
-तेजपाल सिंह ‘तेज’ : डा. अम्बेडकर के विचारों से विमुख हैं हिंदूवादी संगठन ?
डा. अम्बेडकर के विचारों से विमुख हैं हिंदूवादी संगठन ?
-तेजपाल सिंह ‘तेज’
इससे पहले मूल विषय पर आया जाए, हमें भारतीय लोकतंत्र की वास्तविकता जो जान लेना बहुत ही जरूरी है, मुझे ऐसा लगता है। जान लें कि भारतीय लोकतंत्र में संविधान हमारे समर्थन में है, लेकिन व्यवस्था हमारे खिलाफ। संविधान प्रत्येक नागरिक को सारे अधिकार देने की बात करता है। सारे पन्ने नागरिकों के समर्थन में हैं। समानता, भाईचारा, आपके अधिकार, सब कुछ आपके समर्थन में है। किंतु क्या कभी किसी ने सोचा - व्यवहार में क्या है? क्या आपको पता है कि हमारी समस्या क्या है? जो कागज़ में है, जो किताबों में है, वो समाज में नहीं है। और जो समाज में है, वो किताबों में नहीं है।
इसे सरल भाषा में समझें.. जो किताबों में है, वह समाज में नहीं है। किताबों में क्या है? अधिकार, सम्मान, आदर, गरिमा, सब कुछ किताबों में है। सबको भारत के प्रतिष्ठित नागरिक के रूप में देखा जाता है। संविधान में गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी है। और व्यवहार में क्या है? मरने के बाद भी वही व्यवहार होता है। समानता सिर्फ़ कागजों में है। हमारे हक और अधिकार महज कागजों में हैं। और व्यवहार में असमानता है। तमाम तरह की असमानताएँ। समाज में असमानता हमारी किताबों में नहीं है। और समस्या यह है कि यह समाज किताबों से नहीं नहीं चल रहा है। समाज को राजनेता चलाते हैं जिनकी नस-नस में सामाजिक कुरीतियां और अंधविश्वास भरा होता है। हाँ! वोट मांगते समय तमाम राजनेता समता और समानता की दुहाई देते नहीं थकते। किंतु चुनाव जीतने के बाद, सबके भीतर का धर्म-निर्पेक्ष आदमी मर जाता है। इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि हमारा देश परंपरागत मान्यताओं और आस्था के बल पर चल रहा है, संवैधानिक व्यवस्थाओं को किनारे कर दिया जा रहा है। गीत जरूर संविधान के गाए जाते हैं। संविधान में तो असमानता को बाबा साहेब अम्बेडकर ने सर्व सम्मति से खत्म कर दिया। लेकिन सामाजिक असमानता जैसे आज भी स्थाई रूप से बनी हुई है। इस असमानता के कारण ही व्यवस्था असमानता के समर्थन में काम करती है। फिर संविधान की मूल भावना की बात कैसी? न संविधान में निहित व्यवस्था पर अमल हो रहा है और न ही उसकी भावना पर। पिछ्ले 10-11 साल से तो संविधान को जैसे सिरे से अनदेखा किया जा रहा है। कारण स्पष्ट है कि भाजपा सरकार आर एस एस के देश और समाज विरोधी ऐजेंडे पर काम कर रही है।
आर एस एस ने क्यों जलाए थे डा. अम्बेडकर और नेहरू के पुतले?
