
दो पहियों पर एक मुसाफ़िर
काट रहा ब्रह्मांड को ।
जगमग करते दूर से
वो ताक रहा है चांद को ।।
चाहत चांद को पाने की
कुछ दौड़ तेज़ लगवाती है।
उल्टे - सीधे, टेढ़े-मेढ़े
हर राह की चाह कराती है ।।
नहीं देखता, नहीं सूझता ज
जो भी कुछ आस - पास है।
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