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अम्‍बेडकरवादी आंदोलन  का यथार्थ : साक्षात्कार

साक्षात्‍कार


अम्‍बेडकरवादी आंदोलन  का यथार्थ


-ईश कुमार गंगानिया


यदि किसी आंदोलन को समझना है तो आंदोलन से जुड़े विभिन्‍न क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों से साक्षात्‍कार एक बेहतरीन साधन हो सकता है। स्‍वयं पुस्‍तक के लेखक यानी साक्षातकारकर्ता विद्याभूषण रावत इस अवधारणा को अमली जामा पहनाने वालों में से एक हैं। यदि उन्‍हीं के शब्‍दों में समझे तो उनके लिए भगवानदास का सान्निध्य ने उन्‍हें अम्‍बेडकरवाद और जातीय समस्‍या को समझने का अवसर दिया। वीटी राजशेखर की पत्रिका ‘दलित वॉयस’ ने उन्‍हें पेरियार और अस्मिता आंदोलनों से सशक्‍त परिचय कराया। एनजीऊके और एलआर बाली के सकारात्‍मक अनुभव, तर्कशीलता व समर्पण ने उन्‍हें अम्‍बेडकरवाद का एक जुझारू सिपाही बना दिया। परिणामस्‍वरूप, विभिन्‍न क्षेत्रों की अठारह बड़ी शख्सियतों के साक्षात्‍कार से अस्तित्‍व में आई पुस्‍तक

‘अम्‍बेडकरवाद: विचारधारा और संघर्ष’ के आकर्षण ने मुझे इस पर चर्चा करने को प्रेरित किया।हमारे कुछ विद्वान साथी अम्‍बेडकरवाद को जातियों की परिधि तक सीमित मानकर अम्‍बेडकरवाद को परिभाषित करते हैं; लेकिन हमारा मानना है कि इसका फलक ग्‍लोबल है। इसलिए मैं इस आलेख को दो भागों में चर्चा करना चाहता हूं। पहले भाग में मैं जाति, राजनीति आदि अन्‍य मुद्दे और दूसरे भाग में समसामयिक अम्‍बेडकरवाद से जुड़े मसलों को रखने का पक्षधर हूं। कहने की जरूरत नहीं कि भारत में ‘जाति’ एक ऐसा दैत्‍य है जो कदम-दर-कदम इंसानियत की बलि लेने को सदैव आतुर रहता है। सवाल उठता है कि इस दैत्‍य का जनक कौन है? ‘इसका सबसे सरल जवाब ब्राह्मणवाद है, जिसका मतलब है तर्कहीन होना। ब्राह्मणवाद का मतलब है वर्चस्‍व।’1आज इसकी परवरिश ब्राह्मणवाद ही नहीं कर रहा है बल्कि इससे पीडि़त अनुसूचित जातियां भी धड़ल्‍ले से कर रही हैं। इनकी संख्‍या 800 से अधिक है। मूल समस्‍या है...’आप उन चमारों को भी को एकजुट नहीं कर सकते जो 60 से अधिक जातियों में विभाजित हैं। आप वाल्‍मीकियों का भी एकजुट नहीं कर सकते, जो लगभग 12 जातियों में विभाजित हैं।’2‘पंजाब में 40 से अधिक जातियां हैं। इनमें दो प्रमुख समुदाय चूहड़ा और चमार हैं, जो एक साथ नहीं आना चाहते।’3 इस दैत्‍य के विरुद्ध ‘आंदोलन के लिए आदर्शवाद महत्‍वपूर्ण है, व्यवहारिकता महत्‍वपूर्ण है। लेकिन जातियों के आधार पर आंदोलन नहीं हो सकता।’4

           ऐसी हालत में विकल्‍प क्‍या? धर्मांतरण। वहां भी स्थिति अच्‍छी नहीं रही; मसलन- ‘गुरुद्वारे' चोर-चमार' जैसे शब्दों का इस्तेमाल कररहे हैं। मैंने सिख धर्म का अध्ययन करके पाया कि उनके दसों गुरु खत्री जाति के थे।सबने अपनी पैतृक जाति में विवाह किया।...वहां स्वीपर मज़हबी सिख हो जाता है।...आपने जाति को सामने के दरवाज़े से फेंका और वह खिड़की से वापस आ गई।’5 ‘जब अछूत बड़ी संख्या में धर्मांतरित होकर ईसाई बन चर्च आने लगे तो समस्या उठ खड़ी हुई। अंत में उसका समाधान यह निकालागया कि कश्मीरी गेट चर्च में दो प्रार्थना सभाएं होने लगीं- एक सुबह, एक दोपहर। सुबह उच्च जाति के लोग आते थे, दोपहर में अछूत।’यानी जातिवाद बराबर जिंदा रहा।

