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टूटते समाज की घुटन



आवाज़ उठाई उसके जुल्मो के खिलाफ़
वो आया मेरी गली शायद मुझे डराने को

वो चार का ग्रुप आवाज़ में आक्रोश लिए
देखना चाहता खौफ में मुझमे परिवार में

पास पडोस झांकते अर्द्धखुली खिड़की से
काश वे साथ आ जाते हज़ारो की भीड़ में

काश वे भी बन जाते मेरी सशक्त आवाज़ 
तब कैसे कोई फैलाता आतंक समाज मे

'काश' सदा ही पर यहां बेबस होता गया
कोई आगे न आया किसे दोषी करार देता

क्या मैं स्वयं अपने गुनाह का शिकार था
या गुनाह है बैठे डर का उन छुपे पड़ोस में

हम हज़ारो अकेले रहे वे चार थे जुड़े जुड़े
गुनाह ग्रुप के आवाज़ दबाने की चाह का

मजबूरी की बेडिया हज़ारो पड़ोसियों की
साथ खड़े रहने का ख्वाब पाले आपस में
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