यथोक्त के आलोक में जाने-माने इतिहासकार अशोक कुमार पांडे (#ashokkumarpandey) का कहना है – “कभी- कभी आम जनता में आक्रोश और उत्साह को देखकर सचमुच यह लग रहा है कि देश को तोड़ने की जो साजिशें चल रही हैं, वे सफल नहीं होंगी। यकीनन जब आम आदमी खड़ा हो जाता है तो देश को तोड़ने की तमाम साजिशें नाकाम हो जाती हैं। किंतु दुख की बात तो यह भी है कि क्षत-विक्षत दलगत राजनीति के चलते समाज में भी टूटन/बिखराव उत्पन्न हो गया है जिससे जनता भी पक्ष और विपक्ष की भूमिका में नजर आने लगी है। इसलिए यह प्रश्न बना रहता है कि आज की सारी समस्याएं इतिहास को नष्ट करने का काम रही हैं। कभी हम इस महापुरुष को उस महापुरुष से लड़ा रहे हैं, कभी इस घटना पर शोर मचा रहे हैं, कभी उस घटना पर शोर मचा रहे हैं।”
बाबा साहेब अम्बेडकर के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है कि बाबा साहब अंबेडकर और उनके संविधान ने समानता का जो अधिकार देश की दीनहीन जनता और महिलाओं को आपको दिया है, वो अधिकार तो भगवान भी कभी नहीं दे पाया और न ही दे सकता है। इन अर्थों में हमें यह सोचना ही होगा कि समानता का ये अधिकार मानव मूल/इंसानों के लिए कितना ज़रूरी है। यहां यह भी सोचने की जरूरत है कि समानता का अधिकार सिर्फ़ दलितों को दिया गया है। जब आप महिलाओं और मज़दूरों की ओर देखेंगे तो कहा जा सकता है कि समानता का अधिकार समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए भी दिया गया है। आज की कलुषित राजनीति के चलते समाज के अमुक तबकों को ऐसी ज़ंजीरों में बाँधने का प्रयास किया जा रहा है कि क्या खाना खाएगा, कौन वो खाना नहीं खाएगा। व्यक्ति को तब ही स्वतंत्र व्यक्ति कहा जाएगा कि जब वह अपने हिसाब से फैसले ले सके। और फैसले लेने का यह अधिकार हमें हमारे देश के महान संविधान ने दिया है, जिसके रचयिता बाबा साहब अंबेडकर थे। इसलिए मुझे लगता है कि यह सिर्फ दलितों का मामला नहीं है, यह सिर्फ वंचितों का मामला नहीं है। यह भारत के प्रत्येक नागरिक का हितों का मामला है।
अगर आप भारत के नागरिक हैं, अगर आपको भारत की नागरिकता पर गर्व है और अगर आपको भारतीय होने पर गर्व है, तो ये भारत के हर व्यक्ति के लिए हर दिन उत्सव का अवसर है। मान लीजिए आपके घर से कोई विधायक बन जाता है, तो निश्चित तौर पर आप बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। लेकिन क्या आपकी लड़ाई यहीं खत्म हो जाती है? इसके अलावा क्या सामाजिक हितों की लड़ाइयाँ शेष नहीं हैं? इसलिए यह जान लें कि जब आज़ादी की लड़ाई चल रही थी, तो आज़ादी की दो लड़ाइयाँ एक साथ चल रही थीं।
एक थी राजनीतिक आज़ादी प्राप्त करने की और दूसरी थी सामाजिक आज़ादी की । राजनीतिक आज़ादी के नेताओं में चाहे महात्मा गांधी हों, चाहे जवाहरलाल नेहरू हों और चाहे भगत सिंह हों, आप जो कहना चाहें कह सकते हैं। लेकिन वे सभी का बहुत सम्मान पात्र हैं। लेकिन जब आप सामाजिक लड़ाई की बात आती हैं तो हमको ज्योतिबा फुले को याद करना होगा। बाबा साहब अंबेडकर को याद करना होगा। और ये वो नाम हैं जो याद आते हैं और याद आते रहेंगे। इनके अलावा हज़ारों-लाखों लोग रहे हैं जो इन लड़ाइयों में शहीद हो गए और उन्हें शहादत का दर्जा तक भी नहीं मिला। अगर मैं आपको एक बात बताऊँ तो शायद आपको हैरानी होना तय है।