           अंतत: मसला बुद्धिज्‍म पर आकर ठहरता है। भगवानदास सवाल उठाते हैं—‘महाराष्‍ट्र में महार ही ऐसे लोग थे जो बौद्ध बनने के लिए आगे आए, लेकिन उनको भी अपनी 12 जातियों से छुटकारा नहीं मिल सकता, इसलिए मेरा मोह भी भंग हो गया।’7 लेकिन उन्‍होंने स्‍वयं बाबा साहब से सवाल किया—‘मैं अछूत समुदाय से आता हूं इसलिए मैं एक बौद्ध विहार में प्रवेश नहीं कर सकता। आप कैसे कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म किसी भी अन्‍य धर्म से बेहतर है?...बाबा साहब ने कहा—‘आपने क्‍या किया है? इतिहास या दर्शन में एम ए?...मैंने कहा नहीं, फिर उन्‍होंने सवाल पूछा—‘कहां तक शिक्षा प्राप्‍त की है? मैंने कहा स्‍वशिक्षा। फिर उन्‍होंने बौद्ध धर्म के बारे में कुछ बताया और कहा—‘अब और नहीं, अब इतना ही।’8 खैर, भगवानदास ने बाबा साहब की वजह से बुद्धिज्‍म ग्रहण कर लिया। कहने की जरूरत नहीं है, आज भी लोग अपने विवेक की अपेक्षा बाबा साहब की वजह से बुद्धिज्‍म की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

उस दौरान दीक्षा भूमि पर तो बाबा साहब के नाम पर धर्मांतरण का ऐसा जुनून चढ़ा कि बाजार में सफेद कपड़ा खत्‍म हो गया और अंतत: घोषणा करनी पड़ी कि किसी भी रंग के कपड़े पहन कर आ सकते हैं।’9 इस जुनून की अति तो तब नजर आती है, जब ‘कई लोग तीन दिनों के लिए घर से खाना पैक करके चले थे। घर के बने हुए ज्वार के आटे की रोटी और एक-दो प्‍याज।’10 धर्मांतरण की इस मुहिम से आज एक आम राय बन रही है कि ‘आज बौद्ध आंदोलन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से समाज की मदद कर रहा है। लेकिन राजनीतिक रूप से नहीं। सांस्कृतिक आंदोलन राजनीतिक दल की तुलना में अधिक परिवर्तन लाएगा।’11

जातिवाद के दैत्‍य के विरुद्ध जो जर्नी है, उसमें अनेक लोगों के अद्वितीय योगदान का उल्‍लेख करना भी जरूरी हो हो जाता है। मसलन-लंदन में बसे वीटी राजशेखर के बेटे ने अम्‍बेडकरवादी आंदोलन से दूर लंदन में उनके साथ रहने की जिद की तो उनका जवाब काबिल-ए-तारीफ है—‘लंदन मेरा देश नहीं है। वहां आकर मैं क्‍या करूंगा? मैं एक सुअर की तरह ही जीऊंगा, जिसे तुम खिला-खिला कर मोटा कर दोगे। मुझे कोई दिलचस्‍पी नहीं ऐसी बातों में।’12 इतना ही नहीं जब उन्‍हें राज्यसभा के लिए दो-तीन बार ऑफर मिला। विधान परिषद के लिए भी ऑफर मिला तो उन्‍होंने सभी को नामंजूर करते हुए कहा—‘एक बार आप राजनीति में प्रवेश करते हैं तो आप बौद्धिक तौर पर बेईमान हो जाते हैं।’13 मौजूदा संदर्भ में आंदोलन के प्रति ईमानदारी को लेकर एलआर बाली जैसे अन्‍य कई बुद्धिजीवियों का समर्पण भी काबिल-ए-गौर है।

