन में सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहासकार जॉन होबरमैन ने खेल, राजनीति और नस्ल संबंधों के बीच संबंधों पर शोध किया। उनसे एक सवाल पूछा गया—'कुलीन अश्वेत एथलीट और श्वेत दर्शक-क्या इस रिश्ते ने दोनों समुदायों के बीच समीकरण को बदल दिया है? उनका जवाब था—‘श्वेत खेल जनता और कुलीन अश्वेत एथलीटों के बीच संबंध मनोरंजन के माध्यम से है, जो मुख्य रूप से टेलीविजन के माध्यम से प्रदान किया जाता है। प्रदर्शनों का आनंद लेना बहुत आसान है, लेकिन लंबे समय से यह सवाल बना हुआ है कि क्या ये प्रदर्शन श्वेत नस्लीय दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं? क्या यह सद्भावना का निर्माण करता है? खैर, बहुत सारे अफ्रीकी अमेरिकी हैं जिन्होंने पिछले 100 वर्षों में से अधिकांश समय यह उम्मीद की है कि अश्वेत एथलेटिक्स प्रदर्शन आबादी में अश्वेत लोगों के लिए सम्मान पैदा करेंगे। यह मापना असंभव है कि यह किस हद तक सच है या नहीं, लेकिन यह उस तरह की सामाजिक इंजीनियरिंग नहीं है जो श्वेत नस्लीय दृष्टिकोण को ठीक करने जा रही है।’26 उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि जॉन होबरमैन का अवलोकन अफ्रीकी-अमेरिकियों और श्वेत जनता के बीच संबंधों के संदर्भ में है। लेकिन भारत के संबंध में देखे तो जातिवाद का अखाड़ा श्वेतों से कई गुणा अधिक पहलवान तैयार कर रहा है।
लेखक बिस्वास के बहाने खेल और मनोरंजन की दुनिया से अलग लेटरल ऐंट्री के युग से इतर ‘संघ लोक सेवा आयोग’ के जातिवादी चरित्र से रूबरू कराता है—‘1950 में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) अस्तित्व में आया। बंगाल के अनुसूचित जाति के अच्युतानंद दास न केवल आईएएस में सफल हुए, बल्कि लिखित परीक्षा में उनका कुल स्कोर सबसे अधिक (1050 में से 613) था। हालांकि, मौखिक परीक्षा में उन्हें नियुक्ति के लिए अनुशंसित सभी उम्मीदवारों में सबसे कम अंक (300 में से 110) दिए गए। मेरिट सूची में वे 48वें या अंतिम उम्मीदवार थे। अनिरुद्ध दास गुप्ता, जाति से बैद्य, बंगाली और भद्रलोक भी हैं,...लिखित परीक्षा में सबसे कम अंक (494) के बावजूद...व्यक्तित्व परीक्षण में सबसे अधिक (300 में से 88.33 प्रतिशत) अंक प्राप्त किए।27 आज ये जातिवादी अखाड़े के नए नॉर्मल हो गए हैं; परिणामस्वरूप, जातिवादी संविधान का धता बताते हुए स्कूल, कालेज और सभी संस्थानों में अछूतों को पटखनी देने में कभी पीछे नहीं रहते।
पुस्तक के शीर्षक 'अनसंग अनटचेबल हीरोज ऑफ फ्रीडम स्ट्रगल' पर आगे बात करने से पहले समझना जरूरी है कि हम नायक किसे मानें? नायकत्व का दायरा क्या है? बेशक शौर्य और साहस नायक और नायकत्व के महत्वपूर्ण अंग हैं। इसके अतिरिक्त व्यक्ति के कुछ विशेष गुण, उसकी अनुपम कार्यशैली-क्रियाकलाप आदि जो सार्वभौमिक स्वीकार्यता व आदर्श के परिचायक हों, को हम सामान्यत: नायक और नायकत्व की श्रेणी में रखते हैं। किसी भी नायक के क्रियाकलाप इसी दिशा के अनुगामी होने चाहिए। गौरतलब है, नायक और नायकत्व को किन्हीं शब्दों की श्रृंखला में कैद नहीं किया जा सकता।
