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कृष्ण - यशोदा संवाद (मथुरा प्रस्थान के समय)

कृष्ण यशोदा से -


अब मुझको जाने दो मैया,

धर्म खींचता अपनी और ।


प्रेम डोर से बंधे हुए हम

प्रेम डोर से बंधे रहेंगे,

तन से हों प्रत्यक्ष भले न

मन के सूत्र तो बने रहेंगे ।


है प्रेम, सचिदानंद अनंत

है व्यापक ये मन में घन में,

संकुचित मत होने दो इसको

तन में, मन में, अपनेपन में ।


है धर्म समूचे मानव और

मानव जाति का रक्षण हो,

मानवता के हर शत्रु का

हर अन्यायी का भक्षण हो ।


धर्म भला क्या रह पाएगा

अर्थ व्यष्टि होने पर,

गति धर्म की बनी रहेगी

अर्थ समष्टि होने पर ।


धरती सबको पोषित करती

सूरज सबका जीवन-दाता,

वायु से सबके प्राण चले

इनका सबसे सम का नाता ।


जब सृष्टि में कोई भेद नहीं

क्यों मानव स्वार्थ पे ठहरे है,

है अपना क्या? सब अपना है

मैं सबका हूं सब मेरे हैं ।


हित अपना, क्या हित अपना

हित सबका हो तो बात बने,

हित-लाभ समूचे जग का हो

तब ही सुन्दर संसार बने ।


सब ईश्वर की संतानें हैं

ईश्वर सब

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