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हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण! अरि के प्राणों को हरो हरो ~संजय कवि 'श्रीश्री'
देखो समक्ष है रणभूमि,
काल रूप तुम धरो धरो;
हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण!
अरि के प्राणों को हरो हरो।
घोर समर ये मातृदेश का,
महाबली लड़ना है तुम्हें;
निज भावों को वज्र करो,
पावक पथ चलना है तुम्हें।
उठना गिरना गिरकर उठना,
नियति ने बारम्बार किया;
हे अभयंकर कालजयी,
तुमने नियति को पार किया।
विकट परीक्षा है प्रचंड,
उत्तीर्ण इसको करो करो;
हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण!
अरि के प्राणों को हरो हरो।
हे पराक्रम के मूर्त रूप,
मन-प्रबोध कर उठो वीर;
युद्ध आसन को ग्रहण करो,
शंखनाद करके गम्भीर।
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