जहां तक समर्पण और सहयोग का सवाल है, सछूतों के सहयोग को नजरअंदाज करना नाइंसाफी होगी जो आज कल अछूतों की तरफ से भी बराबर होती नजर आती है। एक-इस कड़ी में स्‍कूल में दाखिले के लिए गए भगवानदास के विषय में प्रधानाचार्य से जुड़े घटनाक्रम को याद करना चाहता हूं। उन्‍होंने उनके पिता से कहा—‘मैंने इसकी जांच कर ली है, यह एक अच्‍छा लड़का है और काफी प्रगति करेगा।’ पिता ने कहा भगवान की मर्जी होगी तो जरूर पड़ेगा। इस पर प्रधानाचार्य ने उग्रता से कहा—‘भगवान क्या है? वह क्‍या करता है? उसने आपके लिए क्‍या किया है?’14 इस घटना ने भगवानदास के जीवन को नया दृष्टिकोण और नई दिशा प्रदान की। दो-‘कृष्‍ण कुमार ने मुझे पेपर शुरू करने के लिए प्रेरित किया। वे दलित नहीं थे। वे खत्री यानी उच्‍च जाति,आर्यसमाज के अध्‍यक्ष, जूते और कपड़े के एक बड़े व्‍यापारी से संबंधित थे। उनके परिवार की कई दुकानें थी। उन्‍होंने हमारा साथ दिया। हमने उर्दू में भीम पत्रिका शुरू की।’15 तीन-‘मुल्‍कराज आनंद ने मुझे सलाह दी कि मुझे एक पत्रिका शुरू करनी चाहिए। उन्‍होंने ही पत्रिका का नाम ‘दलित वॉइस’ रखने को कहा। फिर उन्‍होंने कुछ शुरूआती पैसा दिया ताकि पत्रिका शुरू हो सके। उन्‍होंने अपने लेख भी देने का वायदा किया। इस प्रकार ‘दलित वॉइस’ पत्रिका शुरू हुई।’16 (वे खत्री यानी क्षत्रिय थे) चार-‘कुमुद पावड़े को पता चला कि बाबा साहब को संस्कृत को प्यार करते हैं मगर नहीं पढ़ पाए। बस मैंने संस्कृत पढ़ने का निर्णय ले लिया।...टॉप किया। एक ब्राह्मण अध्‍यापक ने मेरी मदद की और प्रोत्साहित किया।...बाद में उन्‍होंने अंग्रेजी में भी एमए किया।’17

जिस प्रकार जातिवादी समाज जाति देखकर व्‍यक्ति योग्‍यता व चरित्र तय करता है, अछूत भी इसी प्रवृत्ति के शिकार हैं और दुखद है कि उनका भी व्‍यक्ति के विषय में राय बनाने का पैमाना ‘जाति’ हो गई है। जैसे सविता अम्‍बेडकर के बाबा साहब और अछूत समाज के प्रति समर्पित होने के बावजूद उसे तथाकथित अम्‍बेडरवादियों के घृणित आरोपों से दो-चार होना पड़ा। ‘कुछ लोगों ने कहा कि उन्‍होंने बाबा साहब को छाछ में जहर दे दिया। अन्य ने कहा कि वह उसे धीमा जहर दे रही थी। लोखंडे ने कहा कि उसने उन्‍हें तकिया से दबाकर मार डाला।...बहुत सारे षडयंत्रों के आरोप थे। क्‍या बाबा साहब इतने छोटे बच्‍चे थे कि उनको इस बात का पता नहीं था कि उनके लिए अच्‍छा और बुरा क्‍या है?’18 निष्‍कर्ष क्‍या निकलता है-‘हम अंतत: बाबा साहब को धोखा दे रहे थे। उन पर आरोप लगाने वाले यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि डा. अम्‍बेडकर मूर्ख थे। उनके बीच कई साल से मधुर संबंध थे। मेरी बेटी उस पर एक किताब लिख चुकी है।’19

