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अमृतकाल में कालिमा किधर



तिमिर तिरोहित हो भोर अरुणिमा लायी
उदित हो आफताब पथ प्रशस्त कर रहा

क्षितिज पर रवि स्वर्णिम रश्मि बिखेरता 
भास्कर से नवयुग उद्गम का उद्घोष रहा

विस्मृति के अंधेरो में स्वप्न विलीन हो रहे
स्वप्नबोध तिमिर संग विगलित होता गया

स्मृतिपटल पर नव स्मृति जाल बुन रही
प्रसार युग का प्रारंभ नूतन स्मृति बुनता

विकास से ज्यादा विकास का शोर बढा
नाकामियां प्रसार की आड़ में छुप गयी

कौन किससे पूछे कारवां कैसे लुट गया
जहां पीडित ही लुटेरों के साथ खडा था

प्राकृतिक आपदाएं दस्तक देकर लौटी
मानवता ने प्राणाहुति देकर विदा किया

जिम्मेवार था वह दूर से देखता रह गया
बदलता नजरिया सर्वत्र दृष्टिगत हो रहा

कैसे कोई क्रूरता का आयाम बखानता
कोई और होता
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