
ये सुनसान सड़कें ये दहशत का आलम ,
कहीं जिंदगी भी ठहर सी गई है।
कुदरत कुपित है , है लालच मनुज का
अक्षय अमीरी विवश हो गई है।
था श्रेष्ठता का दंभ मनु को , अहं विश्वंभर का था
चर अचर खग पशु कामिल,स्वार्थ से रौंदा गया ।
सभ्यता की पराकाष्ठा,चरमकाल प्रत्यक्ष हुआ ,
धरा का संतुलन बिगड़ा,वात भी दूषित हुआ।
गीध गायब हो रहे थे ,जीव संकटग्रस्त थे,
नदी सागर सब प्रदूषित,गिरी हिम भी पिघल रहे ।
श्रेष्ठता की होड़ थी , वसुंधरा लाचार थी
दुर्दशा भूलोक से सब, जान कर अनजान थे।
पृथ्वी और आकाश जल क्या ,सिर्फ मानवों के लिए था,
या कि पारिस्थितिकी संतुलन,अस्तित्व का ही मूल था।
ब्रह्मरचित सुंदरतम सृष्टि,परमपिता की दूरदृष्टि
रचयिता ने मानवों को , रखा था शीर्षस्थ पर ,
सृष्टि सहअस्तित्व पर था,संतुलन ही मूल था,
संतुलन को कायम रखना, मानवों का धर्म था
किन्तु स्व की मनोकांक्षा ,विज्ञान के बढ़ते चरण
विकास के नए सोपान,
विश्व रचयिता मूल नियामक को चुनौती दे रहे थे,
ब्रह्मांड की असीमता में, अपनी लघुता भूल गए थे।
भूल गया मनु धर्म अपना, अन्य के प्रति कर्म अपना,
प्रतिकार तो होना ही था,प्रकृति को सामने आना ही था ,
असंतुलन को दूर करने ,सहअस्तित्व प्रस्थापित करने।
सृष्टि के भी सभी अवयव,प्रतिकार को तैयार थे,
धरा के अवसाद के उपचार को लाचार थे।
महाशक्ति विश्व की, घुटनों पे है आ पड़ी
विवश विज्ञान है, भविष्य से अनजान है
शत्रु चारों ओर है, सूक्ष्मतम अदृश्य है
कौन लाया है इसे, धरा पर आया है कैसे
पैदाइशी विज्ञान की,मानव अहंकार की