तथाकथित अम्‍बेडकरवादियों के जातिवाद को परखने के लिए मौजूदा पुस्‍तक के बहाने थोड़ा और आगे बढ़ते हैं-‘एक दिन उन्‍होंने मुझे बुलाया और अपने और उनके बीच के सभी पत्र दिखाए। वे बहुत लंबे पत्र थे। बाबा साहब का उनके लिए हर एक पत्र 18 से लेकर 20-25 पृष्ठों तक का है। वे एक साल से रिलेशनशिप में भी थे। उनके पास बाबा साहब के साथ किए गए पत्र व्‍यवहार का विशाल संग्रह था, जिसे उन्‍होंने मुझे दिखाया। वह इन्‍हें ‘मोतियों की माला’ कहती थीं। बाबा साहब के हाथ की लिखावट बहुत सुंदर थी। उन्‍होंने कहा, बस एक नजर देख लो, पढ़ो मत।’20 सत्‍य की तलाश की इस कड़ी में आगे बढ़ते हैं-‘बाद में ढाले जी के साथ मेरी चर्चा हुई और हमें लगा कि बाबा साहब उनकी वजह से ही अपना काम पूरा कर पाए। यह असंभव होता यदि वह सहयोग न करतीं। उनके जीवन के सबसे महत्‍वपूर्ण क्षण में उनके साथ थीं। वह बाबा साहब को धम्‍म दीक्षा लेने से रोक भी सकती थीं। आर्य वंश के भंते द्वारा दिल्‍ली के बिड़ला महाबोधि विहार में माई और बाबा साहब ने 2 मई 1950 को ही धम्‍म दीक्षा ले ली थी। भदंत आनंद कौसल्‍यायन ने भी इस दीक्षा के बारे में लिखा था।’21…‘सोहन लाल ने उनके बारे में लिखा कि वह एक नर्स थी। लेकिन सौभाग्य से मुझे मूल प्रमाण पत्र मिल गया। मेरे पास माई का मूल प्रमाण पत्र है। वह डाक्‍टर थी।’22 माई से संबंधित इस कड़ी में कुमुद पावड़े को जोड़ दें तो साक्षात्‍कार हमारे सामने एक अलग ही तस्‍वीर पेश करता है-‘आज हम जातीय शोषण के लिए मनुवादियों को तो गाली देते हैं, लेकिन जब महिलाओं का प्रश्‍न आता है तो हम स्‍वयं मनुवादी हो जाते हैं।’23

साक्षात्‍कार के जरिए हम जान पाते हैं कि सविता अम्‍बेडकर सिर्फ बाबा साहब तक सीमित नहीं थी वे आंदोलन में सहयोगी भी थी-‘हम दलित शब्‍द नहीं चाहते, लेकिन एक आंदोलन के रूप में हमें आज दलित पैंथर की जरूरत थी। माई साहब कहती थी कि इसे भंग मत करो। इसे अन्‍याय के खिलाफ लड़ते हुए एक आक्रामक विंग की तरह रहने दें। उन्‍होंने भाषण में कहा, इसे तीन भागों में बनाएं-राजनीतिक, धार्मिक और शैक्षिक। जो लोग रुचि रखते हैं, उन्‍हें इसका नेतृत्‍व करना चाहिए, ताकि इसके खिलाफ लड़ाई न हो। इसलिए लिए यदि ढाले की रुचि धर्म में है तो उन्‍हें नेतृत्‍व करना चाहिए। रामदास की राजनीति में दिलचस्‍पी है, इसलिए उन्‍हें इसका नेतृत्‍व करना चाहिए। यह वास्‍तव में एक बहुत ही बुद्धिमानी भरी सलाह थी।’24

माई के व्‍यक्तित्‍व की परख के बाद पुन: बाबा साहब पर लौटते हैं-‘यह दो बिल्‍डरों की कहानी थी, जो बाबा साहब को प्रभावित करना चाहते थे, जब वह वाईस राय की परिषद में श्रम मंत्री थे और सीपीडब्‍लूडी उनके अधीन था। यह कुछ अनुबंध से संबंधित था और यशवंत दिल्‍ली आए थे। जैसे ही बाबा साहब को इस बारे में पता चला वह आग बबूला हो गए। उन्‍होंने यशवंत को तुरंत मुंबई के लिए रवाना होने को कह दिया। कहा कि उसे दिल्‍ली आने की जरूरत नहीं।’25 इसके विपरीत वर्तमान साक्षात्‍कार की पुस्‍तक में भरपूर सामग्री उपलब्‍ध है जो बताती है कि अम्‍बेडकरवादी आंदोलन किस प्रकार दोगलेपन का शिकार रहा है। एक-‘मैं बहुत लोगों को जानता हूं जो जीवन में आगे बढ़े लेकिन क्‍या होता है कि जैसे ही कोई दलित आगे बढ़ जाता है, ब्राह्मण उसे खरीद लेता है।’26 दो-जमनादास ने बाबा साहब से कहा, हम छात्रवृत्ति के लिए चिंतित हैं। उनका जवाब था—‘हम कैसे आलसी छात्र हो गए हैं और अध्‍ययन के लिए अनिच्छुक हैं और कड़ी मेहनत से बचते हैं। सुविधाओं के बावजूद हम परीक्षाओं में अच्‍छी तरह से पास नहीं हो रहे हैं।’27