लोकमान्य तिलक का नाम तो हर कोई जानता है। लोकमान्य तिलक आज़ादी की लड़ाई के बहुत बड़े नायक थे। लेकिन जब लोकमान्य तिलक से सामाजिक न्याय का अधिकार माँगा गया, तब उन्होंने कहा कि अछूतों को भी संसद में जाने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। तो उन्होंने कहा, "अछूत वहाँ क्या करेंगे? अछूतों का वहाँ क्या काम है?" तो किसी ने पलटकर पूछा, तो फिर वहाँ ब्राह्मणों का क्या काम है? वहाँ आपको दीया नहीं जलाना है, वहाँ आपको समाज के लिए लड़ना है। लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। वे श्रीधर तिलत लोकमान्य तिलक के पुत्र थे। कहा जाता है कि जो बाबा साहब अंबेडकर के साथ थे। और पुणे के ब्राह्मण समाज ने उनका इतना अपमान किया, इतना परेशान किया कि श्रीधर तिलक बाल गंगाधर तिलक के सबसे छोटे पुत्र थे, जिन्हें उदार और तर्कसंगत विचारों के कारण उस समय महाराष्ट्र क्षेत्र के रूढ़िवादियों द्वारा इतना परेशान किया गया था। जिसे बर्दाश्त न कर पाने के कारण उन्होंने 25 मई 1928 को आत्महत्या कर ली थी । किंतु श्रीधर तिलक जैसे लोगों को आज कोई याद नहीं करता।
क्यों? क्योंकि उस समय वे समृद्धि की बात कर रहे थे। वे इस तरह से व्यवस्था कर रहे थे कि सभी जातियों के लोग एक साथ उठें-बैठें, साथ-साथ खाना खाएँ। किंतु पुणे के ब्राह्मणों ने, जिन्होंने ज्योतिबा फुले के खिलाफ अभियान चलाया था, श्रीधर तिलक भी जमकर विरोध किया। लेकिन अगर इतिहास पर नज़र डालें तो श्रीधर तिलक को लोकमान्य तिलक के पैसे से एक भी पैसा नहीं मिला। श्रीधर तिलक को केसरी अख़बार से हटा दिया गया। और लोकमान्य तिलक के दामाद के पास सारी ताकत थी। लेकिन हम श्रीधर तिलक को भूल जाते हैं। आजकल इतिहास पर बहुत फ़िल्में आ रही हैं जिनमें से अधिकत्र इतिहास को नष्ट करने के लिए उद्देश्य से आई हैं। एक फ़िल्म आई थी जिसके बाद औरंगज़ेब की कब्र खोदी जा रही थी। उस फ़िल्म में कोई कट नहीं था। किसी ने नहीं कहा कि यह फिल्म समाज में सूखा पैदा करेगी, जो औरंगजेब की मृत्यु 350 साल पहले हुई थी। बताया जाता है कि वहाँ आमतौर पर कोई भीड़ नहीं देखी जाती । एक बहुत ही साधारण कब्र है। भारत के मुस्लिम समाज में औरंगजेब कोई सूफी या संत नहीं थे कि लोग वहां जाकर लाइन में लग जाएं। लेकिन उसका नाम क्यों लाया गया? क्योंकि नफरत फैलती रही और उस फिल्म में कोई कट नहीं था।
अब ज्योतिबा फुले पर फिल्म बन गई है। लेकिन जब ज्योतिबा फुले पर फिल्म बनती है तो इतिहास 100 साल पुराना होता है, 400 साल पुराना नहीं। अगर आप आज भी पुणे जाएं, फुलेवाड़ा जाएं, या वहां के कार्यकर्ताओं से मिलें तो वे ऐसी कहानियां सुनाएंगे जैसे ये उनके घर की कहानी हो। क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी कहानी चलती रहती है। ज्योतिबा फुले को कैसे परेशान किया जाता था, कैसे जब उनकी पत्नी पढ़ाने जाती थीं तो उन पर कीचड़ गारा फेंका जाता था, कैसे नाना विधि से ड्रामा रचा गया। फिल्म आई तो सेंसर बोर्ड द्वाराउस पर कैंची चला डाली। फिल्म के कुछ दृष्यों की अब कटौती की जा रही है। क्या कट रहा है? उसमें एक संवाद था कि तीन हज़ार साल से हम जो अपमान सह रहे हैं, जो असमानता हम सह रहे हैं, उसे कटवा दिया गया। हम कुछ सालों से इसे सह रहे हैं।
आप कहेंगे कि पाँच हज़ार साल पुरानी परंपरा है आपकी। आप कहेंगे कि मनु महाराज ने हज़ारों साल पहले मनुस्मृति लिखी थी। जब बाबा साहब संविधान लेकर आए तो ब्राह्मणवादियों ने कहा कि मनुस्मृति को संविधान की तरह लागू किया जाना चाहिए। और जब ज्योतिबा फुले पर फिल्म बनी तो उस पाँच हज़ार साल पुरानी परंपरा पर सवाल उठाया जाएगा तो आप उस पर कटाक्ष करेंगे। सिर्फ़ इतना ही नहीं, सारी कटौतियाँ कर दी गई हैं। क्यों? क्योंकि ये पीढ़ी आगे नहीं आती। लेकिन असली खेल तो इस देश में वो लोग हैं जिन्होंने पाँच हज़ार साल से अपना दबदबा बनाया हुआ है और आज़ादी की लड़ाई के दौरान जो दोनों तरह के आंदोलन हुए। जब भगत सिंह की हत्या होती है, उन्हें फांसी होती है, तो बाबा साहब उनके लिए एक पत्र लिखते हैं। बाद के दौर का कोई भी बड़ा नेता जो ज्योतिबा फुले का समर्थन करता है, अगर कोई सौ कदम चलता है, बाबा साहब अगर सौ कदम चलते हैं, तो बाकी लोग बीस कदम चलेंगे।