शौर्य की कड़ी में लेखक भाई जैता (मजहबी) की बात करता है, जिसे रांगहर (रांहगड़) की उपाधि दी गई। वह हथियारों और युद्ध कला में प्रशिक्षित था। बादशाह औरंगजेब हिंदुओं और कश्मीरी पंडितों को इस्लाम में धर्मांतरित करना चाहता था। इसके विरोध में पंच प्यारों के साथ आनंदपुर साहिब छोड़ विद्रोह किया मगर ये पंच प्यारे गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन भाई जैता किसी तरह बच निकला। उन्होंने गुरु जी को 11 नवम्बर 1675 को शहीद कर दिया गया। गुरुजी के शरीर और धड़ को ले जाने वाले के लिए सजा मुकर्रर कर दी। इस सबके बावजूद भाई जैता, उसके पिता भाई सदानंद, चाचा भाई अज्ञया राम और उदय सिंह ने वर्षा और रात का लाभ उठाकर गुरु के धड़ और शरीर को हासिल कर लिया। वे गुरु तेग बहादुर के शीश को आनंदपुर ले आए। इसके लिए गुरु गोबिंद ने उन्हें मज़हबी ("वफादार") की उपाधि से सम्मानित किया और सभी मजहबी सिखों के लिए ‘रगरेटे गुरु के बेटे’ कहा जाने लगा। यह साहस और शौर्य का कार्य था, मगर स्वतंत्रता संग्राम का नहीं। लेखक ‘सबलटर्न स्टडीज’ या ‘हिस्ट्री फ्रॉम बिलो’ की वकालत करने वाले ई. जे. हॉब्सवैम और ई. पी. टॉमसन (ब्रिटिश) और जॉर्ज रूड और इओई (फ्रांसीसी) इतिहासकार के हवाले से भीमा-कोरेगांव में महार शौर्य को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं—'अछूत, महार जाति के सैनिकों ने असाधारण वीरता और साहस का प्रदर्शन किया था। हां, उनकी लड़ने की क्षमता जाति या धर्म के नाम पर छिपी हुई थी, लेकिन ये अछूत भी मजबूत सैनिक थे।28
इस संबंध में सवाल है कि अछूतों को स्वतंत्रता संग्राम और नायकत्व की दिशा में बढ़ने का अवसर कैसे मिला। इसका पहला श्रेय अंग्रेजों का जाता है। उन्होंने 1844 के आसपास तक सेना में 4200 से अधिक अछूत सैनिक भर्ती किए।29 चूहड़ा जाति से धर्मांतरित और सिख धर्म में भर्ती सैनिक मजहबी कहलाते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने मज़हबी सिखों को अपनी सेना में भर्ती किया मगर नियमित सिख बटालियनों के साथ घुलने-मिलने से मना किया।30 बाद में चमार जाति के रामदासिया अनुयायियों और मज़हबियों के एक वर्ग की रेजिमेंट बनी, मगर बाद में इसे "सिख लाइट इन्फैंट्री" कर दिया गया क्योंकि इस उपाधि से हीनता और अस्पृश्यता का कलंक जुड़ा हुआ था।31
'द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, मद्रास सैपर इकाइयों को बर्मा, पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप में तैनात किया गया था, वास्तव में, जहाँ भी जमीन पर वास्तविक लड़ाई हुई थी। चोटू भंगी गैर-लड़ाकू कर्मचारी था मगर उसके अभूतपूर्व योगदान के चलते मेजर कैमरून, चोटू को मेज पर ले गए और पहले उन्हें भोजन परोसा। उसके बाद यूनिट में हर "बाराखाना" में यह एक रिवाज बन गया। इसी कड़ी में एक अछूत सैपर का गैर-लड़ाकू रामचंद्र धोबी को महा वीरचक्र से सम्मानित किया गया।32 अंग्रेजों ने चमार को देश की सबसे बड़ी जाति माना और 1 मार्च 1943 को पंजाब रेजिमेंट की 27वीं बटालियन को चमार रेजिमेंट और इतिहास में पहली बार चमार रेजिमेंट अस्तित्व में आई।33 ‘अछूतों ने इस्लाम धर्म अपना लिया और मुस्लिम आक्रमणकारियों की सेना में शामिल हो गए। कई लोग मुस्लिम सेनाओं में उच्च पद पर आसीन हुए। नासिर-उद-दीन खुसरो शाह के नाम से एक व्यक्ति दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा और कुछ महीनों तक दिल्ली पर शासन किया।34
गौरतलब है, अंग्रेजी शासन अपन