मौजूदा क्रम में मुझे लगता है कि साक्षात्‍कार के माध्‍यम से बाबा साहब की राजनीतिक दृष्टि को लेकर जो घालमेल नजर आती है, उसे समझा जाए। गौरतलब है कि किसी भी विचार को यदि उसके संदर्भ से काट दिया जाए तो अर्थ के अनर्थ होने की संभावना बढ़ जाती है। बाबा साहब ने अपने भाषण में कई मौकों पर कहा—‘हम सभी ने सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन की तुलना में राजनीति को अधिक महत्‍व दिया है।’28 इसी कड़ी में एक दोस्‍त के बेटे के नेता बनने के संबंध में ढाले कहते हैं—‘नेता बनने के बारे में मत सोचो, सिर्फ एक अच्‍छा वकील बनने पर ध्‍यान दो।...दलितों के पास अच्‍छे वकील नहीं हैं।’29लेकिन ‘जब बाबा साहब कहते हैं, राजनीतिक शक्ति महत्‍वपूर्ण है, इसे गलत समझा गया। जब वे यह बोल रहे थे तो एक राजनेता के रूप एससीएफ की एक बैठक को संबोधित कर रहे थे।’30कहने का मतलब है कि हमें बाबा साहब के विचारों को समय और परिस्थितियों की रोशनी में समझने की जरूरत है। अर्थ को अनर्थ नहीं होने देना है।

जो अम्‍बेडकरवादी बाबा साहब को जातियों की दीवारों में कैद करने की मुहिम चलाए हैं, उन्‍हें समझने की जरूरत है-‘आजादी के बाद डा. अम्‍बेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी की शुरूआत की, जो केवल अनुसूचित जाति के लोगों की नहीं थी। उनके पास अन्य जातियों के कई लोग थे। वह आधार को व्यापक बनाना चाहते थे और भारत की उन्नति के लिए आर्थिक और सामाजिक कारणों को शामिल करना चाहते थे। लेकिन दुर्भाग्य से जिन लोगों ने आरपीआई का नेतृत्व संभाला, वे उन्हें समझ नहीं पाए या उन्होंने बाबा साहेब के पीछे चलने की कोशिश नहीं की। इसलिए बाबा साहेब ने आरपीआई को एक अन्य अनुसूचित जाति संगठन में बदल दिया और फिर यह जाति और राज्य की सीमाओं पर विभाजित हो गया। आज हमारे पास आरपीआई के तीन भाग हैं, लेकिन वे कहीं नहीं पहुँचे।’31

मौजूदा संदर्भ में यह भी समझने की जरूरत है-अपने अंतिम दिनों में बाबा साहब सभी महत्वपूर्ण नेताओं को साथ लाकर एक गैर-कांग्रेस, गैर-कम्युनिस्ट पार्टी बनाने पर विचार कर रहे थे। उन्होंने इसके संबंध में राममनोहर लोहिया और एसएम जोशी जैसे समाजवादी नेताओं को प्रस्ताव भी भेजा था। इस प्रस्ताव प्रतिक्रिया के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन नागपुर के बौद्ध धर्म में शामिल होने के लिए आयोजित धर्मांतरण समारोह के दौरान बाबा साहब ने एक नई पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के गठन के बारे में चर्चा की थी। चूंकि 1957 के आम चुनाव नजदीक थे, इसलिए अम्बेडकर के बाद एससीएफ के नेतृत्व ने इसके बारे मेंनिर्णय को भविष्य के लिए टाल दिया और सुरक्षित क्षेत्र से ही चुनाव लड़ने का फैसला किया। हालांकि वह हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना चुके थे और अब अनुसूचित जाति में शामिल नहीं थे। नेतृत्व के सवाल को हल करने के लिए सात सदस्यीय प्रेसिडियम का निर्माण किया गया, लेकिन यह जल्द ही यह टूट गया।’32

