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छलक रहा दर्द

ईद या दूज ढूंढे चांद आस्था मानकर
समझ नही पाए पूर्णिमा की रात को
बांटता रहा है वो चांदनी इस धरा पर
बरसाता अमृत आस्था के शिखर पर

देखते थे घट में टूटन आयी है किधर 
पानी रिसता कहाँ से उन्हें नही खबर 
टूटते संबंध संभाले आए महफ़िल में 
पुछ रहे थे बताओ जरा टूट है किधर 

शातिराना अंदाज़ था नादानी कहते
चेहरा देख सबको मूरख समझ बैठे
मासूमियत से कहे नफरत है किधर 
शब्दों के चयन में ही नफ़रत झलके

छलक रहा दर्द उनके हर लफ्ज में 
लग रहा था घाव लगे हुए हो गहरे 
लंबी खामोशी के बाद शब्द टूटे से
अरसे बाद जैसे कोई बूत बोल उठे
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