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मेरे गांव की बुढ़िया

मेरे गांव की बुढ़िया जिसके चर्चे आम थे
न समाज सेविका न सम्पन्न महिला थी
हर घर आंगन में भुआ बन वो आ जाती
वह बिन बोले ठौर ठौर प्यार लूटा जाती

एक रोटी नमक जीवन का गुजारा करती
शाम ढलते मन्दिर के अहाते में सो जाती
मुस्कराहट बिखेरती आलोचना से दूर रही
सब और खुशियाँ बांट वो सदा संपन्न रही

बिन थके बिन बोले सबका काम करती
वहां घरों में कुंए से पानी भर भर लाती
उस छांह तले मेरा बचपन भी गुजरा था
क्या समझता वो बिनलिखी किताब थी

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