साक्षात्‍कार के माध्‍यम से हमारे सामने बाबा साहब की धर्मनिर्पेक्षता की अवधारण को लेकर एक ऊहापोह की स्थिति पैदा हो जाती है। ‘मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि बाबा साहब ने आरपीआईं की परिकल्पना में धर्मनिरपेक्षता को शामिल रखा था कि नहीं। धर्मनिरपेक्षता आज हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा दुरुपयोग में लाई जाने वाली अवधारणा है जिसे तथाकथित प्रगतिशीलों ने प्रचारित किया है। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि आरपीआई की कल्पना प्रभुत्वशाली कांग्रेस के विरोध में खड़ी की गई थी।’…नवम्बर 1948 में बिहार का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रो. केटी शाह ने एक संशोधन पेश किया था जिसमें कहा गया था कि 'भारत एक धर्मनिरपेक्ष,समाजवादी राज्यों का संघ है।' स्वयं बाबा साहब ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि संविधान केवल राज्य के विभिन्न अंगों के कार्यों को नियमित करने की एक व्यवस्था थी और राज्य की नीति क्या होगी अथवा यह अपने आर्थिक तथा सामाजिक पक्षों को किस प्रकार व्यवस्थित करेगी, इसका निर्णय समय व परिस्थितियों के अनुरूप जनता के द्वारा किया जाना चाहिए।’33

इस कड़ी में महसूस हो रहा है कि साक्षात्‍कार के माध्‍यम से कांशीराम को अम्‍बेडकरवाद की रोशनी में परखा जाए। ‘बामसेफ वास्तव में पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ था। इसमें अल्पसंख्यक समुदाय नहीं थे और बामसेफ में शामिल होने वाले अधिकतर कर्मचारी अनुसूचित जाति के थे। दुर्भाग्‍य से कांशीराम को भारत के समाजशास्त्र और राजनीति की बहुत समझ नहीं है। और उन्होंने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन और RPI की विफलता के कारण पैदा हुए खालीपन का लाभ उठाया।...उन्होंने अम्बेडकर के नाम का इस्तेमाल किया था।’34 ‘बाबा साहब ने जाति के विश्‍लेषण के संबंध में जो कुछ लिखा था, उसका ठीक उल्‍टा कांशीराम ने अपनाया। जाति पर सवाल उठाने की बजाय, वह प्रत्‍येक जाति के एक टोकन व्‍यक्ति को ढूंढना चाहता था और विज्ञापन अभियानों में निवेश करता था। वे उसे बहुत नहीं पढ़ते थे, केवल उनके नाम का प्रयोग कर रहे थे।’35 

जहां तक आरपीआई का प्रश्‍न है-‘आज आरपीआई के 100 से अधिक समूह हैं। सब कुछ अवसरवादी हो गया है। उनके अनुसार नहीं चल रहा है। उन्‍हें एकजुट होना होगा। रिडिल्स के आंदोलन के दौरान, सभी लोग एकजुट हो गए। वे एक साथ रिडिल्स पर प्रतिबंध के खिलाफ लड़ रहे थे। मैंने कांशीराम को यह कहते हुए सुना कि तुम किसी की भी पूजा करो, लेकिन हमें वोट दो। मैंने इसे जबलपुर में सुना था जो मुझे पसंद नहीं आया।’36

अधिकतर अम्‍बेडकरवादी मार्क्‍सवाद को ब्राह्मणवाद के बरअक्‍स रखकर इसके साथ शत्रु जैसा व्‍यवहार करते हैं लेकिन साक्षात्‍कार की यह पुस्‍तक कुछ अलग ही तस्‍वीर पेश करती है-‘बाबा साहब मार्क्‍सवाद के विरोधी दार्शनिक नहीं थे, लेकिन वे हठधर्मी लोगों के खिलाफ थे क्‍योंकि डांगे जैसे व्‍यक्ति साम्यवाद के बारे में लिखने वाले ज्यादातर लोग समाज के ऊपरी हिस्‍सों से थे और जाति से ब्राह्मण।...उन्‍होंने मार्क्‍सवाद का गंभीरता से अध्‍ययन किया। उनका झुकाव प्रगतिशील सोच की तरफ था।’37 लेकिन तब ‘बंगाल में समस्‍या यह थी कि गरीब केवल गरीब ‘वर्ग’ के रूप में गरीब हैं, न कि जाति के रूप में। वे ‘जाति के प्रसंग को समझदारी से अनदेखा करते हैं जैसे कि समाज में उसकी कोई भूमिका नहीं है।’38 ‘दलितों को अपनी जाति और पंथ के बावजूद, वाम आंदोलनों का लाभ मिलना चाहिए था, लेकिन व्‍यवहार में यह उल्‍टा था।’39 अम्‍बेडकर ने रिपब्लिकन की परिकल्पना कांग्रेस विरोधी, कम्‍युनिस्‍ट विरोधी संगठन के रूप में की थी, जाति की बात करने वाली पार्टी के रूप में नहीं।’40

