
हों रहीं धूसर दृष्टि
पाताल के भाँति व्यतीत होने लगीं सृष्टी
ज्वलंत अग्नि सी वृष्टी
सबकी कामनाओं ने जला दी धरती
न कभी जीव अथवा निर्जीव की सुद्ध ली
बस विवशता का अकारण देकर
शीतल आकाश में ताप्ती वायु भर दी
इस विनाश को रोके तो कैसे रोके हम ?
अब बस बहुत हुआ ऐसा कहकर
अपने अंतर्मन में अब झाँक कर देखें हम l
भीतर एक प्रचंड अंधकार हैं ,
ऊंचे दर्शन की प्रतीक्षा में बैठा ,
रिक्त शून्य सा
सत्य से भरने को आतुर..
तो क्यों न अब ज्य
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