हमारी आज़ादी की लड़ाई में सब बराबर हैं, कोई जातिवाद नहीं होना चाहिए, कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए और जब हमारा संविधान बना तो उस संविधान में अगर एक व्यक्ति और एक वोट का सिद्धांत रखा गया, अगर उस संविधान में आरक्षण का सिद्धांत स्वीकार किया गया।
जब वो हिंदू कोड बिल लेकर आए थे, तब जिन लोगों ने 1951-52 में बाबा साहब और नेहरू के पुतले जलाए थे। ज्ञात हो कि स्वामी करपात्री जी लगातार डॉ. अंबेडकर और नेहरू के खिलाफ लिख रहे थे और डॉ. अंबेडकर और नेहरू की मूर्ति जलाई गई ताकि हिंदू कोड बिल न आ सके। इस पर बाबा साहब को दुःख में इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन बाद में उसके बाद हिंदू कोड बिल को नेहरू के प्रतिनिधत्व में अलग-अलग समय पर चार भागों में पारित किया गया। जो लोग उस समय हिंदू कोड बिल का सबसे ज्यादा विरोध कर रहे थे, जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे थे, जो लोग उस समय के थे जब संविधान बन रहा था और पारित हो रहा था। वो कह रहे थे कि हमारे पास तो मनुस्मृति पहले से ही है, नए संविधान की क्या जरूरत है? वो ही लोग आज बाबा साहब अंबेडकर की मूर्ति पर माल्यार्पण करते हैं, क्योंकि बाबा साहेब के पीछे बहुत बड़ा वोट बैंक है। लेकिन अंदर ही अंदर संविधान को खोखला करने की तैयारी चल रही है। 2024 के लोकसभा चुनाव में तो भाजपा ने स्पष्ट रूप से घोषणा कर ही थी कि अगर उनके 400 सांसद आ जाते हैं तो वो संविधान को बदल देंगे। खैर! जनता ने भाजपा को 240 सीटों पर ही समेट दिया और भाजपा जी मसोस कर रह गई। साफ बात तो ये है कि आर एस एस और इसकी आड़ में काम कर रही संस्थाओं ने बाबा साहेब की विरोध तो बाबा साहेब के मैदान में उतर आने के समय से ही विरोध करती रही हैं, जिसके मुख्य कारणों के निम्न व्याख्या से सहज ही समझा जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर अक्सर बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों और योगदान को अपने राजनीतिक और सामाजिक एजेंडे के लिए उपयोग करने का प्रयास किया जाता रहा है, जबकि सच्चाई ये है कि वे लोग डा. अम्बेडकर की विचारधारा का सम्मान नहीं करते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए हैं जो इस मुद्दे को उजागर करते हैं:
1. राजनीतिक उपयोग: भाजपा और आरएसएस अक्सर अम्बेडकर को अपने राजनीतिक अभियानों में उपयोग करते हैं, लेकिन उनके विचारों और योगदान को पूरी तरह से अपनाने में विफल रहते हैं।
2. विचारधारा की असंगति: अम्बेडकर की विचारधारा और भाजपा-आरएसएस की विचारधारा में महत्वपूर्ण अंतर है। अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय, समानता, और लोकतंत्र पर जोर दिया, जबकि भाजपा-आरएसएस की विचारधारा में हिंदू राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को प्रमुखता दी जाती है।
3. सामाजिक न्याय पर कम जोर: भाजपा और आरएसएस ने अक्सर सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दों पर हमेशा ही विरोध किया जाता रहा है, जबकि सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दे डा. अम्बेडकर की विचारधारा के मूल तत्व हैं।
4. अम्बेडकर की विरासत का उपयोग: भाजपा और आ