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बेपरवाह आवारगी


समक्ष प्रियतमा और बेपरवाह आवारगी
गले का हार नही प्रतिस्पर्धा का दौर था

जब हाथ बढ़ाया हाथ से फिसलती गयी 
हम इस मुगालते में रहते वह पिघल रही

मोहब्बत को अपना ही हक समझ बैठे
समय ने करवट बदल दी बेचैन होने लगे 

समय बदलता गया ठौर भी बदलते रहे<
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