
क्या थी तू क्या हो गयी हैं
अपने देवी स्वरूप को जैसे खो रहीं है
आज ही नहीं तू हमेशा से ही अकेली थी
लेकिन अकेले लड़ना जैसे भूल गयी हैं l
वो आग तेरे भीतर आज भी है
लेकीन कहीं दबी हुई है
चुप चाप सब सह रहीं है
लेकिन क्यूँ?
सहना अब बहुत हुआ निडर निर्भय होकर तू फिर निकल
अंधकार में अग्नि बन तू फिर निखर
क्रांती की ज्योति बन तू हो प्रखर
तब न दमन होगा तेरा
ना निर्बलता से नाम जुड़ेगा l
क्यूँ करते संदेह के विचार तेरे मस्तिष्क का फेरा ?
ऐसे भीतर से खोखले करने वाले भाव ने क्यूँ तेरे मन को घेरा ?
शुरू से ही थी तुम धरती माँ का रूप
ममता तेरी ना हुई कभी विद्रूप
कीचड़ में खिलते कमल की तरह
तू विद्या विवेक से भरी
आ अपने शक्ति रूप में
और विनाश कर दे विकृतियों का !
राक्षसी वृत्तियों ने डाल रखा है डेरा
मौके के तलाश में हर पशुवत पुरुष है ठहरा
प्रकट कर दे तू अब इनका असली चेहरा
खुद को देख ही डर जाएंगे
अपनेआप ही पीछे हट जाएंगे
अपने श्वान युक्त स्वाभाव से सम्भल जाएंगे l
किंतु
तू ना रुकना ना डरना