इक दिन मैं भी सिंक जाऊंगा
इस बैगन की तरह चूल्हे पे,
फिर कोई ठंडा पानी डालेगा
और उठता भाप फिर से मुझे झुल्साएगा।
चमड़ी भी तब आसानी से उधड़ेगी;
मेरा भर्ता फिर सब खाएँगे
कुछ चटखारे लेंगे,
कुछ को तब भी स्वाद न आएगा।
दीवाली की अगली सुबह
वो खंगाल रहा है फूटे पटाखे,
शायद कोई अधमरा मिल जाए
तो फिर से उसे सुलगाएगा।
कोई नहीं है इस कमरे में
बस मैं और मेरा यक़ीं;
अधूरी ज़िन्दगी के कुछ अ
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