सिक्‍के का एक दूसरा पहलू भी है-‘कम्युनिस्ट मानते थे कि अम्बेडकर मजदूर वर्ग को विभाजित कर रहे हैं जबकि अम्‍बेडकर कम्‍युनिष्‍टों की आलोचना करते थे कि वह जाति आधारित भेदभाव को महत्व नहीं देते थे और उनके करीब रहने वाले दलित भी प्रताड़ना के शिकार थे। इसके अलावा कम्युनिस्ट आधारभूत संरचना और उसकी बाहरी अभिव्‍यक्ति यानी बेससुपर-स्‍ट्रक्‍चर के बारे में मार्क्‍सवादी विचार के बारे में सतही समझ रखते थे जिसके कारण वे मानते थे कि केवल जाति के खिलाफ संघर्ष से कुछ फायदा नहीं होगा।’41…‘ऐतिहासिक रूप से अम्बेडकर कम्युनिस्टों से आहत थे खासकर इसलिए कि उन्होंने 1952 के चुनावों में अम्बेडकर को हराया था। इसके बावजूद यह भी एक तथ्य था कि कांग्रेस से काफी पीछे होने के बावजूद कम्युनिस्ट उस समय की प्रमुख विरोधी पाटी थी।’42 गौरतलब है-‘निराशा के दौर में बाबा साहब ने गायकवाड़ को एक नोट भेजा था जो उनके छपे हुए संकलन में शामिल है। इस नोट में उन्‍होंने लिखा है-‘उन्‍हें लगता है कि उनके तरीके काम नहीं कर रहे और अगर साम्यवाद से दलितों को तत्काल राहत मिलती है तो उन्‍हें कम्‍युनिस्‍ट बन जाना चाहिए।’43

जैसाकि पहले उल्लिखित है कि आलेख के दूसरे भाग में हम समसामयिक अम्‍बेडकरवाद से जुड़े मसलों पर बात करेंगे। इस कड़ी में कहना चाहता हूं कि आज अम्‍बेडकरवाद की साख दांव पर है। एक प्रकार से इसका हिंदूकरण जैसा कुछ हो गया है। इसकी शुरुआत 1960 से ही हो जाती है। मसलन-‘1960 के मध्य में अम्बेडकर के अंतिम संस्कार के स्थान पर एक स्मारक बनवाने के लिए पैसे जमा करने के वास्ते उनके बेटे को महू से लेकर मुम्बई तक पदयात्रा निकालनी पड़ी थी। अब इसी अम्बेडकर का स्मारक बनवाने की होड़ लग चुकी थी। भोली दलित जनता को शासक वर्ग के तिकड़म का कोई अंदाजा नहीं था और वे तेजी से इसके शिकार होने लगे। एक भयानक दुष्‍चक्र की शुरुआत हो गईं।’44 दो-‘जो लोग अम्‍बेडकरवादी होने का दावा करते हैं, वे अम्‍बेडकरवाद को नहीं समझते हैं। वे अम्‍बेडकरवाद को नहीं चलाना चाहते। वे समझना नहीं चाहते।’45

अम्‍बेडकरवाद विरोधी इस प्रक्रिया को थोड़ा और आगे बढ़ाते हैं; एक-‘आज में अस्मिता के प्रदर्शन के नाम पर अम्बेडकर को एक निर्जीव मूर्ति में बदल दिया गया है। अवसरवाद का बोलबाला हो चुका है। अम्‍बेडकर के प्रति भक्ति प्रदर्शन के नाम पर लोग अपनी दुकान चला रहे हैं। जिसका इस्‍तेमाल राजनीतिक दलाली के लिए किया जा रहा है।’46

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